कोटा. कोटा में देशभर से कोचिंग करने आने वाले छात्रों में से 3 ने एक ही दिन सोमवार को इहलीला समाप्त ( Suicide incidents became challenge for Kota) कर ली. इससे पूरा कोचिंग सिटी स्तब्ध है. लेकिन अब तक के आंकड़ों की बात की जाए तो कोटा पढ़ाई करने वाले बच्चों के सुसाइड के मामले में काफी आगे बढ़ चुका है. बीते 11 सालों में यहां पर 160 बच्चे जान दे चुके हैं. जिनके अलग-अलग कारण सामने आए हैं. ज्यादातर में पढ़ाई का स्ट्रेस ही काफी ज्यादा था. यह आत्महत्या कोटा से हो रहे सलेक्शन पर एक धब्बा लगाते हैं. साथ ही कोटा की छवि को भी लगातार खराब कर रहे हैं.
हालांकि लगातार बढ़ रहे इन सुसाइड के आंकड़ों को रोकने के लिए भी सब एकजुट होने की बात कर रहे हैं. एक साथ तीन आत्महत्याओं के मामले सामने आने के बाद प्रशासन भी इन मामलों में जुट गया है. जिला प्रशासन भी इस संबंध में मीटिंग ले रहा है. इन आत्महत्याओं को रोकने के लिए जमीनी स्तर (Fear of suicide in education hub kota) पर कुछ काम हुए हैं, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है. इनमें संस्थानों में बच्चों के लिए काउंसलर से लेकर पंखों में एंटी सुसाइड रॉड लगाने जैसे कुछ कदम उठाएं हैं.
बयान देने दोबारा नहीं आते परिजनः आत्महत्या के मामलों में परिजन बच्चे की बॉडी को ले जाते हैं या फिर यही अंतिम संस्कार कर देते हैं. इसके बाद कोटा में आकर भी नहीं देखते हैं, क्योंकि उनका चिराग यहां पर उजड़ जाता है. ऐसे में पुलिस इन मामलों में मर्ग दर्ज कर लेती है और जांच पड़ताल शुरू कर दी है ज्यादातर मामलों में पढ़ाई का स्ट्रेस या फिर स्टडी में पिछड़ना सामने आया है. कुछ में मोबाइल का एडिक्शन, गेमिंग, नशा सहित कई कारण अभी तक सामने आए हैं. कुछ बच्चों ने आत्महत्या का कदम इसलिए भी उठाया कि उनके परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर थी. उनका काफी पैसा यहां पर पढ़ाई में खर्च हो गया, लेकिन वह रिजल्ट नहीं दे पाए. कुछ बच्चे ऐसे थे जो कि लगातार कई सालों से एंट्रेंस एग्जाम की तैयारियां दे रहे थे, लेकिन उनका सिलेक्शन नहीं हुआ. अधिकांश के परिजन दोबारा कई मामलों में बयान देने भी नहीं आते हैं.
इसे भी पढ़ें - कोटा में NEET की तैयारी कर रहे छात्र ने की खुदकुशी
लगातार बढ़ रहे सुसाइड के आंकड़े: आंकड़ों पर नजर डालें तो 2011 में 6 सुसाइड हुए थे. यह संख्या बीते 11 सालों में अब तक 160 पहुंची है. आंकड़ों पर नजर डालें तो 2011 में 6 सुसाइड हुए थे. इसके बाद 2012 में 11, 2013 में 26, 2014 में 14, 2015 में 23, 2016 में 17, 2017 में 7, 2018 में 20, 2019 में 8, 2020 में 4, 2021 में 4 और 2022 में अब तक 20 सुसाइड शामिल है. यह संख्या बीते 11 साल में अब तक 160 पहुंची है.
इस साल दो लाख से ज्यादा बच्चेः मनोरोग विभाग के डॉ एमएल अग्रवाल का कहना है कि सुसाइड के रीजन काफी मल्टीपल हैं. बच्चों की संख्या इस बार ज्यादा है, दो लाख से ज्यादा बच्चे हैं, तो सुसाइड भी इस बार ज्यादा हो रहे हैं. आत्महत्याओं के कारणों में (Suicide Prevention Need to Live) पढ़ाई का तनाव, परिजनों के विश्वास पर खरा नहीं उतरना, आर्थिक खर्च, मानसिक बीमारी से भी होती है. परिवार की सुसाइड हिस्ट्री भी कारण भी होता है. कोचिंग में बच्चा अगर एक-दो दिन नहीं आता है, तो इस संबंध में पैरंट्स को तुरंत सूचना पहुंच जानी चाहिए. कई कोचिंग संस्थानों में यह सिस्टम है, लेकिन बच्चों को अटेंडेंस के कार्ड दिए हुए हैं. ऐसे में वह अपने परिचित छात्रों को यह अटेंडेंस कार्ड दे देते हैं. इसका एक पूरा मजबूत मैकेनिज्म कोचिंग संस्थानों को बनाना होगा.
