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कार्तिक में पूरे महीने आकाशदीप से रौशन रहती है काशी, जानिए क्या है इसकी कहानी - Kartik full month sky lamp burns in Kashi

कार्तिक के पूरे एक महीने तक काशी में आकाशदीप जलाए (Kartik full month akashdeep burns in Kashi) जाते हैं. यह परंपरा सदियों से चली आ रही है. जिसका निर्वहन आज भी यहां के लोग करते हैं.

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Published : Oct 11, 2022, 2:30 PM IST

वाराणसी: काशी में संस्कृति और सभ्यता के साथ परंपराओं को आज भी संभाल कर रखा जाता है. वाराणसी में पुरातन संस्कृति की झलक को दुनिया भर में फैलाने का काम किया जा रहा है. सनातन धर्म के साथ भारत की पुरानी परंपरा आज भी इस शहर में जीवित दिखाई देती है. रामायण महाभारत काल की परंपराओं को इस शहर के लोगों ने आज भी सहेज कर रखा है. ऐसी ही एक परंपरा आकाशदीप (akashdeep burns in Kashi) यानी आकाश को जाने वाले रास्ते पर दीपक प्रज्ज्वलित करने की है.

काशी में कार्तिक के पूरे महीने में होने वाली एक परंपरा का निर्वहन आज सदियों से किया जा रहा है. ऐसी परंपरा और मान्यता कार्तिक महीने में आकाशदीप (Kartik full month akashdeep burns in Kashi) जलाने की बनारस के घाट से शुरू हुई थी. लेकिन बाद में वाराणसी के प्रत्येक घाट पर आकाशदीप प्रज्ज्वलित होने लगे. कार्तिक मास के पहले दिन से लेकर कार्तिक महीने की पूर्णिमा यानी अंतिम तिथि तक प्रत्येक शाम सूर्य अस्त होने के साथ ही लंबे-लंबे बांस पर बंधी डोलची में दीपक की रोशनी कुछ यूं टिमटिमाती है. जैसे मानिए तारे जमीन पर उतर आए हो.

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काशी में आकाशदीप जलते हुए

आकाशदीप का क्या महत्त्व है: आकाशदीप का पौराणिक (what is importance of sky lamp in Kashi) महत्त्व है. गंगा तट, सरोवर, तालाबों के किनारे घर की छतों तक आकाशदीप जलाने की प्रथा काशी में सदियों पुरानी है. मान्यता है कि पंचनंद तीर्थ के रूप में पूजित पंचगंगा घाट पर महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने हजारों दीपों से अलंकृत गुलाबी पत्थरों का एक अद्भुत स्ट्रक्चर तैयार करवाया था. जिसकी स्थापना आज से 240 वर्ष पहले 1780 ई. में की गई थी.


पढ़ें- पर्यटन में काशी ने गोवा को छोड़ा पीछे, 10 करोड़ से ज्यादा लोगों ने की बनारस की सैर

कार्तिक के पूरे महीने तक दीप (sky lamp burns in Kashi) जलाकर शहीदों और पूर्वजों को श्रद्धांजलि देकर उन्हें नमन करने की परंपरा है. प्रत्येक वर्ष काशी के पंचगंगा घाट, दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका घाट, गायघाट, केदार घाट, समेत अन्य कई घाटों पर आकाशदीप जलाए जाने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है. यह परंपरा कार्तिक माह के प्रथम दिन से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक अनवरत एक माह तक चलती रहती है. जिसकी अलौकिता देखते नहीं बनती है. बतादें, लंबे-लंबे बांस पर रस्सी के सहारे बंधी बांस की डोलचियों में जल रहे दीपक (Kartik full month sky lamp burns in Kashi) को ऊपर तक ले जाया जाता है. मान्यता है कि पूर्वजों और शहीदों के स्वर्ग मार्ग को प्रशस्त करने के लिए इन आकाशदीप को प्रज्ज्वलित किया जाता है.

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आकाशदीप से रौशन काशी

इस अलौकिक परंपरा को बनारस की दो गंगा आरती समितियों के बढ़ाने का कार्य भी कर रही हैं. गंगोत्री सेवा समिति और गंगा सेवा निधि की तरफ से आयोजन हर साल अलग-अलग तिथियों पर किए जाते हैं. गंगोत्री सेवा समिति कार्तिक शुरू होने से पहले ही इस आयोजन को पूर्ण कर चुकी है, क्योंकि सेवा समिति कार्तिक के प्रथम दिन शाम को दीप जलाकर इस परंपरा की शुरुआत करती है. इस बारे में तीर्थ पुरोहित कन्हैया त्रिपाठी का कहना है कि आकाशदीप जैसा कि नाम से ही साफ हो जाता है. इसका मकसद उन तमाम जाने अनजाने लोगों की आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना है. जिन्होंने हमारे और आप के खातिर अपनी जान की बाजी लगा दी. रामायण और महाभारत के काल में भी शहीद हुए सैनिकों की स्मृति में आकाशदीप जलाए गए थे. तभी से यह परंपरा अनवरत रूप से जारी है.


