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स्पेशल स्टोरी: मिट्टी के मुखौटों ने बढ़ा दिया मान, आदिवासी बहुल सियावा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिलाई पहचान

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Published : Nov 15, 2019, 4:05 PM IST

सिरोही जिले के आदिवासी बहुल इलाके सियावा गांव के लोग भले ही आज भी महानगरों में ना घूमें हो लेकिन उनके हाथों से मिट्टी के तैयार किए गए मुखौटे देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी लोगों की पहली पसंद बने हुए है. यहां की आदिवासी युवतियों और महिलाओं की ओर से तैयार किए गए मुखौटे सामने रखे हो तो ऐसा लगता है मानो वह आपसे अभी बात करने लगेगा. लेकिन शायद उस मुखौटे में जान फूंकने की ताकत इंसान में नहीं है, लेकिन इसके बावजूद वे लोगों के घरों में अपनी मुस्कान बिखेरे हुए हैं.

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सिरोही. भले ही भाषा और जाति व्यक्ति को विभाजित करती हों, परन्तु कला ऐसी चीज है जिसके जरिए व्यक्ति सीमित सीमाओं को लांघ कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि बना लेता है. ऐसी ही कारीगरी का सुन्दर नजारा देखने को मिला सिरोही जिले के आबू रोड तहसील के सियावा आदिवासी बहुल गांव में. आज वहां के लोग भले ही परम्परागत तौर पर जीते हैं. अभी भी वे सियावा गांव से बाहर नहीं निकले. परन्तु उनके हाथों की कारीगरी ने उन्हें जिला, प्रदेश और देश से बाहर विदेशों में भी कुशल कारीगरों के रूप में पहचान दिलाई है.

मिट्टी के मुखौटों ने बढ़ा दिया मान

करीब 10 साल पूर्व तालाब की मिट्टी से खिलौने बनाने की मुहिम शुरू हुई. कुशल कारीगर श्रीमति टीपू ने इस कला को आगे बढ़ाने के लिए स्वयं सहायता समूह का गठन कर महिलाओं के लिए इसे रोजगार का जरिया बनाने का निर्णय लिया. इसके बाद यह एक छोटे से समूह से प्रारम्भ होकर एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार का रूप ले चुका है.

यह भी पढ़ें : स्पेशल स्टोरी: कोटा में 'मुद्रा भंडार', एडवोकेट शैलेश के पास है 2500 सालों के प्रचलित सिक्के और मोहरें

सियावा गांव की आदिवासी युवतियां और महिलाएं अपने हाथों के हुनर से ऐसे मुखौटों को आकार देती है, जिन्हें एकटक देखने पर सिर्फ यही लगता है कि जैसे कुछ ही देर में ये बोल पड़ेगे. रोजाना 50 से 60 युवतियां कार्य करती है और प्रत्येक युवती एक दिन में करीब 10 खिलौने बना लेती है. एक खिलौने के दाम 100-200 रुपए होते हैं. इस तरह से इस आदिवासी गांवों में आज भी लाखों का कारोबार प्रतिदिन होते हैं. एक खिलौने को बनाने में कम से कम सात दिन लगते हैं. जिसमें मूर्त रुप देने से लेकर उसे पकाने तथा सजाने संवारने तक का सफर जारी रहता है.

एक महीने की देते है विशेष ट्रेनिंग

युवतियों को इस कार्य में योग्य बनाने के लिए कम से कम एक महीने की ट्रेनिंग दी जाती है. फिर वे इन्हें बनाने में महारत हासिल कर लेती हैं. इस कारीगरी को बढ़ावा देने के लिए राजस्थान सरकार, नाबार्ड तथा गृह उद्योग भी सुविधाएं और साधन मुहैय्या करा रहे हैं.

इसके अलावा इस छोटे से गांव में राजस्थानी परम्परा के अनुसार यहां की वेशभूषा और शृंगारित कर बनाए गए खिलौने बैंगलोर, हैदराबाद, दिल्ली, लखनउ, जयपुर, मुम्बई, कोलकाता तथा देश के विभिन्न हिस्सों में भी भेजे जाते हैं. इतना ही विदेशों में भी इस कला के लोग मुरीद है. इस हुनर को अलग पहचान दिलाने वाली टीपू चीन, स्वीजरलैण्ड, अमेरिका, इटली, सिंगापुर सहित कई देशों की यात्रा भी कर चुकी है.

सिरोही. भले ही भाषा और जाति व्यक्ति को विभाजित करती हों, परन्तु कला ऐसी चीज है जिसके जरिए व्यक्ति सीमित सीमाओं को लांघ कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि बना लेता है. ऐसी ही कारीगरी का सुन्दर नजारा देखने को मिला सिरोही जिले के आबू रोड तहसील के सियावा आदिवासी बहुल गांव में. आज वहां के लोग भले ही परम्परागत तौर पर जीते हैं. अभी भी वे सियावा गांव से बाहर नहीं निकले. परन्तु उनके हाथों की कारीगरी ने उन्हें जिला, प्रदेश और देश से बाहर विदेशों में भी कुशल कारीगरों के रूप में पहचान दिलाई है.

मिट्टी के मुखौटों ने बढ़ा दिया मान

करीब 10 साल पूर्व तालाब की मिट्टी से खिलौने बनाने की मुहिम शुरू हुई. कुशल कारीगर श्रीमति टीपू ने इस कला को आगे बढ़ाने के लिए स्वयं सहायता समूह का गठन कर महिलाओं के लिए इसे रोजगार का जरिया बनाने का निर्णय लिया. इसके बाद यह एक छोटे से समूह से प्रारम्भ होकर एक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार का रूप ले चुका है.