हत्या, हादसे और बीमारी से भी हो चुकी है एक दर्जन मौतः कोटा की आर्थिक स्थिति की धुरी कोचिंग को ही कहा जाता है, लेकिन कोचिंग छात्रों की हादसे, हत्या और बीमारियों से मौत के मामले भी सामने आते रहे हैं. ऐसे मामले करीब एक दर्जन पहुंच गए हैं. इनमें 26 सितंबर को टोंक जिले में भी 4 कोचिंग छात्रों की दुर्घटना में मौत हुई थी. कोटा से चित्तौड़गढ़ के मेनाल जाते समय 30 जुलाई को बूंदी के डाबी इलाके में सड़क दुर्घटना में एक छात्र की मौत हुई थी. इसके साथ ही बोराबस व जवाहर सागर के जंगल में भी 5 जून को कोचिंग छात्रा की हत्या की हत्या हुई थी. गेपरनाथ के कुंड में नहाते हुए 17 नवम्बर को दो कोचिंग छात्रों की मौत हुई है. चार छात्रों की कार्डियक अरेस्ट व बीमारी से मौत हुई है.
सुसाइड पर बात करनी होगी, डरते हैं संस्थानः डॉ. एमएल अग्रवाल का कहना है कि सुसाइड प्रीवेंशन के लिए सुसाइड के बारे में ज्यादा से ज्यादा चर्चा करनी होगी. यहां की कोचिंग संस्थान और हॉस्टल संचालक भी सुसाइड की बात करने से डरते हैं. इस तरह से सुसाइड प्रीवेंशन के पोस्टर लगाने तो देते ही नहीं है, यहां तक कि संस्थानों में जागरूकता के कार्यक्रम भी आयोजित कम ही होते हैं. जितने ज्यादा जागरूकता होगी, उनसे आत्महत्याओं के रोकथाम की बढ़ोतरी होगी. यहां तक लेक्चर में सुसाइड शब्द नहीं आना चाहिए, यह बहुत गलत धारणा है.
फर्स्ट टच वाले को ट्रेंड करना जरूरीः मनोरोग विशेषज्ञ डॉ. एमएल अग्रवाल का मानना है कि बच्चों में हो रहे सुसाइड के मामलों को रोकने के लिए सुसाइड प्रीवेंशन की ट्रेनिंग कई लोगों के लिए जरूरी है. उन्होंने कहा कि मैं पहले भी कई मीटिंग्स में इस संबंध में बता चुका हूं कि बच्चों के फर्स्ट टच वाला व्यक्ति को समझना जरूरी है. इसमें फैकल्टी, हॉस्टल वार्डन, मालिक, सिक्योरिटी गार्ड, कुक से लेकर सफाई वाले तक को भी जानना जरूरी है. इसके अलावा कोचिंग संस्थान और हॉस्टल्स में काम कर रहे स्टॉफ को भी इनकी जानकारी होनी चाहिए.
सुदृढ़ होनी चाहिए मेंटर की व्यवस्थाः कोचिंग संस्थानों में हर बच्चे पर मेंटर होना आवश्यक किया हुआ है, लेकिन इस मेंटर की व्यवस्था भी सुदृढ़ होनी चाहिए. क्योंकि लाखों की संख्या में बच्चे कोटा में पढ़ते हैं, लेकिन एक मेंटर के अधीन बड़ी संख्या में बच्चे दे दिए जाते हैं. ऐसे में इन बच्चों से रोज मिलना तो दूर की कौड़ी, 1 सप्ताह में एक बार भी मेंटर नहीं मिल पाता है. यह कारण भी है उन बच्चों की समस्याओं का पता भी संस्थान के उच्चाधिकारियों तक नहीं पहुंचता है.
