नई दिल्ली : विधान सभा चुनाव के बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग को ध्यान में रखते हुए टिकट बांटे हैं. पहले और दूसरे चरण के लिए बीजेपी ने 60 प्रतिशत सीटें ओबीसी-दलित उम्मीदवारों को दी है. अभी तक घोषित 195 सीटों में 15 ठाकुर, 14 ब्राह्मण, तीन पंजाबी और चार वैश्य को टिकट दिया गया. बाकी बची सीटों पर पार्टी सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले के आधार पर ही अपने उम्मीदवार उतारेगी. इसके अलावा बीजेपी कई सुरक्षित सीटों के अलावा सामान्य सीटों पर दलित कैंडिडेट उतार रही है. उम्मीदवारी में जाति का इस समीकरण से लोगों से यह लगता है कि अब भाजपा ने ब्राह्मण और बनियों की पार्टी होने का ठप्पा उतार फेंका है.
पॉलिटिकल एक्सपर्ट विजय उपाध्याय भी मानते हैं कि 2014 के बाद बीजेपी सिर्फ ब्राह्मण और बनियों की पार्टी नहीं रही. पार्टी ने कल्याण सिंह के जमाने से शुरू हुए सोशल इंजीनियरिंग के सहारे जो रणनीति बनाई, उससे उसकी पैठ ओबीसी और दलित जाति समुदायों के बीच बढ़ी. उसके बाद सभी चुनाव में बीजेपी को लगातार सभी हिंदू जातियों का वोट मिला.
यूपी में चुनाव में ओबीसी कैंडिडेट को तरजीह : हालांकि वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र उत्तरप्रदेश में जातियों के आंकड़े को राजनीतिक दलों का भ्रम मानते हैं. उनका कहना है कि इस गलत आंकड़ों के सहारे टिकट बांटकर बीजेपी सोशल इंजीनियरिंग के ओरिजिनल दावों से भटक गई है. उनका मानना है कि जिस ओबीसी वोट बैंक को बीजेपी 60 फीसद मान रही है, वह गलत है. दूसरी ओर, पॉलिटिकल एक्सपर्ट विजय उपाध्याय का मानना है कि बीजेपी कैंडिडेट के चुनाव में जाति के अनुपात का ध्यान रखेगी. अगली लिस्ट में ब्राह्मण कैंडिडेट की संख्या बढ़ सकती है.
दरअसल भाजपा करीब पिछले 35 साल से ब्राह्मण-बनिया की पार्टी से अलग खुद को सर्वजन के तौर पर स्वीकृत होने की कवायद कर रही थी. इसमें उसे काफी हद तक सफलता भी मिली है. हिंदी पट्टी में इसी सोशल इंजीनियरिंग के कारण पार्टी कई राज्यों में सरकार बना चुकी है. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे ब्राह्मण-बनिया के अलावा ओबीसी और दलित वोट मिले.
बीजेपी पर ब्राह्मण-बनियों की पार्टी होने का ठप्पा : जनसंघ के जमाने से ही बीजेपी ब्राह्मण-बनियों की पार्टी मानी जाती थी. इसके राष्ट्रीय नेतृत्व में शामिल रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी समेत कई नेता ब्राह्मण-बनिया थे. जनसंघ के कोर में ब्राह्मण और बनिए ही थे. हालांकि उन्हें बाकी समाजिक समूहों के लोग का भी साथ मिला, मगर वे शीर्ष नेतृत्व के स्तर तक नहीं दिखे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से नाता रहने के कारण आरएसएस नेतृत्व की छवि पार्टी में देखी जाती रही. हालांकि संघ जाति नहीं बल्कि हिंदुत्व की बात करता है, मगर नागपुर में संघ की बागडोर भी ब्राह्मणों के हाथ में रही. आजादी के बाद पाकिस्तान से आए वणिक वर्ग का जुड़ाव भी संघ, जनसंघ और बीजेपी से रहा.
आंकड़े बताते हैं कि जनसंघ के जमाने में ब्राह्मण और बनिया समुदाय के लोग कांग्रेस में ज्यादा सफल थे. उस दौर में बीजेपी की जीत कम सीटों पर ही होती थी. जहां जीत होती थी, वह ब्राह्मण और वणिक वर्ग के कैंडिडेट होते थे, इससे पहले जनसंघ और बाद में बीजेपी पर इसका ठप्पा लगा.
80 के दौर में गोविंदाचार्य ने शुरू की सोशल इंजीनियरिंग : 80 के दशक के आखिरी दौर में पार्टी के तत्कालीन महासचिव गोविंदाचार्य ने बीजेपी का सामाजिक जनाधार बढ़ाने और अन्य जातियों का समर्थन हासिल करने के लिए जातिगत सोशल इंजीनियरिंग की थ्योरी दी. बीजेपी ने हिंदी पट्टी वाले उत्तर भारत समेत पूरे देश में इसे आजमाना शुरू किया. उन्होंने उस दौर में संगठन के स्तर पर भी पिछड़े और दलित वर्ग को राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया. इसी तहत उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, विनय कटियार, उमा भारती, हुकुम सिंह जैसे नेतृत्व को आगे किया. बिहार में सुशील मोदी और नंद किशोर यादव स्थापित हुए. राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात में भी जब भी बीजेपी को मौका मिला, ओबीसी समुदाय को नेतृत्व सौंपा गया.
कल्याण सिंह ने यूपी में सोशल इंजनीयरिंग के साथ जोड़ा हिंदुत्व : गोविंदाचार्य के इस फॉर्मूले से भाजपा को एक राष्ट्रीय पार्टी बनने की प्रक्रिया में काफी लाभ हुआ. उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह ने इस सोशल इंजीनियरिंग को एक कदम और आगे ले गए. उन्होंने गैर यादव और गैर कुर्मी ओबीसी वोटरों तक पार्टी की पहुंच बनाने की कोशिश की. 1991 में कल्याण सिंह ने सोशल इंजीनियरिंग और हिंदुत्व के तालमेल से सरकार बनाई. इसके बाद से यूपी में उनका यह फॉर्मूला एक दशक तक सुपर हिट साबित होता रहा. 2000 में गोविंदाचार्य की बीजेपी से विदाई के बाद यह मुहिम थोड़ी ठंडी पड़ गई, मगर करीब एक दशक बाद नरेंद्र मोदी- अमित शाह ने इसे फिर से आजमाया. बीजेपी आज जितनी बड़ी पार्टी है, उसके पीछे इस सोशल इंजीनियरिंग का भी योगदान है.
पॉलिटिकल एक्सपर्ट विजय उपाध्याय का कहना है कि बीजेपी के ब्राह्मण-बनिया वाली पार्टी की छवि बदलने में सोशल इंजीनियरिंग के अलावा बदले राजनीतिक परिवेश की भूमिका है. पहले ओबीसी में कुर्मी और यादव राजनीतिक तौर पर अवेयर थे. इसी तरह दलितों में जाटव और पासवान की तूती बोलती थी. अब छोटी-छोटी जाति और उपजाति समूह भी अपनी राजनीतिक हिस्सेदारी के लिए एक्टिव हो चुकी हैं. ओबीसी में लोध, प्रजापति, राजभर जैसे जातियों के नेता ताल ठोंक रहे हैं. इसी तरह दलितों में गैर जाटव भी राजनीति में भूमिका निभा रहे हैं. बीजेपी ने इसका इस नवजागरण का भरपूर फायदा उठाया.
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