लखनऊ: यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले राजनीतिक फायदे के लिए आपसी द्वेष को भुलाकर समाजवादी पार्टी का परिवार एक हो गया. चाचा शिवपाल भतीजे अखिलेश के साथ आ गए, लेकिन कुछ ऐसे भी राजनीतिक परिवार हैं, जो लाख कोशिश करने के बाद भी एक नहीं हो सके. इन्हीं में से एक अपना दल की अनुप्रिया पटेल का परिवार है. अनुप्रिया ने अपनी मां कृष्णा पटेल से इस बार एक होकर चुनाव लड़ने के लिए हाथ बढ़ाया था, लेकिन मां ने बेटी का प्रस्ताव ठुकरा दिया. वहीं दूसरा परिवार लोक दल और राष्ट्रीय लोक दल का है. चौधरी अजीत सिंह के गुजर जाने के बाद बेटे चौधरी जयंत सिंह ने कमान संभाल ली, लेकिन लोकदल मुखिया चौधरी सुनील सिंह से हाथ मिलाना उन्होंने उचित नहीं समझा. इन दोनों परिवारों में बिखराव ही रहा. चुनावी घमासान के साथ परिवार का आपसी घमासान जारी है.
कृष्णा पटेल के पति व अनुप्रिया पटेल के पिता सोनेलाल पटेल कांशीराम के बेहद करीबी नेताओं में से एक थे. बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक नेताओं में शामिल सोनेलाल इस बात से नाराज थे कि कांशीराम मायावती को अधिक अहमियत दे रहे थे. ये नाराजगी तब उफान पर आ गयी, जब साल 1995 में गठबंधन की सरकार बनने पर कांशीराम ने मायावती को मुख्यमंत्री बनने के लिए आगे किया. मायावती की सरकार 5 महीने बाद गिर गयी. उसके कुछ दिन बाद ही सोनेलाल ने बसपा से हट कर अपनी नई पार्टी अपना दल का गठन किया.
सोनेलाल और उनकी पार्टी ने समाजवादी पार्टी, बसपा व भाजपा की लहर में काफी संघर्ष किया. 2002 में पहला विधायक अपना दल से चुना गया और वो था माफिया अतीक अहमद, लेकिन उसके बाद 2007 विधानसभा व 2009 के लोक सभा चुनाव में अपना दल का खाता तक नहीं खुला. साल 2009 में सोनेलाल पटेल की दूसरी बेटी अनुप्रिया पटेल की शादी आशीष सिंह से हो गयी. शादी के महज 1 महीने में ही सोनेलाल पटेल की सड़क हादसे में मौत हो गयी. इसके बाद उनकी पत्नी कृष्णा पटेल ने पार्टी का काम-काज अपने हाथ में ले लिया. इस दौरान अनुप्रिया और आशीष पार्टी के लिए सक्रियता से काम करने लगे.
यही नहीं पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच अनुप्रिया काफी लोकप्रिय होने लगीं. अनुप्रिया काफी पढ़ी लिखी थीं और उनमें तब तक राजनीतिक समझ आ चुकी थी. 2012 में अपना दल को कामयाबी मिली, अनुप्रिया पटेल वाराणसी की रोहनिया सीट से विधानसभा चुनाव जीत गईं. इसके बाद कृष्ण पटेल ने 2014 के लोक सभा चुनाव में बीजेपी के साथ गठबंधन किया. अपना दल के हिस्से में दो सीटें आई थी. उन्होंने लड़ा और जीता भी. इसमें अनुप्रिया पटेल मिर्जापुर से जीत कर दिल्ली तक पहुंचीं थीं. इस जीत के बाद अपना दल व मां-बेटी के बीच दूरियां बढ़ने की शुरुआत हो गयी थी.