क्यों नहीं हो रही है सुसाइड प्रीवेंशन की ट्रेनिंग?: सुसाइड प्रीवेंशन की ट्रेनिंग अगर कोटा में आम जनता के साथ बच्चे जिनके भी नजर में पहली बार आते हैं, उन्हें दे दी जाए, तब यह लोग बच्चे में हो रहे बदलाव को समझ लेंगे और 2 मिनट का भी टाइम निकाल कर उससे बात करेंगे. ये उसकी दुविधा को जानने की कोशिश करेंगे, तो सुसाइड प्रिवेंट किया जा सकता है. साथ ही बच्चे को मैनेज कर डॉक्टर या साइकोलॉजिस्ट के पास पहुंचाया जा सकता है. जिससे कि वह आत्महत्या नहीं करे. हालांकि प्रशासन, कोचिंग व हॉस्टल संचालकों की उदासीनता के चलते ही यह नहीं हो रही है.
क्लू पहचान पीछा करें बच्चे का: डॉ. अग्रवाल का कहना है कि हर सुसाइड करने वाला कोई क्लू छोड़ देता है. बच्चों की हम बात करें तो उनमें पढ़ाई में मन नहीं लगना, क्लास से अपसेट रहना, बातचीत नहीं करना, चिड़चिड़ा होना, खाना नहीं खाना, खाने के प्रति रुचि नहीं रहना, बार-बार बीमार या पेट खराब होना, दर्द रहना, बहाने बनाना आदि शामिल हैं. उन्होंने बताया कि अपनी मनपसंद और सबसे प्रिय चीज भी दूसरों को दे देना, रस्सी या कोई रासायनिक केमिकल खरीद कर लेकर आने जैसे लक्षण शामिल हैं. इस तरह के सिम्टम्स आने पर बच्चों पर नजर रखना जरूरी है. इन्हें पहचान जाएंगे, तो आत्महत्या से उसे रोका जा सकता है.
इलाज नहीं करवाना भी समस्या: डॉ अग्रवाल का मानना है कि समय पर ही मानसिक बीमारियों की पहचान कर उसका प्रबंधन और इलाज किया जा सकता है. इससे सुसाइड काफी हद तक रुक जाते हैं. हालांकि डॉ अग्रवाल का यह भी कहना है कि अधिकांश लोग इसे कंसल्ट ही नहीं कराना चाहते, ये एक्सपर्ट के पास इसलिए भी नहीं जाना चाहते कि मानसिक स्वास्थ्य व उपचार को लोग पागलपन कह देते हैं. इससे यह बीमारियां बढ़ जाती है और आगे जाकर विकट समस्या खड़ी हो जाती है.
बात कर टाला जा सकता है, 400 को आत्महत्याओं को रोका है: डॉ. अग्रवाल और उनकी संस्था होप सोसायटी सुसाइड रोकने के काम में जुटी हुई है. इसके लिए 24 घंटे संचालित होने वाला कॉल सेंटर चल रहा है. अब तक करीब 400 से ज्यादा की जान बचाई गई है. इस कॉल सेंटर के अंदर तनाव ग्रसित लोगों कॉल करके अपनी समस्या समाधान ले सकते हैं. बीते 8 साल में 10000 से ज्यादा कॉल आए हैं. जिसमें से 400 कॉल तो ऐसे थे, जिनकी समय पर काउंसलिंग नहीं होती तो ये जान दे देते. सुसाइड करने वाले व्यक्ति की त्वरित पूरी बात सुन ली जाए. उसकी समस्या को नोट किया जाए और कुछ देर उसे समझाइश की जाए या फिर संवाद किया जाए, तो वह आत्महत्या को टाल सकता है.
कोटा में कोचिंग छात्रों के आत्महत्या के ये कारण आए हैं सामने
- रुचि से अलग पढ़ाई: बच्चे की रुचि से अलग सब्जेक्ट दिलाया जाता है. बहुत सारे मामलों में देखा गया है माता-पिता बच्चे पर बिना रूचि और अभिरुचि के देखे हुए सब्जेक्ट दिला देते हैं. यहां से स्ट्रेस शुरू होता है, बाद में सुसाइड या अटेंप्ट तक पहुंचता है.
- होम सिकनेस: बच्चे यहां पर आते हैं, तो अकेले रहते हैं. पहले कभी अकेले नहीं रहे. यहां पर होमसिकनेस की समस्या होने हो जाती है. बहुत सारे बच्चों को सिपरेशन एंजायटी होती है. यहां भी स्ट्रेस होता है.
- मां-बाप को सिपरेशन एंजायटी: कुछ बच्चे सेटल हो जाते हैं, लेकिन उनके मां-बाप में सिपरेशन एंजायटी हो जाती हैं. वह बार-बार फोन करते हैं, मिलने के लिए आ जाते हैं. इससे बच्चे डिस्टर्ब हो जाते हैं.
