लखनऊ : देश के जिस राज्य में सबसे अधिक पुलिस हिरासत में मौतें हुई हैं, उसी उत्तर प्रदेश में एक और युवक की पूछताछ के दौरान हुई मौत ने बवाल मचा दिया है. हालांकि पिछली घटनाओं की ही तरह इस मौत को भी हादसा बताकर लीपापोती करने की कोशिश की गई है. NHRC के आंकड़े (NHRC figures) बताते हैं कि यूपी में पिछले तीन वर्षों में 1300 से भी अधिक मौतें पुलिस हिरासत के दौरान हुई हैं. ऐसे में सवाल उठते हैं कि आखिरकार कब तक ऐसे ही मौतें होती रहेंगी.
उत्तर प्रदेश के गोंडा के नवाबगंज इलाके के जैतपुर माझा में झोलाछाप डॉक्टर राजेश चौहान की हत्या के मामले में पुलिस ने माझा राठ निवासी देव नारायन यादव को पूछताछ के लिए बुलाया था. 14 सितंबर को दो घंटे की पूछताछ के दौरान देव नारायण की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई. गुरुवार को मृतक के परिवार ने शव रखकर प्रदर्शन किया और नवाबगंज थाने के पुलिसकर्मियों पर पीट-पीटकर हत्या करने के आरोप लगाए. देव नारायण के शरीर पर चोट के निशान थे, लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट में डॉक्टरों के पैनल ने किसी भी बाहरी चोट के होने से इनकार किया है. मौत का कारण दिल का दौरा पड़ने को बताया गया है.
पुलिस हिरासत में पिटाई और फिर मौत का यह अपने आप में अकेला मामला नहीं है. इससे पहले कानपुर के कल्याणपुर इलाके में जितेंद्र सिंह उर्फ कल्लू को पुलिस ने चोरी के एक मामले में पूछताछ के लिए थाने बुलाया था. 15 नवंबर 2021 को कल्लू की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई थी. परिवारवालों ने कल्याणपुर थाने की चौकी में पुलिस पर कल्लू की पीट-पीटकर हत्या करने का आरोप लगाया था, हालांकि शाम होते होते उन्हीं परिवार वालों ने कल्लू की मौत का कारण अपने पड़ोसी को बता दिया था.
9 नवंबर साल 2021 को कासगंज जिले में अल्ताफ नाम के युवक का संदिग्ध परिस्थितियों में कोतवाली शहर के बाथरूम में शव मिला था. पुलिस ने अल्ताफ को एक नाबालिक लड़की के लापता होने के मामले में पूछताछ के लिए थाने बुलाया था. कासगंज पुलिस ने दावा किया कि अल्ताफ ने अपनी जैकेट की हुडी के नारे से बाथरूम की टोटी से लटककर सुसाइड की थी और इस मामले में अल्ताफ के पिता का एक अंगूठा लगा पत्र भी पुलिस ने जारी किया था. जिसमें उन्होंने कहा था कि उनके बेटे ने आत्महत्या की है, उन्हें पुलिस से कोई शिकायत नहीं है. हालांकि बाद में अज्ञात पुलिसकर्मियों के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज कर लिया गया था.
21 मई 2021 को उन्नाव के बांगरमऊ कस्बे में एक 18 साल के युवक की पुलिस हिरासत में मौत हो गई थी. जिले की पुलिस के दो सिपाही कोरोना कर्फ्यू का पालन कराने गए थे और फैजल को सब्जी का ठेला लगाने के जुर्म में थाने लेकर चले गए. पुलिस हिरासत में ही फैज़ल की तबीयत खराब हुई और फिर मौत हो गई. मामले में पुलिस के दो सिपाहियों और एक होमगार्ड पर मुकदमा दर्ज हुआ.
