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स्पेशल रिपोर्टः भील समाज कुछ इस तरह कर रहा है प्रदेश की परम्परा को संरक्षित

राजस्थान न सिर्फ अपने कल्चर और रजवाड़ो के लिए बल्कि फोक म्यूजिक और फोक डांस के लिए भी जाना जाता है. प्रदेश में गवरी नृत्य की परंपरा हमेशा से ही रही है. लेकिन बीतते समय के साथ इस नृत्य को लोग भूलते जा रहें हैं. इस परंपरा को बरकरार रखने के लिए भील समाज के लोग अपने पूर्वजों की राह पर चल रहे हैं.

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Published : Sep 6, 2019, 6:48 PM IST

पाली. प्रदेश में गवरा नृत्य बहुत प्राचीन समय से ही प्रचलित है. इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अभी पाली, राजसमंद और उदयपुर के कई हिस्सों में भील समाज के लोग गांव-गांव जाकर गवरी नृत्य की प्रस्तुतियां दे रहे हैं. गवरी नृत्य में शिव पार्वती के प्रेम ओर उनकी बीच के मनमुटाव सहित भस्मासुर द्वारा की गई गलतियों के नाटक का मंचन किया जाता है.

भील समाज कर रहा है प्रदेश की परम्परा को संरक्षित

गवरी शब्द मां गौरी से निकला है. गौरी मां यानी मां पार्वती जिसे भील जनजाति देवी गौरजा नाम से पुकारते है. उनके अनुसार श्रवण मास की पूर्णिमा के एक दिन बाद देवी गौरजा धरती पर आती है और धरती पुत्रों को आशीर्वाद देकर जाती है. इसी खशी में ये लोग गवरी खेलते है. भीलों में एक कथा प्रचलित है. जिसके अनुसार भगवान शिव से सृष्टि निर्माण हुआ है. पृथ्वी पर पहला पेड़ बरगद का था जो कि पताल से लाया गया था. इस बरगद के पेड़ को देवी अम्बाव और उसकी सहेलियां लेकर आई थी. इन्होने उदयपुर के हल्दीघाटी के पास स्थित गांव में स्थापित किया. जो आज भी मौजूद है.

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शिव और पार्वती के बीच हुए मनमुटाव में भील समाज का रहा है हाथ
इस समाज में दंत कथा प्रचलित है कि शिव और पार्वती के बीच हुए मनमुटाव में कई जातियों के साथ इनके जाति की भी गलती रही थी. उसी गलती को सुधारने के लिए हर साल गमेती भील समाज के लोग भाद्रपद महिने में अपने घरों से दूर रहते हैं. साथ ही अपने पत्नियों से दूर रहकर संयम का पालन ककरते हुए जगह-जगह गवरी नृत्य प्रस्तुत करते हैं.

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महिलाओं की तरह साज-श्रृंगार करते हैं पुरुष
घर की महिलाओं के कपड़े पहनकर गरवा नृत्य करने की परंपरा है. पुरूष अपनी स्त्रियों के कपड़े पहन गांव-गांव में जाकर नृत्य करते है. इतना ही नहीं चूड़ी, बिंदी, बिछिया और तरह-तरह के आभूषण भी धारण करते है.

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भील समाज के लोगों ने बताया कि अपनी परंपरा को जिंदा रखने के लिए एक माह तक अपने घर स्त्रियों परिवार और रोजगार को छोड़कर भगवान को खुश करने के लिए निकलते हैं. इसी परंपरा को वे अपने नई पीढ़ी को सौंपते जा रहे हैं. समाज द्वारा किए जा रहे कई जगह नाट्य मंचन में समाज के लोग अपने साथ में छोटे लड़कों को भी अपने साथ लेकर आ रहे हैं.

पाली. प्रदेश में गवरा नृत्य बहुत प्राचीन समय से ही प्रचलित है. इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अभी पाली, राजसमंद और उदयपुर के कई हिस्सों में भील समाज के लोग गांव-गांव जाकर गवरी नृत्य की प्रस्तुतियां दे रहे हैं. गवरी नृत्य में शिव पार्वती के प्रेम ओर उनकी बीच के मनमुटाव सहित भस्मासुर द्वारा की गई गलतियों के नाटक का मंचन किया जाता है.

भील समाज कर रहा है प्रदेश की परम्परा को संरक्षित

गवरी शब्द मां गौरी से निकला है. गौरी मां यानी मां पार्वती जिसे भील जनजाति देवी गौरजा नाम से पुकारते है. उनके अनुसार श्रवण मास की पूर्णिमा के एक दिन बाद देवी गौरजा धरती पर आती है और धरती पुत्रों को आशीर्वाद देकर जाती है. इसी खशी में ये लोग गवरी खेलते है. भीलों में एक कथा प्रचलित है. जिसके अनुसार भगवान शिव से सृष्टि निर्माण हुआ है. पृथ्वी पर पहला पेड़ बरगद का था जो कि पताल से लाया गया था. इस बरगद के पेड़ को देवी अम्बाव और उसकी सहेलियां लेकर आई थी. इन्होने उदयपुर के हल्दीघाटी के पास स्थित गांव में स्थापित किया. जो आज भी मौजूद है.

