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Exclusive: पशु मेले की ऐसी दीवानगी, पैर फ्रैक्चर होने बाद भी पहुंचे सुखराम

नागौर की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के प्रतीक श्री रामदेव पशु मेला साल दर साल सिमट रहा है. लेकिन इस परंपरा और विरासत को बचाए रखने की कोशिश में फरड़ोद गांव के सुखराम टूटा पैर लेकर मेले में पहुंचे.

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Published : Jan 29, 2020, 1:55 AM IST

नागौर. देश के प्रसिद्ध पशु मेलों में से एक श्रीरामदेव पशु मेले के साल दर साल छोटे होते आकर को लेकर आज हर किसी के जेहन में चिंता है. कोई इसके लिए अत्याधुनिक तकनीक को जिम्मेदार ठहरा रहा है, तो कोई सरकारी नीतियों, सत्ता और अफसरशाही की बेरुखी को. लेकिन बहुत कम लोग हैं जो अपनी इस सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को बनाए रखने के लिए ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं. ईटीवी भारत ने फरड़ोद गांव के बुजुर्ग पशुपालक सुखराम से मेले को लेकर खास बातचीत की.

साल दर साल सिमटता जा रहा है श्री रामदेव पशु मेला

पशुपालक सुखराम का कहना है कि जिस तरह किसान का मेहनताना उसकी खेती से मिलने वाली उपज है. उसी तरह पशुपालकों के लिए ये पशु ही उनकी खेती हैं. इनसे ही वे अपने परिवार के लोगों का पालन पोषण करते हैं. सुखराम पिछले 50 साल से लगातार मेले में अपने पशुओं के साथ आ रहे हैं. उनका कहना है कि पहले पशु मेले में काफी रौनक रहती थी. लेकिन अब मेले का सिमटता स्वरूप देखकर काफी दुख होता है.

ये पढ़ेंः नागौरी मेले की बढ़ी रौनक, प्रशासन पूरी तरह मुस्तैद

बता दें कि करीब तीन महीने पहले एक हादसे में इनका पैर में फ्रैक्चर हो गया था. डॉक्टर ने आराम करने की सलाह दी है, लेकिन फिर भी इस मेले में पैर में फ्रैक्चर होने के बाद भी अपने पशुओं को लेकर मेले में आ गए.

पैर में चोट के बावजूद मेले में क्यों आए ? इस सवाल का जवाब देते हुए सुखराम ने बताया कि एक तो उनका इन पशुओं से गहरा लगाव है. इसलिए वे लगातार 50 साल से मेले में आ रहे हैं. चोट के बावजूद यह सिलसिला तोड़ना नहीं चाहा. दूसरा बेटे-पोते इतने समझदार नहीं है कि पशुओं की बिक्री कर उनका वाजिब दाम ले सके. इसलिए ऐसी हालत में भी वे मेले में पहुंच गए. अब उन्होंने पशु मेला मैदान में खुले आसमान के नीचे अपनी खाट बिछा ली है. जहां अपने पशुओं पर निगाह रखते हैं और पशु व्यापारियों से बातचीत भी करते है.

ये पढ़ें- नागौर के विश्वप्रसिद्ध श्री रामदेव पशु मेले का आगाज, बाहरी राज्यों के पशुपालकों का मोहभंग

फरड़ोद के सुखराम की तरह ही कई पशुपालक ऐसे हैं जो अपने तमाम दुख दर्द पीछे छोड़कर पशु लेकर मेले में पहुंचते हैं. इस उम्मीद में कि पशुओं की बिक्री से होने वाली आय से अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकेंगे. लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद इस पशु मेले के रूप में अपनी संस्कृति और विरासत को सिमटने से नहीं बचा पाने का मलाल और चिंता उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती है.

नागौर. देश के प्रसिद्ध पशु मेलों में से एक श्रीरामदेव पशु मेले के साल दर साल छोटे होते आकर को लेकर आज हर किसी के जेहन में चिंता है. कोई इसके लिए अत्याधुनिक तकनीक को जिम्मेदार ठहरा रहा है, तो कोई सरकारी नीतियों, सत्ता और अफसरशाही की बेरुखी को. लेकिन बहुत कम लोग हैं जो अपनी इस सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को बनाए रखने के लिए ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं. ईटीवी भारत ने फरड़ोद गांव के बुजुर्ग पशुपालक सुखराम से मेले को लेकर खास बातचीत की.

साल दर साल सिमटता जा रहा है श्री रामदेव पशु मेला

पशुपालक सुखराम का कहना है कि जिस तरह किसान का मेहनताना उसकी खेती से मिलने वाली उपज है. उसी तरह पशुपालकों के लिए ये पशु ही उनकी खेती हैं. इनसे ही वे अपने परिवार के लोगों का पालन पोषण करते हैं. सुखराम पिछले 50 साल से लगातार मेले में अपने पशुओं के साथ आ रहे हैं. उनका कहना है कि पहले पशु मेले में काफी रौनक रहती थी. लेकिन अब मेले का सिमटता स्वरूप देखकर काफी दुख होता है.

ये पढ़ेंः नागौरी मेले की बढ़ी रौनक, प्रशासन पूरी तरह मुस्तैद

बता दें कि करीब तीन महीने पहले एक हादसे में इनका पैर में फ्रैक्चर हो गया था. डॉक्टर ने आराम करने की सलाह दी है, लेकिन फिर भी इस मेले में पैर में फ्रैक्चर होने के बाद भी अपने पशुओं को लेकर मेले में आ गए.