12 दिसंबर 2020 को बुलंदशहर के एक युवक सोमदत्त को दूसरी जाति के लड़की से प्रेम करने के आरोप में पुलिस ने हिरासत में लिया और पूछताछ के दौरान पुलिस की पिटाई से उसकी मौत हो गई. सोमदत्त की मौत के बाद उसके शव का पुलिस ने जबरन उसी के गांव में परिजनों की उपस्थिति में अंतिम संस्कार करा दिया. सोमदत्त के भाई ने बताया था कि दाह संस्कार करने के बाद पुलिस उन्हें थाने ले गई थी और कहा गया कि जैसा पुलिस कहे अगर वैसा नहीं किया तो उनका भी हाल उसके भाई सोमदत्त जैसा ही होगा. जिसके चलते उन्होंने पुलिस के लिखे हुए कागज में साइन कर दिया था,
साल 2020 में आगरा के एक दलित सफाईकर्मी अरुण बाल्मीकि की जगदीश पुरा थाने में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई थी. दरअसल थाने के माल खाने से 25 लाख रुपए की चोरी के शक में अरुण को जगदीशपुर थाने की पुलिस ने हिरासत में लिया था. पूछताछ के दौरान अरुण की मौत हो गई. पुलिस ने बताया कि पूछताछ के दौरान अरुण की तबीयत बिगड़ी और उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहां उन को मृत घोषित कर दिया गया.
क्या कहते हैं NHRC के आंकड़े? : केंद्र सरकार संसद में भी यह मान चुकी है कि सबसे अधिक पुलिस की हिरासत में मौतें उत्तर प्रदेश में होती हैं. बीते साल केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के सांसद अब्दुस्समद समदानी के एक सवाल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के आंकड़े पेश किए थे. इन आंकड़ों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में पिछले तीन साल में 1,318 लोगों की पुलिस और न्यायिक हिरासत में मौत हुई है. वहीं 2021-22 में हिरासत में कुल 501 मौतें हुईं, जबकि इससे पहले यानी 2020-21 में हिरासत में मौत के 451 मामले दर्ज किए गए, जो देश में सबसे अधिक है.
मौतों की मजिस्ट्रेट की जांच जरूरी : पुलिस एनकाउंटर व हिरासत में होने वाली मौतों को लेकर 17 साल पहले साल 2005 में नियमों में बदलाव करते हुए यह तय किया गया था कि एनकाउंटर व पुलिस हिरासत में होने वाली हर मौत की मजिस्ट्रेट जांच अनिवार्य होगी. यही नहीं जांच कर रहे मजिस्ट्रेट को चौबीस घंटों में सिविल सर्जन से शव का परीक्षण कराना होगा और ऐसा ना होने पर इसका कारण दर्ज करना होगा. इसके अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने भी हिरासत में मौत के मामलों में दिशा-निर्देश जारी किए हैं. जिसके मुताबिक, हिरासत में हुई मौत को चौबीस घंटे के भीतर NHRC को जानकारी देना अनिवार्य है. इसके अलावा पोस्टमार्टम की वीडियो रिकॉर्डिंग भी अनिवार्य है.
यह भी पढ़ें : उत्तर प्रदेश में भारी बारिश से 22 लोगों की मौत, आज भी बारिश की चेतावनी
पूर्व पुलिस अधिकारी ज्ञान प्रकाश चतुर्वेदी के मुताबिक, पोस्टमार्टम की रिपोर्ट को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है. पुलिस की पूछताछ के दौरान मौतें होती हैं इस सच को नकार नहीं रहे हैं, लेकिन वो मौत हृदयाघात या ब्रेन हेमरेज से होती है. वह कहते हैं कि अब थर्ड डिग्री का मतलब वह नहीं रहा जो कभी हुआ करता था. यह जरूर है कि पूछताछ के दौरान गंभीर और तीखे सवाल किए जाते हैं जिस पर आरोपी डर जाता है और उसे हार्ट अटैक बढ़ जाता है. अधिकारी कहते हैं कि पुलिस हर वक्त ब्रूफेन या एस्पिरिन लेकर तो बैठ नहीं सकती.
यह भी पढ़ें : कृष्णा नगर में युवती की गला दबाकर हत्या, बोरे में शव फेंक प्रेमी फरार