लखनऊ: उत्तर प्रदेश में साल 1946 से 1989 तक का समय ब्राह्मणों के नाम रहा. छह ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों ने उत्तर प्रदेश की राजनीति को दिशा दी, लेकिन 1989 से 2021 तक का समय सत्ता के लिहाज से ब्राह्मणों के लिए अकाल के समान रहा है. 2017 में कांग्रेस की तरफ से यूपी को फिर से एक ब्राह्मण सीएम देने एक कोशिश हुई. शीला दीक्षित को सीएम का चेहरा भी बना दिया गया, लेकिन आखिरी वक्त पर सपा और कांग्रेस का गठबंधन हो गया और ब्राह्मण सीएम का चेहरा पर्दे के पीछे चला गया.
पहले ब्राह्मण मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत
उत्तर प्रदेश के सबसे पहले ब्राह्मण मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत थे. काकोरी कांड के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के योद्धा का जब कोई केस लड़ने को तैयार नहीं था, तो सबसे पहले वकील होने के नाते गोविंद बल्लभ पंत ने उनका केस अपने हाथ में लिया और लड़ा. उन्होंने अंग्रेजों के स्कूल भी बंद कराने शुरू कर दिए. 1946 में गोविंद बल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए. जब संविधान बना तो फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पंत को मिली.
पहली महिला ब्राह्मण सीएम सुचेता कृपलानी
उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर महिला ब्राह्मण के रूप में सबसे पहले सुचेता कृपलानी काबिज हुईं. 1936 में खुद से उम्र में 20 साल बड़े आचार्य कृपलानी से सुचेता का विवाह हुआ था. बताया जाता है कि महात्मा गांधी सुचेता के पक्ष में नहीं थे लेकिन बाद में वो मान गए. 1952 के आम चुनाव में सुचेता के पति आचार्य कृपलानी की पंडित जवाहर लाल नेहरू से अनबन हो गई, तो इन्होंने कांग्रेस छोड़ दी. सुचेता ने 1957 में कांग्रेस में फिर वापसी कर ली. एक के बाद एक उन्होंने लगातार चुनाव लड़े और हर बार उनकी किस्मत में जीत ही आई. 1963 में जब कांग्रेस विजयी हुई, तो सुचेता कृपलानी को यूपी की कुर्सी सौंपी गई.
कमलापति त्रिपाठी
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ ही पेशे से पत्रकार कमलापति त्रिपाठी बेहद ही शांत स्वभाव के थे. तेजी से भागने के बजाय आराम से चलना पसंद करते थे. 1971 में जब कांग्रेस ने चुनाव की जंग जीती तो कमलापति का लोहा मानते हुए उन्हें पत्रकार से मुख्यमंत्री बनने का मौका दिया. इसे कमलापति त्रिपाठी का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि उनकी सरकार के कार्यकाल में पुलिस ने विद्रोह कर दिया. इसे पीएसी विद्रोह के नाम से जानते हैं. पांच दिन तक पुलिस ने कोई काम ही नहीं किया. पूरा सिस्टम ध्वस्त हो गया. इसका सरकार के साथ ही कांग्रेस पार्टी पर भी बुरा प्रभाव पड़ा.
हेमवती नंदन बहुगुणा
हेमवती नंदन बहुगुणा के बारे में राजनीति के जानकार बताते हैं कि नेतृत्व की क्वालिटी उनमें जन्म से थी. अपने घर से ही उन्होंने नेतृत्व की क्षमता विकसित कर ली थी. जब कॉलेज गए तो बिना किसी देरी के छात्र नेता बन गए. स्वतंत्रता संग्राम हिस्सा लिया और गरम दल के नेताओं का साथ दिया. देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद तेजतर्रार नेता के तौर पर उनकी पहचान सामने आई. 1973 में कांग्रेस ने चुनावों में कमलापति त्रिपाठी को अपना चेहरा बनाया और कांग्रेस को उस समय हार का अंदेशा लग रहा था. उसे कमलापति ने जीत में तब्दील कर दिया. पार्टी ने इनाम के तौर पर उन्हें उत्तर प्रदेश के सीएम का सिंहासन सौंपा था.
