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SPECIAL : हाथों के हुनर ने आदिवासी महिला को दिलाई पहचान - Art of tribal woman

भले ही भाषा और धर्म व्यक्ति को विभाजित करतें हैं, परन्तु कारीगरी ऐसी चीज है जो व्यक्ति की सीमित सीमाओं को लांघ कर अन्तर्राष्ट्रीय छवि बना देती है. इस अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर हम आपको ऐसे ही हुनूर की कहानी बताने जा रहे हैं. जिन्होंने अपनी मेहनत से आदिवासी महिलाओं को पहचान दिलाई. देखिए सिरोही से ये स्पेशल रिपोर्ट...

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आदिवासी महिलाओं को पहचान दिलवाने वाली कारीगिरी
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Published : Mar 5, 2020, 8:05 PM IST

सिरोही. जिले के आबू रोड तहसील के आदिवासी बहुल सियावा गांव के लोग भले ही परंपरागत तौर से जीते हैं. भाषाओं के मामले में अभी भी सियावा गांव से बाहर नहीं निकले, परन्तु उनके हाथों की कारीगरी उन्हें जिला, प्रदेश और देश से बाहर विदेशों में भी कुशल कारीगरों के रुप में पहचान करा रही है.

आदिवासी महिलाओं को पहचान दिलवाने वाली कारीगिरी

बता दें कि कुशल कारीगर श्रीमती टीपू ने दस वर्ष पूर्व तालाब की मिटटी से खिलौने बनाने की मुहिम शुरु की. इसे निखारने के लिए उसने स्वयं सहायता समूह बनाकर कुल 12 महिलाओं द्वारा इसे रोजगार का रुप देने का निर्णय लिया. इसके बाद यह एक छोटे से समूह से प्रारम्भ होकर एक कारवां बन गया है.

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मुखौटे बनाती कारीगर

हाथों की कारीगरी में मशगूल लड़कियां और महिलायें

मनुष्य भले ही भौतिक चीजों की रचना में प्राण ना डाल पायें लेकिन यहां इस गांव की आदिवासी युवतियां अपने हाथों के हुनर से मुखौटों को ऐसे आकार देती हैं जिन्हें देखकर लगता है कि यह अभी बोल पड़ेंगे.

प्रतिदिन पचास से साठ युवतियां करती हैं कार्य

बता दें कि रोजाना पचास से साठ युवतियां यहां काम करती हैं और हर एक युवती एक दिन में 10 खिलौने बनाती है. एक खिलौने के दाम 100-200 रुपये होता है. इस तरह से इस आदिवासी गांवों में आज भी रोजाना लाखों का कारोबार होतेा है. एक खिलौने को बनाने में कम से कम सात दिन लगते हैं जिसमें मूर्त रुप देने से पकाने और सजाने संवारने तक का सफर होता है

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मुखौटों में जान फूंक देती हैं ये कारीगर

एक महीने की ट्रेनिंग

युवतियों को इस कार्य में योग्य बनाने के लिए कम से कम एक महीने की ट्रेनिंग दी जाती है. फिर वे बनाने में महारत हासिल कर लेती हैं. इस कारीगरी को बढ़ावा देने के लिए राजस्थान सरकार, नाबार्ड और गृह उद्योग भी सुविधायें और साधन मुहैया करा रहे हैं. इस कारीगरी को लेकर टीपू ईटली, चीन और कई देशों में भी व्यापार कर चुकी हैं.

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मुखौटों की एक तस्वीर

यह भी पढ़ें- सवाल गुड़, शक्कर और घी से मंडी शुल्क हटाने का था, मंत्री ने सदन में गिना डाले अन्य प्रदेशों के शुल्क

इस छोटे से गांव से बनाये गये खिलौने और राजस्थानी परम्परा के वेशभूषा में बनाये गये खिलौने बैगलौर, हैदराबाद, दिल्ली, लखनउ, जयपुर, मुम्बई, कोलकाता और देश के विभिन्न हिस्सों तक निर्यात किये जाते हैं. नेशनल हैडलूम और अन्य सुप्रसिद्ध मेलों में भी इनकी अलग पहचान बनती जा रही है.

सिरोही. जिले के आबू रोड तहसील के आदिवासी बहुल सियावा गांव के लोग भले ही परंपरागत तौर से जीते हैं. भाषाओं के मामले में अभी भी सियावा गांव से बाहर नहीं निकले, परन्तु उनके हाथों की कारीगरी उन्हें जिला, प्रदेश और देश से बाहर विदेशों में भी कुशल कारीगरों के रुप में पहचान करा रही है.

आदिवासी महिलाओं को पहचान दिलवाने वाली कारीगिरी

बता दें कि कुशल कारीगर श्रीमती टीपू ने दस वर्ष पूर्व तालाब की मिटटी से खिलौने बनाने की मुहिम शुरु की. इसे निखारने के लिए उसने स्वयं सहायता समूह बनाकर कुल 12 महिलाओं द्वारा इसे रोजगार का रुप देने का निर्णय लिया. इसके बाद यह एक छोटे से समूह से प्रारम्भ होकर एक कारवां बन गया है.

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मुखौटे बनाती कारीगर

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मनुष्य भले ही भौतिक चीजों की रचना में प्राण ना डाल पायें लेकिन यहां इस गांव की आदिवासी युवतियां अपने हाथों के हुनर से मुखौटों को ऐसे आकार देती हैं जिन्हें देखकर लगता है कि यह अभी बोल पड़ेंगे.

प्रतिदिन पचास से साठ युवतियां करती हैं कार्य

बता दें कि रोजाना पचास से साठ युवतियां यहां काम करती हैं और हर एक युवती एक दिन में 10 खिलौने बनाती है. एक खिलौने के दाम 100-200 रुपये होता है. इस तरह से इस आदिवासी गांवों में आज भी रोजाना लाखों का कारोबार होतेा है. एक खिलौने को बनाने में कम से कम सात दिन लगते हैं जिसमें मूर्त रुप देने से पकाने और सजाने संवारने तक का सफर होता है

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मुखौटों में जान फूंक देती हैं ये कारीगर

एक महीने की ट्रेनिंग

युवतियों को इस कार्य में योग्य बनाने के लिए कम से कम एक महीने की ट्रेनिंग दी जाती है. फिर वे बनाने में महारत हासिल कर लेती हैं. इस कारीगरी को बढ़ावा देने के लिए राजस्थान सरकार, नाबार्ड और गृह उद्योग भी सुविधायें और साधन मुहैया करा रहे हैं. इस कारीगरी को लेकर टीपू ईटली, चीन और कई देशों में भी व्यापार कर चुकी हैं.

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मुखौटों की एक तस्वीर

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इस छोटे से गांव से बनाये गये खिलौने और राजस्थानी परम्परा के वेशभूषा में बनाये गये खिलौने बैगलौर, हैदराबाद, दिल्ली, लखनउ, जयपुर, मुम्बई, कोलकाता और देश के विभिन्न हिस्सों तक निर्यात किये जाते हैं. नेशनल हैडलूम और अन्य सुप्रसिद्ध मेलों में भी इनकी अलग पहचान बनती जा रही है.

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