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Election Commissioner Appointment : चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पर क्यों है विवाद, समझें - चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति संवैधानिक अनुरूप

केंद्र सरकार का कहना है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया संवैधानिक व्यवस्थाओं के अनुरूप है. लेकिन विशेषज्ञ इससे सहमत नहीं हैं. सुप्रीम कोर्ट में भी इससे जुड़ी याचिका पर सुनवाई हो रही है. क्या है पूरा विवाद, जानें.

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Published : Dec 4, 2022, 1:40 PM IST

नई दिल्ली : केंद्र ने कहा है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप है. हालांकि विशेषज्ञों और चुनाव अधिकार निकायों ने चुनाव आयोग में वरिष्ठ स्तर की नियुक्तियों की चयन प्रक्रिया पर सवाल उठाए हैं. नियम के अनुसार राष्ट्रपति चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करता है. उनका कार्यकाल छह वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक, जो भी पहले हो, है. वे समान अधिकारों का प्रयोग करते हैं और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समान वेतन और भत्ते प्राप्त करते हैं. मुख्य चुनाव आयुक्त को संसद द्वारा महाभियोग चलाकर ही पद से हटाया जा सकता है.

हालांकि कई लोग चुनाव आयोग के शीर्ष अधिकारियों की चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता के सरकार के दावे से सहमत नहीं हैं और उन्होंने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है. शीर्ष अदालत वर्तमान में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है. याचिकाकर्ताओं का मुख्य तर्क यह है कि चुनाव आयुक्तों की वर्तमान नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 324(2) के अनुसार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है. याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि चूंकि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं, इसलिए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पूरी तरह से कार्यकारी निर्णय है. उनका तर्क है कि यह चयन प्रक्रिया को हेरफेर और पक्षपाती बनाता है.

17 मई 2021 को एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की और चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति प्रक्रिया की वैधता को चुनौती दी. इसे अनुच्छेद 14, 324 (2) और संविधान की बुनियादी विशेषताओं का उल्लंघन बताया. एडीआर ने कहा, वर्तमान में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पूरी तरह से कार्यपालिका द्वारा की जाती है. ऐसी नियुक्ति संस्थागत तंत्र को कमजोर करती है और यह लोकतंत्र के लिए खतरा है. लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराया जाना चाहिए और इसकी जिम्मेदारी एक स्वतंत्र निकाय को सौंपा गई है जो राजनीतिक/कार्यकारी हस्तक्षेप से मुक्त रहेगा.

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के सह-संस्थापक प्रोफेसर जगदीप छोकर ने कहा, वर्तमान में चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में शून्य पारदर्शिता है. कभी-कभी कुछ दिनों के भीतर चुनाव आयुक्त को नियुक्त कर दिया जाता है और कभी-कभी चार-पांच महीने के लिए पद खाली रहता है और चुनाव आयुक्त को अचानक रातोंरात इस पद पर नियुक्त कर दिया जाता है.

उधर, शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग में सदस्यों के कार्यकाल पर कड़ी टिप्पणी की है. 23 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकारों ने भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) की स्वतंत्रता को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है. 1996 से किसी भी मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) को आयोग का नेतृत्व करने के लिए पूरे छह साल का कार्यकाल नहीं मिला है. उन्होंने कहा कि एक सुनिश्चित कानून की कमी के कारण चुनाव आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति में खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई.

न्यायमूर्ति केएम जोसेफ के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा यह एक बहुत ही परेशान करने वाली प्रवृत्ति है. टीएन शेषन (जो 1990 और 1996 के बीच छह साल के लिए सीईसी थे) के बाद गिरावट तब शुरू हुई जब किसी भी व्यक्ति को पूर्ण कार्यकाल नहीं दिया गया. उसके बाद की सभी सरकारों ने ऐसे व्यक्ति को चुनाव आयुक्त बनाया, जो छह साल के कार्यकाल के पहले ही सेवानिवृत्त हो गया. उसी दिन केंद्र सरकार ने कहा कि नियुक्ति प्रक्रिया अच्छी तरह से काम कर रही है, इसलिए अदालत को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है.

अनुच्छेद 342 (2) के तहत एक सकारात्मक जनादेश के बावजूद एक कानून के साथ नहीं आने के लिए सरकार की आलोचना करते हुए याचिकाकतार्ओं ने पिछले सप्ताह प्रस्ताव दिया था कि शीर्ष अदालत केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की तर्ज पर एक चयन पैनल को निर्देशित कर सकती है. पैनल प्रधान मंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी के नेता शामिल हों.

