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किसी संत से कम नहीं है ये करोड़पति फकीर, बालिका शिक्षा और जरूरतमंदों की मदद के लिए दान की जीवन भर की कमाई - झुंझुनू के घासीराम वर्मा

कोरोना काल में लोगों को जान के लिए भी लाले पड़ रहे हैं. पैसे देकर भी लोग सांसें नहीं खरीद पा रहे हैं. ऐसे में झुंझुनू जिले की मिट्टी से एक ऐसा कोहिनूर निकलकर अमेरिका तक चमका, जिसने गरीबी को करीब से देखा और करोड़ों रुपये कमाकर जरूरतमंदों की मदद में जीवनभर की पूंजी लगा दी. लोग उनको करोड़पति फकीर के नाम से जानते हैं. उस सख्स का नाम डॉ. घासीराम वर्मा है. पढ़ें पूरी खबर...

donation for girl child education, Ghansiram Verma of Jhunjhunu
किसी संत से कम नहीं है ये करोड़पति फकीर
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Published : May 10, 2021, 11:07 AM IST

झुंझुनू. कोरोना काल में लोगों को जान के लिए भी लाले पड़ रहे हैं. पैसे देकर भी लोग सांसें नहीं खरीद पा रहे हैं. ऐसे में झुंझुनू जिले की मिट्टी से एक ऐसा कोहिनूर निकलकर अमेरिका तक चमका, जिसने गरीबी को करीब से देखा और करोड़ों रुपये कमाकर जरूरतमंदों की मदद में जीवनभर की पूंजी लगा दी. लोग उनको करोड़पति फकीर के नाम से जानते हैं. उस सख्स का नाम डॉ. घासीराम वर्मा है.

donation for girl child education, Ghansiram Verma of Jhunjhunu
बालिका शिक्षा और जरूरतमंदों की मदद के लिए दान की जीवन भर की कमाई

झुंझुनूं जिले के सीगड़ी गांव का डॉ. घासीराम वर्मा गरीबी में पढ़े. उन्होंने मित्रों के सहयोग से, मां द्वारा तैयार घी व बाप के पाले हुए पशु बेचकर फीस जमा कराते हुए अमेरिका में प्रोफेसर के पद तक का सफर किया. इसके बाद अपनी सारी तनख्वाह गरीब और जरूतमंदों के लिए भारत में लगा दी. इस प्रकार डॉ. वर्मा करोड़पति हुए, लेकिन फिर भी रहे फकीर के फकीर. तभी लोग उनको करोड़पति फकीर के नाम से पुकारते हैं.

राज्यसभा में जाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया

डॉ. वर्मा प्रशंसा और प्रचार से कतई मोह नहीं किया. लोग राजनीती में मुकाम बनाने के लिए कत्लेआम करने में भी पीछे नहीं रहते. वहीं इनको राज्यसभा में जाने का प्रस्ताव तक मिला, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया. पद्मश्री के लिए आवेदन मांगा गया, लेकिन आवेदन तक नहीं किया. आज डॉ. वर्मा नब्बे साल से ऊपर हैं, लेकिन अब भी अमेरिका में अतिथि प्रोफेसर की हैसियत से काम करते हैं, कमाते हैं और भारत आकर सारा खर्च कर जाते हैं. इस हद तक कि वापसी की टिकट के लिए पैसा तक नहीं बचता. मित्रों से किराया उधार मांगकर फिर जाते हैं और पुन: आकर फिर लगा जाते हैं, खासकर बालिका शिक्षा के लिए. डॉ. वर्मा अब तक नौ करोड़ रुपये से अधिक का वेतन समाज को समर्पित कर चुके हैं.

पढ़ें- सीकर में भामाशाहों ने 25 ऑक्सीजन कंसंट्रेटर जिला कलेक्टर को सौंपे, मंत्री डोटासरा ने जताया आभार

डॉ. घासीराम वर्मा का जन्म 1 अगस्त 1927 को मंडावा के छोटे से गांव सीगड़ी में चौधरी रामू राम के पुत्र लादूराम तेतरवाल की धर्मपत्नी जीवनी देवी की कोख से हुआ. इंटरमीडियट की परीक्षा पास करते ही घर वालों ने विवाह कर दिया. इनको 3 पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. जब बालक घासीराम आठवीं कक्षा पिलानी में अध्ययनरत थे, तब गांधी जी के नेतृत्व में देश में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन गूंज रहा था और उसी माहौल का असर पड़ने के चलते विद्यालय छोड़ घर आ गए. दिन भर मन में क्रांति की ज्वाला धधकती रही, परंतु बाद में संस्कृत के अध्यापक के समझाने पर पुन: विद्यालय शुरू किया. अपने कॉलेज जीवन में इन्होंने आर्थिक रूप से खूब संकट झेला, लेकिन साथियों के द्वारा इनको मदद मिली. वहीं अनेक प्रकार की इनको छात्रवृत्ति भी मिली.