शून्य से 2 सांसद देने वाले अपना दल में क्यों खिंची तलवारें
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अपना दल और पटेल परिवार ने एक साथ चुनाव लड़ा व दो सांसद जीते. अनुप्रिया सांसद बनीं, तो उनकी विधानसभा सीट रोहनियां खाली हो गयी. ऐसे में अनुप्रिया चाहती थीं कि इस सीट से उनके पति आशीष पार्टी के उम्मीदवार बनें. लेकिन, उनकी मां कृष्णा पटेल की अध्यक्षता वाली पार्टी की कमेटी ने इस मांग को खारिज कर दिया. उनकी मां खुद रोहनिया से चुनाव लड़ीं. जानकारों के मुताबिक अनुप्रिया के बढ़ते कद से उनकी बड़ी बहन पल्लवी पटेल कुछ अधिक खुश नहीं थीं. पति आशीष पटेल को टिकट न मिलने से अनुप्रिया ने अपनी मां के चुनाव में साथ नहीं दिया और वो चुनाव हार गईं. अनुप्रिया को मोदी मंत्रिमंडल में जगह मिली और इसने आग में घी डालने का काम किया. बढ़ते दखल से नाराज कृष्णा पटेल ने बिटिया अनुप्रिया को पार्टी के महासचिव पद से हटा दिया. अनुप्रिया और उनके 6 करीबी नेताओं को 7 मई 2015 को पार्टी से भी बाहर का रास्ता दिखा दिया.
अपना दल को लेकर युद्ध
अनुप्रिया व उनके सहयोगियों को अपना दल से निकालने के बावजूद वो केंद्र में मंत्री होने के नाते अब तक राजनीति में पूरी तरह से स्थापित हो चुकी थी. इसलिए उन्होंने साल 2016 में खुद की पार्टी बना ली. इसका नाम अपना दल (सोनेलाल) रखा, वहीं कृष्णा पटेल ने भी अपनी अलग पार्टी बना ली, जिसका नाम अपना दल (कमेरावेदी) रख दिया.
संपत्ति का विवाद है झगड़े की जड़
पटेल परिवार में एक दूसरे के बढ़ते कद को देख पड़ी फूट तो झगड़े की एक कड़ी मात्र है. फूट की दूसरी कड़ी संपत्ति से जुड़ती है, जिसको लेकर अनुप्रिया व कृष्णा खेमे में जंग छिड़ी हुई है. अनुप्रिया पटेल के साथ रहने वाली उनकी सबसे छोटी बहन अमन पटेल ने मां कृष्णा व बड़ी बहन पल्लवी पटेल पर संपत्ति हड़पने व सोनेलाल ट्रस्ट पर अपना हक बताने को लेकर कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. यही नहीं कृष्णा पटेल ने अनुप्रिया के पति आशीष पर आरोप लगाया था कि संपत्ति के लालच में आशीष उनकी हत्या करवा सकते हैं.
गले मिलने की भी हुई कोशिश
यूपी विधान सभा चुनाव से पहले खबरें आई थीं कि अनुप्रिया पटेल ने सुलह-समझौता करने के लिए कृष्णा पटेल को राज्य सरकार में मंत्री पद दिलवाने, अपने पति आशीष पटेल की जगह विधान परिषद भेजने, 2022 के विधानसभा चुनाव में टिकट देकर जितवाने और उनके समर्थकों को भी दो-तीन सीटें देने की पेशकश की थी. कृष्णा पटेल ने इस सुलह समझौता को सिरे से खारिज कर दिया था. अंदरखाने से खबरें आईं कि पल्लवी पटेल व उनके पति पंकज निरंजन समझौते के खिलाफ थे.
क्यों नहीं मिल रहे दिल
सोनेलाल पटेल के परिवार में खींची तलवारे म्यान में जाने के लिए तैयार नहीं हैं. विवाद का कारण सिर्फ राजनीतिक वर्चस्व होता, तो शायद कुछ वरिष्ठ नेता बैठकर सुलह भी करवा देते. इन दोनों खेमों में सिर्फ वर्चस्व ही नहीं, बल्कि संपत्ति का विवाद है, जिसे कोई बाहरी सुलझा नहीं सकता. एक तरफ अनुप्रिया पटेल के पति आशीष पटेल हैं, वहीं दूसरी तरह पल्लवी के पति पंकज निरंजन. दोनों में बिल्कुल ही नहीं बनती है. कहा जाता है कि आशीष और पंकज में एक बार लखनऊ स्थित अपना दल कार्यालय को लेकर हाथापाई भी हुई थी. वरिष्ठ पत्रकार विजय उपाध्याय का मानना है कि ये कहना बिल्कुल गलत नहीं होगा कि राजनीतिक हिस्सेदारी की लड़ाई के अलावा संपत्ति विवाद एक बड़ी वजह है. यही नहीं जब बहनों की शादी नहीं हुई थी, तब उनके बीच समझ का स्तर भिन्न था. शादी के बाद बड़ा बदलाव आ गया. जोब एक का पति एमएलसी हो और दूसरा कुछ भी न हो, तो बहनों की लड़ाई में दामादों का बराबर का न होना भी एक बड़ा कारण है.
