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लोकसभा उपचुनाव : बसपा की रणनीति ने फेरा सपा के सपनों पर पानी

उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रहीं बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती इन दिनों खासा चर्चा में हैं. लोग चर्चा कर रहे हैं कि मायावती का जादू अब खत्म हो चला है और दलितों का प्रेम अब बसपा के बजाय भारतीय जनता पार्टी के साथ है.

बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती
बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती
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Published : Jun 28, 2022, 11:17 PM IST

लखनऊ : उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रहीं बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती इन दिनों खासा चर्चा में हैं. हाल ही में हुए विधानसभा के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी अपने सबसे बुरे दौर में दिखाई दी. लोग चर्चा कर रहे हैं कि मायावती का जादू अब खत्म हो चला है और दलितों का प्रेम अब बसपा के बजाय भारतीय जनता पार्टी के साथ है. विगत 23 जून को लोकसभा की दो सीटों पर हुए उपचुनाव के बाद आए परिणामों ने भी बसपा समर्थकों को निराश ही किया है. यह बात और है कि समाजवादी पार्टी को इन दोनों सीटों पर अपनी हार का कारण बसपा ही दिखाई देती है. सपा के कई नेता कह रहे हैं कि आजमगढ़ सीट पर बसपा ने मुस्लिम प्रत्याशी गुड्डू जमाली को मैदान में उतारकर समाजवादी पार्टी के समीकरण बिगाड़ दिए, जबकि रामपुर में बसपा ने प्रत्याशी नहीं उतारा और इसका भी नुकसान सपा को हुआ. दोनों ही सीटें भाजपा ने समाजवादी पार्टी से छीनी हैं.

दरअसल, 2019 का लोकसभा चुनाव सपा और बसपा ने गठबंधन करके लड़ा था. इस गठबंधन के बाद जो परिणाम आए वह दोनों ही पार्टियों के लिए आशा अनुकूल नहीं थे. बसपा को लगता है कि ज्यादा सीटें जीतकर आ सकती थी, जबकि सपा को लगता था कि बसपा का आधार वोट बैंक सपा को नहीं मिला और उन्हें अपेक्षाकृत परिणाम नहीं मिले. लोकसभा चुनाव के कुछ दिन बाद ही मायावती ने गठबंधन तोड़ने का फैसला कर लिया था. दोनों पार्टियों का गठबंधन टूटने के बाद आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला. दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के नेता बसपा को भारतीय जनता पार्टी की बी टीम कहते रहे हैं. स्वाभाविक है कि यह बात मायावती को नागवार गुजरी.

उमाशंकर दुबे, राजनीतिक विश्लेषक

दूसरी बात, विधानसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित होने के बाद बसपा को लगता है कि अब दलित-ब्राह्मण कार्ड फिलहाल नहीं चलेगा. ऐसे में मायावती चाहती हैं कि सपा के साथ लंबे समय से जुड़ा मुस्लिम मतदाता बहुजन समाज पार्टी के साथ आए. यही कारण है कि मायावती ने रामपुर में सपा के वरिष्ठ नेता मोहम्मद आजम खान के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए उनके प्रत्याशी के खिलाफ कोई उम्मीदवार न खड़ा करने का फैसला किया. मायावती ने जेल में बंद रहने और रिहाई के बाद भी आजम खान के प्रति सहानुभूति वाले कई बयान जारी किए थे. बसपा मुखिया को लगता है कि उत्तर प्रदेश में आजम खान मुसलमानों के बड़े नेता हैं. बसपा को उनका साथ मिल जाए तो वह 2024 में बड़ा परिवर्तन लाकर दिखा सकती हैं. यही कारण है कि मायावती ने रामपुर में कोई उम्मीदवार नहीं उतारा.

