नई दिल्ली/अयोध्या: अयोध्या के राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद के सर्वमान्य हल के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित तीन सदस्यीय मध्यस्थता समिति ने सीलबंद लिफाफे में अंतरिम रिपोर्ट सौंप दी है.
मामले की जानकारी रखने वाले सूत्रों ने कहा
- उच्चतम न्यायालय की रजिस्ट्री को छह मई को रिपोर्ट सौंप दी गई थी.
- इस मामले को सुनवाई के लिए शुक्रवार को सूचीबद्ध किया गया है.
- उच्चतम न्यायालय ने मामले के सर्वमान्य समाधान की संभावना तलाशने के लिए इसे आठ मार्च को मध्यस्थता के लिए संदर्भित किया था.
- इस विवाद के समाधान की संभावना तलाशने के लिए शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश एफएम कलीफुल्ला की अध्यक्षता में यह सुनवाई होगी.
- तीन सदस्यीय मध्यस्थता समिति के गठन के आदेश के बाद पहली बार इस मामले की सुनवाई शुक्रवार को होगी.
- इस समिति के अन्य सदस्यों में आध्यत्मिक गुरु और आर्ट आफ लिविंग के संस्थापक श्रीश्री रविशंकर और वरिष्ठ अधिवक्ता श्रीराम पंचू शामिल थे.
- प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति धनंजय वाई चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की पांच सदस्यीय संविधान पीठ अब इस रिपोर्ट को देखेगी और आगे की कार्रवाई पर फैसला करेगी.
- शीर्ष अदालत ने मध्यस्थता के लिए गठित इस समिति को बंद कमरे में अपनी कार्रवाई करने और इसे आठ सप्ताह में पूरा करने के निर्देश दिए थे. संविधान पीठ ने कहा था कि उसे विवाद के संभावित समाधान के लिए मध्यस्थता के संदर्भ में कोई कानूनी अड़चन नजर नहीं आती.
- पूर्व में पीठ को निर्मोही अखाड़े को छोड़कर, हिंदू संगठनों और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बताया गया कि वे अदालत के मध्यस्थता के सुझाव का विरोध करते हैं. मुस्लिम संगठनों ने प्रस्ताव का समर्थन किया था. मध्यस्थता के सुझाव का विरोध करते हुए हिंदू संगठनों ने दलील दी कि पूर्व में समझौते के प्रयास विफल हो चुके हैं. दीवानी प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) के प्रावधानों के लिए प्रक्रिया की शुरुआत से पहले सार्वजनिक नोटिस जारी करने की जरूरत है.
सर्वोच्च अदालत ने निर्देश दिया था कि मध्यस्थता की कार्रवाई बेहद गोपनीयता के साथ होनी चाहिए. इससे उसकी सफलता सुनिश्चित हो सके. मध्यस्थों समेत किसी भी पक्ष द्वारा व्यक्त किए गए मत गोपनीय रखे जाने चाहिए और किसी दूसरे व्यक्ति के सामने इनका खुलासा नहीं किया जाना चाहिए. हालांकि न्यायालय ने इस चरण में किसी तरह की रोक लगाने का आदेश देने से परहेज किया. इसके बजाए मध्यस्थों को यह अधिकार दिया कि अगर जरूरत हो तो वे लिखित में अनिवार्य आदेश जारी करें. इससे मध्यस्थता कार्रवाई के विवरण का प्रकाशन रोका जा सके.