सिरोही. भले ही भाषा और जाति व्यक्ति को विभाजित करती हों, परन्तु कला ऐसी चीज है जिसके जरिए व्यक्ति सीमित सीमाओं को लांघ कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि बना लेता है. ऐसी ही कारीगरी का सुन्दर नजारा देखने को मिला सिरोही जिले के आबू रोड तहसील के सियावा आदिवासी बहुल गांव में. आज वहां के लोग भले ही परम्परागत तौर पर जीते हैं. अभी भी वे सियावा गांव से बाहर नहीं निकले. परन्तु उनके हाथों की कारीगरी ने उन्हें जिला, प्रदेश और देश से बाहर विदेशों में भी कुशल कारीगरों के रूप में पहचान दिलाई है.
करीब 10 साल पूर्व तालाब की मिट्टी से खिलौने बनाने की मुहिम शुरू हुई. कुशल कारीगर श्रीमति टीपू ने इस कला को आगे बढ़ाने के लिए स्वयं सहायता समूह का गठन कर महिलाओं के लिए इसे रोजगार का जरिया बनाने का निर्णय लिया. इसके बाद यह एक छोटे से समूह से प्रारम्भ होकर एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार का रूप ले चुका है.
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सियावा गांव की आदिवासी युवतियां और महिलाएं अपने हाथों के हुनर से ऐसे मुखौटों को आकार देती है, जिन्हें एकटक देखने पर सिर्फ यही लगता है कि जैसे कुछ ही देर में ये बोल पड़ेगे. रोजाना 50 से 60 युवतियां कार्य करती है और प्रत्येक युवती एक दिन में करीब 10 खिलौने बना लेती है. एक खिलौने के दाम 100-200 रुपए होते हैं. इस तरह से इस आदिवासी गांवों में आज भी लाखों का कारोबार प्रतिदिन होते हैं. एक खिलौने को बनाने में कम से कम सात दिन लगते हैं. जिसमें मूर्त रुप देने से लेकर उसे पकाने तथा सजाने संवारने तक का सफर जारी रहता है.
एक महीने की देते है विशेष ट्रेनिंग
युवतियों को इस कार्य में योग्य बनाने के लिए कम से कम एक महीने की ट्रेनिंग दी जाती है. फिर वे इन्हें बनाने में महारत हासिल कर लेती हैं. इस कारीगरी को बढ़ावा देने के लिए राजस्थान सरकार, नाबार्ड तथा गृह उद्योग भी सुविधाएं और साधन मुहैय्या करा रहे हैं.
इसके अलावा इस छोटे से गांव में राजस्थानी परम्परा के अनुसार यहां की वेशभूषा और शृंगारित कर बनाए गए खिलौने बैंगलोर, हैदराबाद, दिल्ली, लखनउ, जयपुर, मुम्बई, कोलकाता तथा देश के विभिन्न हिस्सों में भी भेजे जाते हैं. इतना ही विदेशों में भी इस कला के लोग मुरीद है. इस हुनर को अलग पहचान दिलाने वाली टीपू चीन, स्वीजरलैण्ड, अमेरिका, इटली, सिंगापुर सहित कई देशों की यात्रा भी कर चुकी है.