दूसरी ओर आजमगढ़ की लोकसभा सीट समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के त्यागपत्र देने के बाद खाली हुई थी. स्वाभाविक है कि यह समाजवादी पार्टी के लिए प्रतिष्ठा वाली सीट थी. समाजवादी पार्टी ने धर्मेंद्र यादव को मैदान में उतारकर यादव-मुस्लिम बहुल इस क्षेत्र में दोबारा जीत के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी. अखिलेश यादव को लगता था धर्मेंद्र यादव के मैदान में उतरने से यादव मतदाता का वोट उन्हें मिल ही जाएगा. साथ ही मुस्लिम मतदाताओं के सामने भी कोई दूसरा विकल्प नहीं है, क्योंकि एक दशक से मुस्लिमों का वोट समाजवादी पार्टी में ही जाता रहा है. अखिलेश की या बड़ी भूल थी. आजमगढ़ के अधिकांश मुस्लिम मतदाताओं ने स्थानीय बसपा प्रत्याशी गुड्डू जमाली को वोट देना ज्यादा उचित समझा. जबकि फिल्म स्टार और भाजपा प्रत्याशी निरहुआ, जो खुद भी जात से यादव हैं, यादव वोट बैंक में सेंध लगा दी. स्वाभाविक है कि दोनों ही सीटें सपा के हाथ से जाती रहीं. इन दोनों सीटों पर बसपा के लिए खोने को कुछ भी नहीं था, लेकिन उसने अपने प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी को धूल जरूर चटा दी. स्वाभाविक है मायावती का ध्यान अब 2024 के लोकसभा चुनाव पर ही है. वह 2024 के चुनाव के लिए अभी से रणनीति बना रही हैं और उम्मीद की जा रही है कि वह नए समीकरणों के साथ अगले चुनाव में उतरेंगी. हां, मायावती की रणनीति ने समाजवादी पार्टी के सामने परेशानी जरूर खड़ी कर दी है.

ये भी पढ़ें : संपत्ति का ब्यौरा न देने वाले आईएएस अफसरों के खिलाफ नोटिस जारी
इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषक उमाशंकर दुबे कहते हैं कि 'आजमगढ़ और रामपुर की जीत को भारतीय जनता पार्टी को अति उत्साह में नहीं लेना चाहिए. दरअसल यह आजम खान और अखिलेश यादव द्वारा छोड़ी गई सीट थी. हालांकि यह माना जाता है कि उप चुनाव सत्ता का होता है. सबसे बड़ी बात यह है कि दोनों ही सीटों पर जीत का अंतर बहुत ज्यादा नहीं है. इसलिए भाजपा को 2024 के हिसाब से रणनीति बनाने की जरूरत है. कहीं ऐसा न हो कि अति उत्साह में आकर वह अपना ज्यादा नुकसान कर लें.'
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लखनऊ : उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रहीं बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती इन दिनों खासा चर्चा में हैं. हाल ही में हुए विधानसभा के चुनाव में बहुजन समाज पार्टी अपने सबसे बुरे दौर में दिखाई दी. लोग चर्चा कर रहे हैं कि मायावती का जादू अब खत्म हो चला है और दलितों का प्रेम अब बसपा के बजाय भारतीय जनता पार्टी के साथ है. विगत 23 जून को लोकसभा की दो सीटों पर हुए उपचुनाव के बाद आए परिणामों ने भी बसपा समर्थकों को निराश ही किया है. यह बात और है कि समाजवादी पार्टी को इन दोनों सीटों पर अपनी हार का कारण बसपा ही दिखाई देती है. सपा के कई नेता कह रहे हैं कि आजमगढ़ सीट पर बसपा ने मुस्लिम प्रत्याशी गुड्डू जमाली को मैदान में उतारकर समाजवादी पार्टी के समीकरण बिगाड़ दिए, जबकि रामपुर में बसपा ने प्रत्याशी नहीं उतारा और इसका भी नुकसान सपा को हुआ. दोनों ही सीटें भाजपा ने समाजवादी पार्टी से छीनी हैं.

दरअसल, 2019 का लोकसभा चुनाव सपा और बसपा ने गठबंधन करके लड़ा था. इस गठबंधन के बाद जो परिणाम आए वह दोनों ही पार्टियों के लिए आशा अनुकूल नहीं थे. बसपा को लगता है कि ज्यादा सीटें जीतकर आ सकती थी, जबकि सपा को लगता था कि बसपा का आधार वोट बैंक सपा को नहीं मिला और उन्हें अपेक्षाकृत परिणाम नहीं मिले. लोकसभा चुनाव के कुछ दिन बाद ही मायावती ने गठबंधन तोड़ने का फैसला कर लिया था. दोनों पार्टियों का गठबंधन टूटने के बाद आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला. दूसरी ओर समाजवादी पार्टी के नेता बसपा को भारतीय जनता पार्टी की बी टीम कहते रहे हैं. स्वाभाविक है कि यह बात मायावती को नागवार गुजरी.