पैर में चोट के बावजूद मेले में क्यों आए ? इस सवाल का जवाब देते हुए सुखराम ने बताया कि एक तो उनका इन पशुओं से गहरा लगाव है. इसलिए वे लगातार 50 साल से मेले में आ रहे हैं. चोट के बावजूद यह सिलसिला तोड़ना नहीं चाहा. दूसरा बेटे-पोते इतने समझदार नहीं है कि पशुओं की बिक्री कर उनका वाजिब दाम ले सके. इसलिए ऐसी हालत में भी वे मेले में पहुंच गए. अब उन्होंने पशु मेला मैदान में खुले आसमान के नीचे अपनी खाट बिछा ली है. जहां अपने पशुओं पर निगाह रखते हैं और पशु व्यापारियों से बातचीत भी करते है.

ये पढ़ें- नागौर के विश्वप्रसिद्ध श्री रामदेव पशु मेले का आगाज, बाहरी राज्यों के पशुपालकों का मोहभंग

फरड़ोद के सुखराम की तरह ही कई पशुपालक ऐसे हैं जो अपने तमाम दुख दर्द पीछे छोड़कर पशु लेकर मेले में पहुंचते हैं. इस उम्मीद में कि पशुओं की बिक्री से होने वाली आय से अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकेंगे. लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद इस पशु मेले के रूप में अपनी संस्कृति और विरासत को सिमटने से नहीं बचा पाने का मलाल और चिंता उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती है.

Intro:नागौर की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के प्रतीक श्री रामदेव पशु मेले का साल दर साल सिमटना आज हर किसी को चिंतित कर रहा है। इस बीच इस परंपरा और विरासत को बचाए रखने की जीवटता भी कुछ लोगों में देखी जा सकती है। ऐसे ही एक शख्स फरड़ोद गांव के सुखराम हैं। जिनका तीन महीने पहले एक्सीडेंट हुआ तो डॉक्टर ने आराम की सलाह दी। लेकिन वे टूटे पैर का दर्द भूलकर न केवल मेला मैदान पहुंचे। बल्कि यहीं अपना डेरा भी जमा लिया। देखिए खास रिपोर्ट...


Body:नागौर. देश के प्रसिद्ध पशु मेलों में से एक श्रीरामदेव पशु मेले के साल दर साल छोटे होते आकर को लेकर आज हर किसी के जेहन में चिंता है। कोई इसके लिए अत्याधुनिक तकनीक को जिम्मेदार ठहरा रहा है तो कोई सरकारी नीतियों और सत्ता व अफसरशाही की बेरुखी को। लेकिन बहुत कम लोग हैं जो अपनी इस सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को बनाए रखने के लिए ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं। आज हम आपको मिलवाते हैं फरड़ोद गांव के बुजुर्ग सुखराम से।
पशुपालक सुखराम का कहना है कि जिस तरह किसान का मेहनताना उसकी खेती से मिलने वाली उपज है। उसी तरह पशुपालकों के लिए ये पशु ही उनकी खेती हैं। इनसे ही वे अपने परिवार के लोगों का पालन पोषण करते हैं।
उनका कहना है कि वे पिछले 50 साल से लगातार मेले में अपने पशुओं के साथ आ रहे हैं। पहले पशु मेले में काफी रौनक रहती थी। लेकिन अब मेले का सिमटता स्वरूप देखकर काफी दुख होता है।
उन्होंने बताया कि करीब तीन महीने पहले एक हादसे में पैर में फ्रैक्चर हो गया था। डॉक्टर ने आराम करने की सलाह दी है। लेकिन मन नहीं माना। इसलिए पैर में फ्रैक्चर होने के बाद भी अपने पशु लेकर मेले में आ गया।
पैर में चोट के बावजूद मेले में क्यों आना पड़ा? इस सवाल का जवाब देते हुए सुखराम बताते हैं कि एक तो उनका इन पशुओं से गहरा लगाव है। इसलिए वे लगातार 50 साल से मेले में आ रहे हैं और चोट के बावजूद यह सिलसिला तोड़ना नहीं चाहा। दूसरा बेटे-पोते इतने समझदार नहीं है कि पशुओं की बिक्री कर उनका वाजिब दाम ले सके। इसलिए पैर में फ्रैक्चर होने के बावजूद वे मेले में पहुंच गए। अब उन्होंने पशु मेला मैदान में खुले आसमान के नीचे अपनी खाट बिछा ली है। जहां अपने पशुओं पर निगाह रखते हैं और पशु व्यापारियों से बातचीत भी।


Conclusion:फरड़ोद के सुखराम की तरह ही कई पशुपालक ऐसे हैं जो अपने तमाम दुख दर्द पीछे छोड़कर पशु लेकर मेले में पहुंचते हैं। इस उम्मीद में कि पशुओं की बिक्री से होने वाली आय से अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकेंगे। लेकिन अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद इस पशु मेले के रूप में अपनी संस्कृति और विरासत को सिमटने से नहीं बचा पाने का मलाल और चिंता उनके चेहरे पर साफ देखी जा सकती है।
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बाईट- सुखराम, पशुपालक, फरड़ोद।
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