लखनऊ: 'मानव तस्करी' एक व्यापक शब्द है, लेकिन पुलिस की कार्रवाई मानव तस्करी को लेकर काफी सीमित है. हालांकि समाज का वह वर्ग जो महिला और बच्चों के लिए लगातार काम कर रहा है. उसका मानना है कि अगर ह्यूमन ट्रैफिकिंग 'मानव तस्करी' को खत्म करना है तो पुलिस को अपनी कार्रवाई का दायरा बढ़ाना होगा.
बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था 'सेव द चाइल्ड' के पदाधिकारियों का कहना है कि ह्यूमन ट्रैफिकिंग के तहत पुलिस सीधे तौर पर उन मामलों में कार्रवाई करती है, जिनमें यह बात निकलकर सामने आती है कि बच्चे, महिला या पुरुष खरीदे या बेचे जाते हैं, लेकिन समाज में व्याप्त ह्यूमन ट्रैफिकिंग के कई और भी उदाहरण है, जिन पर पुलिस सामान्यत: कार्रवाई करती नहीं दिखाई देती.
उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर झारखंड, बिहार से महिलाएं खरीदकर यूपी लाई जाती हैं, जहां उनसे देह व्यापार का धंधा करवाया जाता है. इसका खुलासा होने पर जिम्मेदार विभाग देह व्यापार के धंधे के तहत कार्रवाई करता है, लेकिन इस दौरान कम ही बार देखा गया है कि ट्रैफिकिंग के तहत कार्रवाई की जाती हो. ऐसा ही होटलों में काम करने वाले बंधुआ और बाल मजदूर हैं. इन बच्चों को गांवों से शहर में लाया जाता है और नियमों पर ताक पर रखकर उनसे काम करवाया जाता है.
सेव द चिल्ड्रन संस्थान के पदाधिकारियों की ओर से ह्यूमन ट्रैफिकिंग को लेकर जो बातें कही गई हैं. उसका अंदाजा सरकारी आंकड़ों से भी लगाया जा सकता है. एनसीआरबी के आंकड़े के तहत वर्ष 2016 से लेकर 2018 तीन वर्षों तक उत्तर प्रदेश में मात्र 33 मामले ह्यूमन ट्रैफिकिंग के तहत दर्ज किए गए हैं. साल 2016 में 23 मामले, 2017 में 10 मामले और 2018 में 0 मामले ट्रैफिकिंग के दर्ज किए गए हैं, लेकिन अगर बच्चों और महिलाओं की गुमशुदगी के आंकड़ों पर नजर डालें तो उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में बच्चे और महिलाओं की गुमशुदगी दर्ज है.
सेव द चिल्ड्रन के लिए काम करने वाले प्रभात कुमार का कहना है कि उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में गुमशुदगी दर्ज की गई है. इनमें से भारी संख्या में बच्चे रिकवर नहीं किए गए हैं ऐसे में इस बात को भी सोचना जरुरी है कि आखिर बच्चे गए तो कहां गए ?
साल 2020 की शुरुआत से लेकर अब तक राजधानी लखनऊ में बच्चों की गुमशुदगी और बरामदगी के आंकड़ों पर नजर डालें तो लखनऊ में 15 जनवरी के बाद से अब तक कुल 121 गुमशुदगी दर्ज की गई है. इनमें से 101 गुमशुदा लोगों को बरामद किया गया है जब कि 20 बच्चों को बरामद करने में लखनऊ पुलिस नाकामयाब रही है तो ऐसे में अंदाजा लगा सकते हैं कि राजधानी में गायब हुए कुल बच्चों में 16 फीसदी बच्चे रिकवर नहीं हुए हैं. अगर यह हाल राजधानी लखनऊ का है तो अन्य जनपदों में अंदाजा लगाया जा सकता है कि बड़ी संख्या में बच्चे रिकवर करने में यूपी पुलिस नाकामयाब रही है.
पुलिस का रवैया असंतोषजनक
ह्यूमन ट्रैफिकिंग की घटनाओं की संभावनाओं के पीछे एक बड़ा कारण यह भी है कि गुमशुदा बच्चों को लेकर पुलिस की कार्रवाई में कई बार लापरवाही देखी जाती है. उदाहरण के तौर में राजधानी लखनऊ में एक पीड़िता पिछले 1 महीने से अपने बच्चे की तलाश में दर-दर भटक रही है. इस महिला का नाम रीता सिंह है, जिसका बच्चा गुम हो गया. वहीं बच्चे के गुम होने की बाद महिला ने 25 मई को मड़ियाव थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई थी. महिला का आरोप है कि पुलिस उसके बच्चे की रिकवरी के लिए प्रयास नहीं कर रही है और जांचकर्ता दारोगा आला अधिकारियों के चक्कर लगा रही है, लेकिन कोई भी उसकी मदद नहीं कर रहा है.
डीसीपी क्राइम पीके तिवारी ने बताया कि पुलिस मानव तस्करी को लेकर काफी गंभीर है. बच्चे-महिला और पुरुष की तस्करी को लेकर सतर्कता बरतते हैं. इसमें एनजीओ की भी मदद ली जाती है. राजधानी में कमिश्नरेट सिस्टम लगने के बाद अब तक एक भी मानव तस्करी का मामला नहीं दर्ज किया गया है. लखनऊ के आंकड़ों के बारे में जानकारी देते हुए डीसीपी क्राइम ने बताया कि पुलिस कमिश्नर सिस्टम लगने के बाद लखनऊ में 121 बच्चे गुमशुदा दर्ज किए गए. इनमें से 101 बच्चों को बरामद किया गया है वहीं 20 बच्चों की रिकवरी के प्रयास किए जा रहे हैं.
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