उमाशंकर दुबे, राजनीतिक विश्लेषक

दूसरी बात, विधानसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित होने के बाद बसपा को लगता है कि अब दलित-ब्राह्मण कार्ड फिलहाल नहीं चलेगा. ऐसे में मायावती चाहती हैं कि सपा के साथ लंबे समय से जुड़ा मुस्लिम मतदाता बहुजन समाज पार्टी के साथ आए. यही कारण है कि मायावती ने रामपुर में सपा के वरिष्ठ नेता मोहम्मद आजम खान के प्रति सहानुभूति दिखाते हुए उनके प्रत्याशी के खिलाफ कोई उम्मीदवार न खड़ा करने का फैसला किया. मायावती ने जेल में बंद रहने और रिहाई के बाद भी आजम खान के प्रति सहानुभूति वाले कई बयान जारी किए थे. बसपा मुखिया को लगता है कि उत्तर प्रदेश में आजम खान मुसलमानों के बड़े नेता हैं. बसपा को उनका साथ मिल जाए तो वह 2024 में बड़ा परिवर्तन लाकर दिखा सकती हैं. यही कारण है कि मायावती ने रामपुर में कोई उम्मीदवार नहीं उतारा.

दूसरी ओर आजमगढ़ की लोकसभा सीट समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के त्यागपत्र देने के बाद खाली हुई थी. स्वाभाविक है कि यह समाजवादी पार्टी के लिए प्रतिष्ठा वाली सीट थी. समाजवादी पार्टी ने धर्मेंद्र यादव को मैदान में उतारकर यादव-मुस्लिम बहुल इस क्षेत्र में दोबारा जीत के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी. अखिलेश यादव को लगता था धर्मेंद्र यादव के मैदान में उतरने से यादव मतदाता का वोट उन्हें मिल ही जाएगा. साथ ही मुस्लिम मतदाताओं के सामने भी कोई दूसरा विकल्प नहीं है, क्योंकि एक दशक से मुस्लिमों का वोट समाजवादी पार्टी में ही जाता रहा है. अखिलेश की या बड़ी भूल थी. आजमगढ़ के अधिकांश मुस्लिम मतदाताओं ने स्थानीय बसपा प्रत्याशी गुड्डू जमाली को वोट देना ज्यादा उचित समझा. जबकि फिल्म स्टार और भाजपा प्रत्याशी निरहुआ, जो खुद भी जात से यादव हैं, यादव वोट बैंक में सेंध लगा दी. स्वाभाविक है कि दोनों ही सीटें सपा के हाथ से जाती रहीं. इन दोनों सीटों पर बसपा के लिए खोने को कुछ भी नहीं था, लेकिन उसने अपने प्रतिद्वंदी समाजवादी पार्टी को धूल जरूर चटा दी. स्वाभाविक है मायावती का ध्यान अब 2024 के लोकसभा चुनाव पर ही है. वह 2024 के चुनाव के लिए अभी से रणनीति बना रही हैं और उम्मीद की जा रही है कि वह नए समीकरणों के साथ अगले चुनाव में उतरेंगी. हां, मायावती की रणनीति ने समाजवादी पार्टी के सामने परेशानी जरूर खड़ी कर दी है.

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इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषक उमाशंकर दुबे कहते हैं कि 'आजमगढ़ और रामपुर की जीत को भारतीय जनता पार्टी को अति उत्साह में नहीं लेना चाहिए. दरअसल यह आजम खान और अखिलेश यादव द्वारा छोड़ी गई सीट थी. हालांकि यह माना जाता है कि उप चुनाव सत्ता का होता है. सबसे बड़ी बात यह है कि दोनों ही सीटों पर जीत का अंतर बहुत ज्यादा नहीं है. इसलिए भाजपा को 2024 के हिसाब से रणनीति बनाने की जरूरत है. कहीं ऐसा न हो कि अति उत्साह में आकर वह अपना ज्यादा नुकसान कर लें.'
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