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शिव और पार्वती के बीच हुए मनमुटाव में भील समाज का रहा है हाथ
इस समाज में दंत कथा प्रचलित है कि शिव और पार्वती के बीच हुए मनमुटाव में कई जातियों के साथ इनके जाति की भी गलती रही थी. उसी गलती को सुधारने के लिए हर साल गमेती भील समाज के लोग भाद्रपद महिने में अपने घरों से दूर रहते हैं. साथ ही अपने पत्नियों से दूर रहकर संयम का पालन ककरते हुए जगह-जगह गवरी नृत्य प्रस्तुत करते हैं.

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महिलाओं की तरह साज-श्रृंगार करते हैं पुरुष
घर की महिलाओं के कपड़े पहनकर गरवा नृत्य करने की परंपरा है. पुरूष अपनी स्त्रियों के कपड़े पहन गांव-गांव में जाकर नृत्य करते है. इतना ही नहीं चूड़ी, बिंदी, बिछिया और तरह-तरह के आभूषण भी धारण करते है.

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भील समाज के लोगों ने बताया कि अपनी परंपरा को जिंदा रखने के लिए एक माह तक अपने घर स्त्रियों परिवार और रोजगार को छोड़कर भगवान को खुश करने के लिए निकलते हैं. इसी परंपरा को वे अपने नई पीढ़ी को सौंपते जा रहे हैं. समाज द्वारा किए जा रहे कई जगह नाट्य मंचन में समाज के लोग अपने साथ में छोटे लड़कों को भी अपने साथ लेकर आ रहे हैं.

Intro:पाली.अपनी संस्कृति व विरासत को बचाने के लिए हर समाज व देश की सरकार वह सभी भरसक प्रयास करती है जिनसे भारत की पुरानी संस्कृति और विरासत बनी रहे राजस्थान के प्रमुख नृत्य में परंपरागत गवरी नृत्य भी अपनी एक भूमिका रखता है गवरी नृत्य की परंपरा को बरकरार रखने के लिए भील ओर गमेती समाज आज भी इस परंपरा का निर्वहन बखूबी कर रहा है दंतकथाओ से जुड़े इस नृत्य और अपने समाज की परंपरा के लिए आज भी भील समाज भाद्रपद माह में 1 माह के लिए अपनी स्त्रियों से दूर रहकर संयम का पालन करते हैं Body:अभी पाली, राजसमंद व उदयपुर के कई हिस्सों में भील समाज की ओर से गांव गांव जाकर गवरी नृत्य की प्रस्तुतियां दी जा रही है। इस गवरी नृत्य में शिव पार्वती के प्रेम ओर उनकी बीच के मनमुटाव सहित भस्मासुर द्वारा की गई गलतियों के नाटक का मंचन किया जाता है। वहीं अगर यह भील समाज के लोगों की माने तो समाज के लोग अपने पूर्वजों के समय से इस परंपरा की पालना करते आ रहे हैं। इस समाज में दंत कथाएं प्रचलित है कि शिव और पार्वती के बीच हुए मनमुटाव में कई जातियों के साथ इनके जाति की भी गलती रही थी। उसी गलती को सुधारने के लिए हर वर्ष गमेती व भील समाज के लोग भाद्रपद माह में अपने घर व स्त्रियों से दूर रहकर संयम का परायण करते हुए जगह-जगह गवरी नृत्य प्रस्तुत करते हैं। इस गवरी नृत्य में अलग-अलग तरह से लगभग 15 दंत कथाओं का मंचन किया जाता है।सबसे बड़ी बात यह है कि जहां भी इन समाज की ओर से गवरी का मंचन किया जाएगा। उस दिन के खाने पीने की पूरी व्यवस्था उस गांव की ओर से सामूहिक तौर पर इस भील समाज के लिए की जाती है। भील समाज के लोगों का आज भी यही मानना है कि वह अपनी परंपरा को जिंदा रखने के लिए एक माह तक अपने घर स्त्रियों परिवार व रोजगार को छोड़कर भगवान को खुश करने के लिए निकालते हैं। और इन्हीं परंपरा को वह अपनी पीढ़ी दर पीढ़ी नई पीढ़ी को सौपते जा रहे हैं। समाज द्वारा किए जा रहे कई जगह नाट्य मंचन में समाज के लोग अपने साथ में छोटे लड़कों को भी अपने साथ लेकर आ रहे हैं। और उन्हें भी गवरी के नियमों के तहत अपने परिवार से दूर रख रहे हैं।Conclusion:
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