नागौर. देश के प्रसिद्ध पशु मेलों में से एक श्रीरामदेव पशु मेले के साल दर साल छोटे होते आकर को लेकर आज हर किसी के जेहन में चिंता है. कोई इसके लिए अत्याधुनिक तकनीक को जिम्मेदार ठहरा रहा है, तो कोई सरकारी नीतियों, सत्ता और अफसरशाही की बेरुखी को. लेकिन बहुत कम लोग हैं जो अपनी इस सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को बनाए रखने के लिए ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं. ईटीवी भारत ने फरड़ोद गांव के बुजुर्ग पशुपालक सुखराम से मेले को लेकर खास बातचीत की.
पशुपालक सुखराम का कहना है कि जिस तरह किसान का मेहनताना उसकी खेती से मिलने वाली उपज है. उसी तरह पशुपालकों के लिए ये पशु ही उनकी खेती हैं. इनसे ही वे अपने परिवार के लोगों का पालन पोषण करते हैं. सुखराम पिछले 50 साल से लगातार मेले में अपने पशुओं के साथ आ रहे हैं. उनका कहना है कि पहले पशु मेले में काफी रौनक रहती थी. लेकिन अब मेले का सिमटता स्वरूप देखकर काफी दुख होता है.
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बता दें कि करीब तीन महीने पहले एक हादसे में इनका पैर में फ्रैक्चर हो गया था. डॉक्टर ने आराम करने की सलाह दी है, लेकिन फिर भी इस मेले में पैर में फ्रैक्चर होने के बाद भी अपने पशुओं को लेकर मेले में आ गए.
पैर में चोट के बावजूद मेले में क्यों आए ? इस सवाल का जवाब देते हुए सुखराम ने बताया कि एक तो उनका इन पशुओं से गहरा लगाव है. इसलिए वे लगातार 50 साल से मेले में आ रहे हैं. चोट के बावजूद यह सिलसिला तोड़ना नहीं चाहा. दूसरा बेटे-पोते इतने समझदार नहीं है कि पशुओं की बिक्री कर उनका वाजिब दाम ले सके. इसलिए ऐसी हालत में भी वे मेले में पहुंच गए. अब उन्होंने पशु मेला मैदान में खुले आसमान के नीचे अपनी खाट बिछा ली है. जहां अपने पशुओं पर निगाह रखते हैं और पशु व्यापारियों से बातचीत भी करते है.
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फरड़ोद के सुखराम की तरह ही कई पशुपालक ऐसे हैं जो अपने तमाम दुख दर्द पीछे छोड़कर पशु लेकर मेले में पहुंचते हैं. इस उम्मीद में कि पशुओं की बिक्री से होने वाली आय से अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकेंगे. लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद इस पशु मेले के रूप में अपनी संस्कृति और विरासत को सिमटने से नहीं बचा पाने का मलाल और चिंता उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती है.