- हाई एक्सपेक्टेशन: बहुत सारे पेरेंट्स की हाई एक्सपेक्टेशन बच्चों से होती है. लिमिटेड सीट्स है, कॉम्पिटिशन ज्यादा है. बेस्ट करने वाले को सीट मिलती है. लेकिन हर मां बाप चाहते हैं कि मेरे बच्चे का सिलेक्शन हो.
- टॉपर्स के बीच कॉम्पिटिशन: अपने शहर या स्कूल में बच्चे टॉप करते हैं, लेकिन कोटा में देशभर के बच्चों के बीच कॉम्पिटिशन होता है. यहां पर उनकी रैंक 700 से 800 पहुंच जाती है और उनकी पिछड़ने पर बच्चे के माता-पिता सेटिस्फाई नहीं होते. इससे बच्चे डिप्रेशन में चले जाते हैं.
- बैच में बदलाव: कोचिंग संस्थान में छात्र के रैंक नीचे आने पर उसके बैच में बदलाव कर दिया जाता है. इस पर स्टूडेंट्स स्ट्रेस में चला जाता है. अपने आप को हीन और कमजोर समझता है. कई बार हिंदी मीडियम के बच्चे भी इंग्लिश में पढ़ाई होने से स्ट्रेस में चले जाते हैं.
- नशे की प्रवृत्ति: कोचिंग स्टूडेंट्स अधिकांश किशोर होते हैं और इनमें नशे की प्रवृत्ति भी आम लोगों की तरह पनप जाती है. कई स्टूडेंट अलग-अलग तरह के नशे करने लग जाते हैं. जिससे कि वह पढ़ाई में भी पिछड़ जाते हैं.
- अपोजिट जेंडर के प्रति आकर्षण: कोटा में पढ़ने के दौरान स्टूडेंट्स अकेले रहते हैं. ऐसे में छात्र छात्राएं आपस में अपोजिट जेंडर के प्रति आकर्षित होते हैं.
- बायोलॉजिकल और साइकोलॉजिकल चेंज: किशोर उम्र के इस पड़ाव में बायोलॉजिकल और साइकोलॉजिकल बदलाव आते हैं. इसके चलते भी कई समस्याएं पैदा हो जाती है, जिससे बच्चे पढ़ाई से डिस्ट्रैक्ट हो जाते हैं.
- अश्लील साहित्य: कई स्टूडेंट्स अश्लील साहित्य भी इस उम्र में देखने लग जाते हैं. साथ ही आपस में भी इस तरह के फोटो व वीडियो शेयर करने लग जाते हैं. जिससे कि कई बार इनके वायरल हो जाने पर भी तनाव में चले जाते हैं.
- स्टडी का टाइट शेड्यूल: बच्चों का स्टडी शेड्यूल काफी टाइट होता है और उन्हें घंटों पढ़ाई घर पर भी करनी पड़ती है. इससे भी बच्चे कुछ समय खराब होने पर ही पिछड़ जाते हैं. जिससे कि वह अपने आप को डरा हुआ महसूस करते हैं और तनाव ग्रसित हो जाते हैं.
- स्टडी की स्पीड: कोचिंग में पढ़ाई काफी तेज गति से होती है और कुछ बच्चे इसमें अपने आप ही पिछड़ जाते हैं. इससे तनाव में आ जाते हैं.
- मानसिक बीमारियां: ज्यादातर मानसिक बीमारियों की शुरुआत 15 से लेकर 30 साल तक के बीच होती है. इन बीमारियों का करीब 75 फ़ीसदी एपिसोड इसी उम्र में आता है. इनके चलते भी अधिकांश सुसाइड होते हैं.
- स्मार्टफोन: डब्ल्यूएचओ ने स्मार्टफोन को एक एडिक्शन मान लिया है. इससे सम्पर्क आसान हो गया है. सोशल मीडिया पर मिलकर और गलत बातें करने में टाइम खराब कर देते हैं. इससे पढ़ाई में पिछड़ जाते हैं और डिप्रेशन में चले जाते हैं. सुसाइड की तरफ आगे बढ़ जाते हैं. यह भी एक बहुत बड़ा कारण है. दूसरे कई डिस्ट्रेक्शन शुरू होते हैं. जिनमें गेमिंग, पोर्न, सोशियल मीडिया, फ्रेंडशिप और अपोजिट जेंडर के प्रति आकर्षण आ जाता है.