हमारे देश के हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार हरिशयनी एकादशी अर्थात् देवशयनी एकादशी वास्तविक तिथि से एक रात पहले ही शुरू हो जाने की परंपरा है. अर्थात यह आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष के दसवें चंद्र दिवस पर शुरू हो जाती है. उसकी अगली सुबह भगवान विष्णु और लक्ष्मीजी की मूर्तियों की पूजा करके देवशयनी एकादशी मनायी जाती है. इस दिन खास तरह से पूजा की जाती है और भगवान के लिए खास भोग बनाए जाते हैं.
देवशयनी एकादशी व्रत के दिन पूजा
देवशयनी एकादशी व्रत के दिन धार्मिक क्रिया-कलापों के लिए ब्रह्ममुहूर्त में सूर्योदय से लगभग डेढ़ घंटे पहले उठकर स्नान और ध्यान के साथ के साथ शुरू कर दी जाती है. उसके बाद, पूजन के लिए आवश्यक चीजें तैयार की जाती हैं और मूर्तियों को वास्तु के अनुसार ईशान कोण में स्थापित करने की तैयारी की जाती है. उस जगह को साफ सुथरा करके एक चौकी पर लाल सूती कपड़े के ऊपर स्थापित किया जाता है.
खीर बनाकर भोग लगाएं
मूर्ति या तस्वीर की स्थापना के उपरांत भगवान गणेशजी और विष्णुजी की मूर्तियों पर गंगाजल छिड़ककर स्नान करके पवित्र किया जाता है और उन्हें फूल और खीर के साथ तिलक लगाया जाता है. उसके साथ ही उसके सामने दीपक जलाया जाता है. इसके बाद देवशयनी एकादशी व्रत की कथा पढ़ी जाती है. इस दिन खीर बनाकर भोग लगाने व दूध की बनी मिठाई का भोग लगाने का खास महत्व है.
देवशयनी एकादशी की कथा
पुराने समय की बात है सूर्यवंश में मान्धाता नाम के राजा का शासन था. वह ईमानदार, शांतिप्रिय, न्यायप्रिय होने के साथ साथ बहादुर व कुशल योद्धा भी थे. राजा हमेशा अपने लोगों की हर जरूरतों का ध्यान रख करता था. राज्य में हमेशा खुशी और समृद्धि भरे रहने की कोशिश में लगा रहता था. मान्धाता के राज्य में दैव कृपा से सब कुछ अच्छा चल रहा था. लेकिन अचानक समय ने करवट ली और उनके राज्य में एक घातक अकाल पड़ा. लोग भूख और निराशा से जूझने लगे.
इस अप्रत्याशित घटना से राजा मान्धाता को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि उसके साम्राज्य में ऐसी कोई भी आपदा कभी नहीं आयी थी. तब राजा ने अकाल को दूर करने के लिए का समाधान खोजने का फैसला किया. ऐसे में राजा भगवान ब्रह्मा के पुत्र, अंगिरा के आश्रम में जा पहुंते और अपने राज्य की व्यथा को बतायी. राजा ने ऋषि से प्रार्थना की और मदद मांगी. इस पर अंगिरा ने राजा को देवशयनी एकादशी के व्रत को करने का सुझाव दिया. राजा ने उनके कहे हर शब्द का पालन किया और उसी के अनुसार उपवास शुरू कर दिया. कुछ ही समय में राजा मांधता के राज्य को अकाल और सूखे से छुटकारा मिल गया, जिससे एक बार फिर उनके राज्य में शांति और समृद्धि वापस आने लगी. तब से इस व्रत की महत्ता बढ़ गयी.
इस कथा के बाद सर्वशक्तिमान भगवान विष्णुजी के आशीर्वाद को प्राप्त करने के लिए आरती और प्रार्थना की जाती है. अंत में भक्तों को प्रसाद वितरण किया जाता है. साथ ही कुछ लोगों को घर पर तैयार पारंपरिक सात्विक भोजन भी कराना चाहिए.