श्रीपति मिश्रा
1980 से 1985 के बीच का उत्तर प्रदेश में राजनीति का जो दौर था, वो काफी उतार-चढ़ाव वाला और दिलचस्प था. उत्तर प्रदेश में चुनाव हुए तो कांग्रेस पार्टी ने विजय पताका फहरायी और वीपी सिंह मुख्यमंत्री बने. उस समय बुंदेलखंड में डाकुओं का आतंक था. वीपी सिंह ने फरमान जारी कर दिया कि डाकुओं को खत्म कर दूंगा. अगर नाकाम रहा, तो इस्तीफा दे दूंगा. मुख्यमंत्री वीपी सिंह के इस फरमान के बाद डाकुओं ने उनके भाई को ही मार दिया. वीपी सिंह समझ गए उन्होंने जो कहा है, उसे पूरा नहीं कर पाएंगे. आखिरकार उन्होंने अपने कहे अनुसार मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद आनन-फानन में 1982 में श्रीपति मिश्रा मुख्यमंत्री बनाए गए. अपना कार्यकाल समाप्त करने से पूर्व ही उनकी राजीव गांधी से कहासुनी हो गयी और उन्होंने इस्तीफा दे दिया.
नारायण दत्त तिवारी
नारायण दत्त तिवारी राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी थे. उन्होंने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में तीन बार कमान संभाली. जब उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड राज्य बना, तो उनको वहां का मुख्यमंत्री बनाया गया. राजनीति के इस पुरोधा के नेतृत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है, कि जब-जब कांग्रेस को यह एहसास होता कि पार्टी बिखरने वाली है तब पार्टी को इसी ब्राह्मण नेता की याद आती थी. पहली बार जब पूरा देश इंदिरा गांधी के खिलाफ विरोध का स्वर मुखर कर रहा था, तब 21 जनवरी 1976 से 30 अप्रैल 1977 तक नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री होने के नाते इंदिरा गांधी का मजबूती से साथ देते रहे. मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्रा और राजीव गांधी मैं जब बहस हो गई और श्रीपति ने अचानक इस्तीफा दे दिया तो 1984 से 1985 तक राजीव गांधी ने नारायण दत्त तिवारी पर ही विश्वास जताते हुए उन्हें उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर बिठाया. 1988 से 1989 तक आखिरी ब्राह्मण चेहरे के रूप में एनडी तिवारी ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे.
शुरू हुआ 32 साल के बनवास का काल
तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह को 1980 में मंडल कमीशन ने एक रिपोर्ट सौंपी थी. इसमें पिछड़े वर्ग की 3,743 जातियों की पहचान हुई और 27 फीसदी आरक्षण देने की संस्तुति की गई. इस रिपोर्ट पर पूरे देश में खूब उपद्रव हुआ था, लेकिन पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जातियों के लोगों को इस बात का एहसास हो गया था कि उनके लिए मंडल आयोग की संस्तुतियां अगर लागू हुईं, तो किसी संजीवनी से कम नहीं होंगी. इस वर्ग से आने वाले नेताओं ने इसके समर्थन में आवाज बुलंद कर दी. वीपी सिंह उस समय देश के प्रधानमंत्री थे और उन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू कर दीं. 13 अगस्त 1990 को ब्राह्मणों को सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब मंडल कमीशन लागू हो गया. इसी कमीशन की वजह से ब्राह्मण पिछले 31 साल से उत्तर प्रदेश में सत्ता की कुर्सी से दूर है. मंडल कमीशन के बाद अब तक उत्तर प्रदेश में सिर्फ ठाकुर यादव और अनुसूचित जाति के ही नेता मुख्यमंत्री बने हैं.
