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बिसाऊ की मूक रामलीला में बिन बोले ही मुखौटे से होता है संवाद

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Published : Oct 7, 2022, 10:28 PM IST

बिसाऊ की मूक रामलीला देशभर में ही (Silent Ramlila of Bissau) नहीं, बल्कि पूरे संसार में होने वाली सभी रामलीलाओं से अलग है. इसके मंचन के दौरान सभी पात्र बिना बोले ही पूरी बात कह जाते हैं और पात्रों का मुखौटा उनकी भाव भंगिमाओं को बयां करने का एक मजबूत जरिया होता है.

Silent Ramlila of Bissau,  Dialogue with masks in Bissau Ramlila
मूक रामलीला में बिन बोले ही मुखौटे से होता है संवाद.

झुंझुनू. राजस्थान के झुंझुनू जिले के बिसाऊ कस्बे की मूक रामलीला दुनिया में अपनी अलग पहचान (Silent Ramlila of Bissau) रखती है. इस रामलीला की खासियत यह है कि जहां सभी जगह रामलीला नवरात्र स्थापना के साथ शुरू होकर दशहरे या फिर उसके अगले दिन भगवान राम के राज्याभिषेक के साथ पूरी होती है. वहीं, बिसाऊ की रामलीला का मंचन पूरे एक पखवाड़े होता है. रामलीला में सातवें दिन लंका के पुतले का दहन (Lanka combustion in Bissau) होता है. इसके बाद कुंभकरण, मेघनाद और फिर दशहरे की बजाय चतुर्दशी को रावण के पुतले का दहन किया जाता है. वहीं, इस रामलीला के मंचन के दौरान सभी पात्र बिना बोले ही भाव भंगिमाओं के जरिए संवाद स्थापित करने की कोशिश करते हैं. साथ ही अपने मुखौटे से अपनी पहचान को दर्शाते (Dialogue with masks in Bissau Ramlila) हैं. यही कारण है कि इसको मूक रामलीला के नाम से जाना जाता है.

इस तरह की रामलीला का मंचन पूरे संसार में केवल बिसाऊ में ही होता है. यही कारण है कि यह अपने आप में सबसे अनोखी रामलीला है. असल में मूक रामलीला की शुरुआत रामाणा जोहड़ से हुई. तब इसका मंचन गुगोजी के टीले में हुआ करता था. इसके बाद यह स्टेशन रोड शिफ्ट हुआ और (History of Ramlila of Bissau) फिर 1949 से गढ़ के पास बाजार के मुख्य सड़क पर इसका आयोजन शुरू किया गया, जो वर्तमान में जारी है. यदि मूक रामलीला के इतिहास के बारे में बात करें तो अलग-अलग तथ्य मिलते हैं. कुछ लोगों का कहना है कि इसकी शुरुआत करीब 200 साल पहले हुई थी तो वहीं, कुछ 170 साल पहले की प्रथा करार देते हैं.

मूक रामलीला में बिन बोले ही मुखौटे से होता है संवाद.

इसे भी पढे़ं - स्पेशल स्टोरी: 175 साल से दिन के उजाले में सड़क पर हो रही बिना संवाद की रामलीला...आज भी रोमांच बरकरार

वहीं, इतिहासकार त्रिलोकचंद्र शर्मा बताते हैं कि इस रामलीला की शुरुआत करीब 170 साल पहले जमना नाम की एक साध्वी के रामाण जौहड़ से हुई थी. साध्वी जमना ने गांव के कुछ बच्चों को एकत्रित कर रामाणा जोहड़ में रामलीला का मंचन शुरू किया था. साथ ही पात्र के मुताबिक मुखोटे बनाए गए, लेकिन मुखोटे पहनने के बाद बच्चों को संवाद स्थापित करने में दिक्कत होने लगी तो उसने मूक मंचन करने को कहा. इस प्रकार बिसाऊ में मूक रामलीला की शुरुआत हुई, जो आज भी बदस्तूर जारी है. उन्होंने आगे बताया कि रामलीला का मंचन ढोल-नगाड़ों के साथ होती है, जिसे स्थानीय मुस्लिम समुदाय के ईल्लाही समुदाय के लोग बजाते हैं.

झुंझुनू. राजस्थान के झुंझुनू जिले के बिसाऊ कस्बे की मूक रामलीला दुनिया में अपनी अलग पहचान (Silent Ramlila of Bissau) रखती है. इस रामलीला की खासियत यह है कि जहां सभी जगह रामलीला नवरात्र स्थापना के साथ शुरू होकर दशहरे या फिर उसके अगले दिन भगवान राम के राज्याभिषेक के साथ पूरी होती है. वहीं, बिसाऊ की रामलीला का मंचन पूरे एक पखवाड़े होता है. रामलीला में सातवें दिन लंका के पुतले का दहन (Lanka combustion in Bissau) होता है. इसके बाद कुंभकरण, मेघनाद और फिर दशहरे की बजाय चतुर्दशी को रावण के पुतले का दहन किया जाता है. वहीं, इस रामलीला के मंचन के दौरान सभी पात्र बिना बोले ही भाव भंगिमाओं के जरिए संवाद स्थापित करने की कोशिश करते हैं. साथ ही अपने मुखौटे से अपनी पहचान को दर्शाते (Dialogue with masks in Bissau Ramlila) हैं. यही कारण है कि इसको मूक रामलीला के नाम से जाना जाता है.

इस तरह की रामलीला का मंचन पूरे संसार में केवल बिसाऊ में ही होता है. यही कारण है कि यह अपने आप में सबसे अनोखी रामलीला है. असल में मूक रामलीला की शुरुआत रामाणा जोहड़ से हुई. तब इसका मंचन गुगोजी के टीले में हुआ करता था. इसके बाद यह स्टेशन रोड शिफ्ट हुआ और (History of Ramlila of Bissau) फिर 1949 से गढ़ के पास बाजार के मुख्य सड़क पर इसका आयोजन शुरू किया गया, जो वर्तमान में जारी है. यदि मूक रामलीला के इतिहास के बारे में बात करें तो अलग-अलग तथ्य मिलते हैं. कुछ लोगों का कहना है कि इसकी शुरुआत करीब 200 साल पहले हुई थी तो वहीं, कुछ 170 साल पहले की प्रथा करार देते हैं.

मूक रामलीला में बिन बोले ही मुखौटे से होता है संवाद.

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वहीं, इतिहासकार त्रिलोकचंद्र शर्मा बताते हैं कि इस रामलीला की शुरुआत करीब 170 साल पहले जमना नाम की एक साध्वी के रामाण जौहड़ से हुई थी. साध्वी जमना ने गांव के कुछ बच्चों को एकत्रित कर रामाणा जोहड़ में रामलीला का मंचन शुरू किया था. साथ ही पात्र के मुताबिक मुखोटे बनाए गए, लेकिन मुखोटे पहनने के बाद बच्चों को संवाद स्थापित करने में दिक्कत होने लगी तो उसने मूक मंचन करने को कहा. इस प्रकार बिसाऊ में मूक रामलीला की शुरुआत हुई, जो आज भी बदस्तूर जारी है. उन्होंने आगे बताया कि रामलीला का मंचन ढोल-नगाड़ों के साथ होती है, जिसे स्थानीय मुस्लिम समुदाय के ईल्लाही समुदाय के लोग बजाते हैं.

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