चौधरी परिवार के बीच हैं दूरियां
1989 में जनता दल टूटने के बाद चौधरी चरण सिंह ने 29 अगस्त 1984 को लोक दल का गठन किया गया था. चौधरी चरण के जिन्दा रहने तक पार्टी रूतबे के साथ चलती रही, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद लोकदल पर अधिकार जमाने को लेकर राजनीतिक जंग छिड़ गई. कुछ दिनों तक हेमवती नंदन बहुगुणा इसके अध्यक्ष रहे, लेकिन बाद में यह लड़ाई चुनाव आयोग पहुंच गई. पार्टी पर दावा करने वालों में चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह भी शामिल थे, लेकिन चुनाव आयोग में तीन जजों की कमेटी ने इस मामले में कहा था कि अजीत सिंह बेटे होने के नाते चरण सिंह की संपत्ति के वारिस तो हो सकते हैं, मगर पार्टी की विरासत उन्हें नहीं मिल सकती. इसके बाद लोकदल की कमान चौधरी चरण सिंह के बेहद करीबी व कई बार के लोकदल विधायक और मंत्री रहे अलीगढ़ के जाट नेता चौधरी राजेंद्र सिंह को मिली. इसके बाद चौधरी चरण के बेटे अजीत सिंह ने टिकैत की पार्टी भारतीय किसान कामगार पार्टी में 1996 में शामिल हुए. अजीत सिंह ने मऊ के कद्दावर किसान नेता कल्पनाथ राय की पार्टी राष्ट्रीय लोक दल को जयंती चंद्र से लेकर 1998 में सिरे से चलना शुरू किया था।
अजीत सिंह व सुनील सिंह को मिलाने के लिए नेताओं ने की थी कोशिश
साल 2003 में जब सुनील सिंह निर्दलीय एमएलसी बने, तब उन्होंने 2006 में लोक दल को चलाने की शुरुआत की थी. वहीं दूसरी तरफ अजीत सिंह खुद को राष्ट्रीय लोक दल के सहारे कांग्रेस सरकार में मंत्री पद पाकर मजबूत होते जा रहे थे. इस बीच जाटों के कद्दावर नेता सतपाल मलिक जो वर्तमान में मेघालय के राज्यपाल हैं, उन्होंने अजीत सिंह व सुनील सिंह के बीच सुलह कराने की भरपूर कोशिश की थी, लेकिन सफलता नहीं मिली.
आज भी धुर विरोधी है सुनील-जयंत
भले ही सुनील सिंह व जयंत चौधरी में पारिवारिक संबंध न हो, लेकिन दोनों के ही बाबा एक दूसरे के बचपन के मित्र थे. लोक दल पार्टी की विरासत सुनील के पिता चौधरी राजेंद्र को मिलने पर अजीत सिंह ने अलग पार्टी शुरू की, तो सुनील सिंह ने अपने सभी रिश्ते अजीत सिंह से तोड़ लिए. अजीत की पार्टी रालोद केंद्र में कांग्रेस की सहयोगी पार्टी बनी और मजबूत होती गयी, लेकिन सुनील सिंह की लोक दल का ग्राफ घटता गया. ऐसे में पहले सुनील सिंह और अजीत सिंह के बीच दूरियां बढ़ती गयीं.
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राजनीतिक विश्लेषक योगेश मिश्रा कहते है कि राष्ट्रीय लोक दल को सुनील सिंह की जरूरत ही नहीं है. जयंत के पास जनाधार है, बड़े राजनीतिक दलों का सहयोग है. ऐसे में बिना जनाधार के सुनील सिंह से सुलह कर उनका कोई भी फायदा नहीं है. उनका मानना है कि राजनीति में भावनाओं की जगह बहुत कम होती है, फायदा जिधर ज्यादा हो धुरी उधर ही मुड़ती है.
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