ये भी पढ़ें : यदि केंद्र का पूर्ण नियंत्रण हो जाता है, तो न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं होगी : मदन लोकुर

(आईएएनएस)

नई दिल्ली : केंद्र ने कहा है कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की मौजूदा व्यवस्था संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप है. हालांकि विशेषज्ञों और चुनाव अधिकार निकायों ने चुनाव आयोग में वरिष्ठ स्तर की नियुक्तियों की चयन प्रक्रिया पर सवाल उठाए हैं. नियम के अनुसार राष्ट्रपति चुनाव आयोग में मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करता है. उनका कार्यकाल छह वर्ष या 65 वर्ष की आयु तक, जो भी पहले हो, है. वे समान अधिकारों का प्रयोग करते हैं और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समान वेतन और भत्ते प्राप्त करते हैं. मुख्य चुनाव आयुक्त को संसद द्वारा महाभियोग चलाकर ही पद से हटाया जा सकता है.

हालांकि कई लोग चुनाव आयोग के शीर्ष अधिकारियों की चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता के सरकार के दावे से सहमत नहीं हैं और उन्होंने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है. शीर्ष अदालत वर्तमान में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है. याचिकाकर्ताओं का मुख्य तर्क यह है कि चुनाव आयुक्तों की वर्तमान नियुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 324(2) के अनुसार चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है. याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि चूंकि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं, इसलिए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पूरी तरह से कार्यकारी निर्णय है. उनका तर्क है कि यह चयन प्रक्रिया को हेरफेर और पक्षपाती बनाता है.

17 मई 2021 को एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की और चुनाव आयोग के सदस्यों की नियुक्ति प्रक्रिया की वैधता को चुनौती दी. इसे अनुच्छेद 14, 324 (2) और संविधान की बुनियादी विशेषताओं का उल्लंघन बताया. एडीआर ने कहा, वर्तमान में मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति पूरी तरह से कार्यपालिका द्वारा की जाती है. ऐसी नियुक्ति संस्थागत तंत्र को कमजोर करती है और यह लोकतंत्र के लिए खतरा है. लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराया जाना चाहिए और इसकी जिम्मेदारी एक स्वतंत्र निकाय को सौंपा गई है जो राजनीतिक/कार्यकारी हस्तक्षेप से मुक्त रहेगा.

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के सह-संस्थापक प्रोफेसर जगदीप छोकर ने कहा, वर्तमान में चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में शून्य पारदर्शिता है. कभी-कभी कुछ दिनों के भीतर चुनाव आयुक्त को नियुक्त कर दिया जाता है और कभी-कभी चार-पांच महीने के लिए पद खाली रहता है और चुनाव आयुक्त को अचानक रातोंरात इस पद पर नियुक्त कर दिया जाता है.

उधर, शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग में सदस्यों के कार्यकाल पर कड़ी टिप्पणी की है. 23 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकारों ने भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) की स्वतंत्रता को पूरी तरह से नष्ट कर दिया है. 1996 से किसी भी मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) को आयोग का नेतृत्व करने के लिए पूरे छह साल का कार्यकाल नहीं मिला है. उन्होंने कहा कि एक सुनिश्चित कानून की कमी के कारण चुनाव आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति में खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई.

न्यायमूर्ति केएम जोसेफ के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कहा यह एक बहुत ही परेशान करने वाली प्रवृत्ति है. टीएन शेषन (जो 1990 और 1996 के बीच छह साल के लिए सीईसी थे) के बाद गिरावट तब शुरू हुई जब किसी भी व्यक्ति को पूर्ण कार्यकाल नहीं दिया गया. उसके बाद की सभी सरकारों ने ऐसे व्यक्ति को चुनाव आयुक्त बनाया, जो छह साल के कार्यकाल के पहले ही सेवानिवृत्त हो गया. उसी दिन केंद्र सरकार ने कहा कि नियुक्ति प्रक्रिया अच्छी तरह से काम कर रही है, इसलिए अदालत को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता नहीं है.

अनुच्छेद 342 (2) के तहत एक सकारात्मक जनादेश के बावजूद एक कानून के साथ नहीं आने के लिए सरकार की आलोचना करते हुए याचिकाकतार्ओं ने पिछले सप्ताह प्रस्ताव दिया था कि शीर्ष अदालत केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) की तर्ज पर एक चयन पैनल को निर्देशित कर सकती है. पैनल प्रधान मंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी के नेता शामिल हों.

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(आईएएनएस)

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