पढ़ें- world mental health day 2022: दरक रहे रिश्ते बढ़ रहे मानसिक रोगी, बच्चे भी नहीं अछूते जानें कैसे करें बचाव

वाराणसी: काशी में संस्कृति और सभ्यता के साथ परंपराओं को आज भी संभाल कर रखा जाता है. वाराणसी में पुरातन संस्कृति की झलक को दुनिया भर में फैलाने का काम किया जा रहा है. सनातन धर्म के साथ भारत की पुरानी परंपरा आज भी इस शहर में जीवित दिखाई देती है. रामायण महाभारत काल की परंपराओं को इस शहर के लोगों ने आज भी सहेज कर रखा है. ऐसी ही एक परंपरा आकाशदीप (akashdeep burns in Kashi) यानी आकाश को जाने वाले रास्ते पर दीपक प्रज्ज्वलित करने की है.

काशी में कार्तिक के पूरे महीने में होने वाली एक परंपरा का निर्वहन आज सदियों से किया जा रहा है. ऐसी परंपरा और मान्यता कार्तिक महीने में आकाशदीप (Kartik full month akashdeep burns in Kashi) जलाने की बनारस के घाट से शुरू हुई थी. लेकिन बाद में वाराणसी के प्रत्येक घाट पर आकाशदीप प्रज्ज्वलित होने लगे. कार्तिक मास के पहले दिन से लेकर कार्तिक महीने की पूर्णिमा यानी अंतिम तिथि तक प्रत्येक शाम सूर्य अस्त होने के साथ ही लंबे-लंबे बांस पर बंधी डोलची में दीपक की रोशनी कुछ यूं टिमटिमाती है. जैसे मानिए तारे जमीन पर उतर आए हो.

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काशी में आकाशदीप जलते हुए

आकाशदीप का क्या महत्त्व है: आकाशदीप का पौराणिक (what is importance of sky lamp in Kashi) महत्त्व है. गंगा तट, सरोवर, तालाबों के किनारे घर की छतों तक आकाशदीप जलाने की प्रथा काशी में सदियों पुरानी है. मान्यता है कि पंचनंद तीर्थ के रूप में पूजित पंचगंगा घाट पर महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने हजारों दीपों से अलंकृत गुलाबी पत्थरों का एक अद्भुत स्ट्रक्चर तैयार करवाया था. जिसकी स्थापना आज से 240 वर्ष पहले 1780 ई. में की गई थी.


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कार्तिक के पूरे महीने तक दीप (sky lamp burns in Kashi) जलाकर शहीदों और पूर्वजों को श्रद्धांजलि देकर उन्हें नमन करने की परंपरा है. प्रत्येक वर्ष काशी के पंचगंगा घाट, दशाश्वमेध घाट, मणिकर्णिका घाट, गायघाट, केदार घाट, समेत अन्य कई घाटों पर आकाशदीप जलाए जाने की परंपरा का निर्वहन किया जाता है. यह परंपरा कार्तिक माह के प्रथम दिन से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक अनवरत एक माह तक चलती रहती है. जिसकी अलौकिता देखते नहीं बनती है. बतादें, लंबे-लंबे बांस पर रस्सी के सहारे बंधी बांस की डोलचियों में जल रहे दीपक (Kartik full month sky lamp burns in Kashi) को ऊपर तक ले जाया जाता है. मान्यता है कि पूर्वजों और शहीदों के स्वर्ग मार्ग को प्रशस्त करने के लिए इन आकाशदीप को प्रज्ज्वलित किया जाता है.

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आकाशदीप से रौशन काशी

इस अलौकिक परंपरा को बनारस की दो गंगा आरती समितियों के बढ़ाने का कार्य भी कर रही हैं. गंगोत्री सेवा समिति और गंगा सेवा निधि की तरफ से आयोजन हर साल अलग-अलग तिथियों पर किए जाते हैं. गंगोत्री सेवा समिति कार्तिक शुरू होने से पहले ही इस आयोजन को पूर्ण कर चुकी है, क्योंकि सेवा समिति कार्तिक के प्रथम दिन शाम को दीप जलाकर इस परंपरा की शुरुआत करती है. इस बारे में तीर्थ पुरोहित कन्हैया त्रिपाठी का कहना है कि आकाशदीप जैसा कि नाम से ही साफ हो जाता है. इसका मकसद उन तमाम जाने अनजाने लोगों की आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना है. जिन्होंने हमारे और आप के खातिर अपनी जान की बाजी लगा दी. रामायण और महाभारत के काल में भी शहीद हुए सैनिकों की स्मृति में आकाशदीप जलाए गए थे. तभी से यह परंपरा अनवरत रूप से जारी है.


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