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सियावा गांव की आदिवासी युवतियां और महिलाएं अपने हाथों के हुनर से ऐसे मुखौटों को आकार देती है, जिन्हें एकटक देखने पर सिर्फ यही लगता है कि जैसे कुछ ही देर में ये बोल पड़ेगे. रोजाना 50 से 60 युवतियां कार्य करती है और प्रत्येक युवती एक दिन में करीब 10 खिलौने बना लेती है. एक खिलौने के दाम 100-200 रुपए होते हैं. इस तरह से इस आदिवासी गांवों में आज भी लाखों का कारोबार प्रतिदिन होते हैं. एक खिलौने को बनाने में कम से कम सात दिन लगते हैं. जिसमें मूर्त रुप देने से लेकर उसे पकाने तथा सजाने संवारने तक का सफर जारी रहता है.

एक महीने की देते है विशेष ट्रेनिंग

युवतियों को इस कार्य में योग्य बनाने के लिए कम से कम एक महीने की ट्रेनिंग दी जाती है. फिर वे इन्हें बनाने में महारत हासिल कर लेती हैं. इस कारीगरी को बढ़ावा देने के लिए राजस्थान सरकार, नाबार्ड तथा गृह उद्योग भी सुविधाएं और साधन मुहैय्या करा रहे हैं.

इसके अलावा इस छोटे से गांव में राजस्थानी परम्परा के अनुसार यहां की वेशभूषा और शृंगारित कर बनाए गए खिलौने बैंगलोर, हैदराबाद, दिल्ली, लखनउ, जयपुर, मुम्बई, कोलकाता तथा देश के विभिन्न हिस्सों में भी भेजे जाते हैं. इतना ही विदेशों में भी इस कला के लोग मुरीद है. इस हुनर को अलग पहचान दिलाने वाली टीपू चीन, स्वीजरलैण्ड, अमेरिका, इटली, सिंगापुर सहित कई देशों की यात्रा भी कर चुकी है.

Intro:हाथों के हुनर से बनायी अन्तर्राष्ट्ीय पहचान मिटटी के मुखौटों और खिलौनों का देश-विदेश में निर्यात
एंकर. भले ही भाषा और धर्म व्यक्ति को विभाजित करतें है परन्तु कारीगरी ऐसी चीज है जो व्यक्ति को सीमित सीमाओं को लांघ कर अन्तर्राष्टीय छवि बना लेती है। ऐसी ही कारीगरी का सुन्दर नजारा अभी भी देखने को मिलता है सिरोही जिले के आबू रोड तहसील के सियावा आदिवासी बहुल गाॅंव का। आज वहाॅं के लोग भले ही परम्परागत तौर पर जीते हैं भाषाओं के मामले में अभी भी सियावा गाॅंव से बाहर नहीं निकले परन्तु उनके हाथों की कारीगरी ने उन्हें जिला, प्रदेश और देश से बाहर विदेशों में भी कुशल कारीगरों के रुप में पहिचान करा रही है। दस वर्ष पूर्व तालाब की मिटटी से खिलौने बनाने की मुहिम शुरु की वहाॅं कुशल कारीगर श्रीमति टीपू ने और इसे रंग निखारने के लिए उसने स्वयं सहायता समूह बनाकर कुल 12 महिलाओं द्वारा इसे रोजगार का रुप देने का निर्णय लिया। इसके बाद यह एक छोटे से समूह से प्रारम्भ होकर एक कारवां बन गया है।Body:हाथों की कारीगरी में मशगूल लडकिया तथा महिलायें।
वैसे तो व्यक्ति की संरचना करना परमात्मा का कार्य है। परन्तु मनुष्य भौतिक चीजों की रचना में प्राण भले ही न डाल पायें परन्तु ये गाॅंव की आदिवासी युवतियां अपने हाथों की हुनर से ऐसे मुखौटों को आकार देती है जो केवल बोलते नहीं है परन्तु उनको देखने में थोडा सा भी महसूस नहीं होता। प्रतिदिन पचास से साठ युवतियां कार्य करती है और प्रत्येक युवती एक दिन में 10 खिलौने बनाती है। एक खिलौने के दाम 100-200 रूपए होते है। इस तरह से इस आदिवासी गाॅंवों में आज भी लाखों के कारोबार प्रतिदिन होते हैं। एक खिलौने को बनाने में कम से कम सात दिन लगते हैं। जिसमें मूर्त रुप देने से पकाने तथा सजाने संवारने तक का सफर होता है। Conclusion:युवतियों को इस कार्य में योग्य बनाने के लिए कम से कम एक महीने की टेनिंग दी जाती है। फिर वे बनाने में महारत हासिल कर लेती हैं इस कारीगरी को बढावा देने के लिए राजस्थान सरकार, नाबार्ड तथा गृह उद्योग भी सुविधायें और साधन मुहैय्या करा रहे हैं। इस कारीगरी को लेकर टीपू ईटली, चीन तथा और कई देशों मे ंभी व्यापार कर चुकी है।
इसके अलावा इस छोटे से गाॅंव से बनाये गये खिलौन और राजस्थानी परम्परा के वेशभूषा में बनाये गये खिलौने बैगलौर, हैदराबाद, दिल्ली, लखनउ, जयपुर मुम्बई, कोलकाता तथा देश के विभिन्न हिस्सों तक निर्यात किये जाते हैं। नेशनल हैडलूम तथा अन्य सुप्रसिद्ध मेलों में भी इनकी अलग पहचान बनती है।इस हुनर को निखारने वाली टीपू चीन , स्वीजरलैण्ड , अमेरिका , इटली , सिंगापुर सहित कई देशो की यात्रा की कर चुकी है ।
बाईटः श्रीमति टीपू, मुखिया, मुखौटा उद्योग
बाइट मुखौटे बनाने वाली महिलाए
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