1989 में मुख्यमंत्री के रूप में जनता दल पार्टी की तरफ से मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर काबिज हुए. मुलायम सिंह के सत्ता संभालते ही भविष्य में ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनने का किसी भी ब्राह्मण चेहरे का सपना चकनाचूर हो गया. ब्राह्मण अब किसी भी पार्टी को सत्ता तक पहुंचाने का माध्यम ही बनकर रह गया है. 1989 के बाद अब तक उत्तर प्रदेश की गद्दी पर कुल सात मुख्यमंत्री काबिज हुए. इनमें चार भारतीय जनता पार्टी, तो समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के नेता थे.
अगर उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार की बात करें, तो 1989 के बाद से अब तक प्रदेश में बीजेपी ने चार बार सरकार बनाई. पार्टी ने दो ठाकुर, एक बनिया और एक लोधी को अवसर प्रदान किया. समाजवादी पार्टी ने दोनों यादव और बहुजन समाज पार्टी ने अनुसूचित जाति के रूप में मायावती को मुख्यमंत्री चुना.
साल 2007 में बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला अपनाया और ब्राह्मणों को साथ में लिया. उस समय ऐसा लगा कि एक बार फिर यूपी में सत्ता के शीर्ष पर ब्राह्मण भी काबिज हो सकता है लेकिन जब सरकार बनने की बारी आई तो बसपा सुप्रीमो मायावती ने मुख्यमंत्री का पदभार ग्रहण किया और ब्राह्मण सिर्फ वोटर बनकर ही सीमित रह गया. 2009 में बीएसपी के शासन में तमाम ब्राह्मणों पर एससी एसटी एक्ट के तहत मुकदमे दर्ज हुए.
इससे ब्राह्मण बहुजन समाज पार्टी के पाले से छिटक कर समाजवादी पार्टी के पाले में चले गए. साल 2012 में ब्राह्मणों के सहयोग से उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी. अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने, लेकिन ब्राह्मणों का सम्मान यहां भी नहीं हुआ. इसी के विरोध में 2017 में ब्राह्मणों ने भाजपा को समर्थन दिया. फिलहाल यहां पर भी ब्राह्मण को सरकार में तो कुछ हद तक महत्व मिला लेकिन मुख्यमंत्री का चेहरा कोई ब्राह्मण नहीं बनाया गया. कांग्रेस ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री के ब्राह्मण फेस के रूप में आगे किया, लेकिन समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन हो गया और शीला दीक्षित चेहरा न बनाकर अखिलेश यादव चेहरा बन गए. हालांकि सरकार भारतीय जनता पार्टी की बनी.
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इस वर्ग से बने इतने मुख्यमंत्री
उत्तर प्रदेश में अब तक छह ब्राह्मण, पांच ठाकुर, तीन यादव, तीन बनिया, एक अनुसूचित जाति, एक कायस्थ, एक जाट और एक लोधी मुख्यमंत्री बना. उत्तर प्रदेश में अगर पिछड़े वर्ग की बात करें, तो इसके सहयोग के बिना किसी भी पार्टी की सरकार बनना मुश्किल है. फिर चाहे चुनाव विधानसभा का हो या फिर लोकसभा का. मंडल कमिशन की रिपोर्ट की मानें, तो देश की कुल आबादी में ओबोसी का प्रतिनिधित्व 50 फीसदी से अधिक है. उत्तर प्रदेश में सत्ता की चाबी इसी वर्ग के पास है. उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति की संख्या लगभग 21 फीसदी है. अनुसूचित जनजातियां 0.1% हैं. हिंदू ओबीसी 41 फीसदी से ज्यादा, मुस्लिम ओबीसी 12.50 फीसदी से ज्यादा, मुस्लिम सामान्य वर्ग करीब 6%, हिंदू सामान्य वर्ग तकरीबन 19 फीसदी, क्रिश्चियन 0.1% है.
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