उच्च पढ़ाई के बावजूद झेली बेरोजगारी की मार

1950 में घासीराम ने बीए कंप्लीट कर लिया और गांव आ गए. यहां पर इन्होंने बेरोजगारी की मार ही झेली. ऐसे कठिन दौर में 1 दिन घासीराम के पास इस्लामपुर झुंझुनू निवासी सहपाठी रहे राधेश्याम शर्मा का पत्र आया कि बीएल स्कूल बगड़ झुंझुनू में गणित विषय के अध्यापक का पद खाली है. इसके बाद घासीराम इस्लामपुर होते हुए राधेश्याम को साथ ले बगड़ गए और वहां उन्होंने 100 रुपये प्रति माह की नौकरी शुरू कर दी.

डॉ. घासीराम वर्मा के मन में हमेशा उच्च अध्ययन की लालसा बनी रही. घरवालों के भारी विरोध के बावजूद मिली नौकरी को छोड़ कर डॉ. वर्मा उच्च अध्ययन के लिए बनारस चले गए. जहां संघर्षमय जीवन बिताते हुए इन्होंने एमए किया और एक बार फिर से उन्हें बीएल स्कूल बगड़ में नौकरी करनी पड़ी. इसके बाद डॉ. वर्मा एक दिन पिलानी गए और वहां प्रोफेसर ढुल सिंह से मिले. जिन्होंने गणित के नए रिसर्च प्रोफेसर आने का समाचार बताया. रिसर्च करने को प्रेरित किया, रिसर्च प्रोफेसर के पास पहुंचे जहां उन्होंने हामी भर ली. मगर डर फिर उसी आर्थिक संकट का.

घासीराम रिसर्च प्रोफेसर डॉ. विभूति भूषण सेन की सलाह से प्रिंसिपल नीलकांत से मिले. घासीराम ने रिसर्च प्रोफेसर की सलाह से इंजीनियरिंग विषय इलास्टिसिटी शोध का विषय चुना. जिस पर घासीराम ने अपना शोध प्रबंध पूर्ण किया और संघर्ष के थपेड़े खाते हुए 1957 में घासीराम आखिरकार डॉ. घासी राम बने. 1958 इंडियन साइंस कांग्रेस की कोलकाता कॉन्फ्रेंस में घासीराम शामिल हुए और उस बैठक के बाद गणितीय विज्ञान संस्थान की ओर से उनका अमेरिकन विद्वान प्रोफेसर फ्रेडरिक से परिचय हुआ.

उन्होंने इनकी योग्यता को समझकर अमेरिका आने का निमंत्रण दे डाला. 1958 घासीराम के पास अमेरिका से एक पत्र आया. यह पत्र कूंराट संस्थान से था. जिसमें घासीराम को न्योता देते हुए 400 डॉलर प्रतिमाह देने का वादा किया गया था, भारतीय रुपयों के हिसाब से 2000 रु का यह तत्कालीन निमंत्रण था.

तेज गर्मी में ग्रामीण छात्राओं की समझी पीड़ा, बनवा डाला छात्रावास

इसके बाद संघर्ष करते हुए डॉ. वर्मा लगातार सफलता की सीढिय़ां चढ़ते गए. डॉ. घासीराम वर्मा 1982 में जब झुंझुनू आए, तब देखा कि तेज गर्मी दुपहरी में पढक़र जाने वाली ग्रामीण लड़कियों की हालत खराब है, तभी से उनके मन में आया कि क्यों न छात्रावास बनाकर इनके लिए आवास की सुविधा की जाए. बस यहीं से उनके दान देने की परंपरा शुरू हुई जो कि अभी तक जीवन पर्यंत जारी है. झुंझुनूं का महर्षि दयानंद बालिका छात्रावास जिसमें 300 से ज्यादा छात्राएं रहकर अध्ययन करती हैं. वहीं उससे सटा महर्षि दयानंद महिला विज्ञान महाविद्यालय डॉक्टर वर्मा की कहानी को स्वयं बताते हैं. इसके अलावा राजस्थान के अनेक छात्रावासों में लाखों रुपए का सहयोग इनके द्वारा दिया गया और यह क्रम लगातार जारी है.

झुंझुनू. कोरोना काल में लोगों को जान के लिए भी लाले पड़ रहे हैं. पैसे देकर भी लोग सांसें नहीं खरीद पा रहे हैं. ऐसे में झुंझुनू जिले की मिट्टी से एक ऐसा कोहिनूर निकलकर अमेरिका तक चमका, जिसने गरीबी को करीब से देखा और करोड़ों रुपये कमाकर जरूरतमंदों की मदद में जीवनभर की पूंजी लगा दी. लोग उनको करोड़पति फकीर के नाम से जानते हैं. उस सख्स का नाम डॉ. घासीराम वर्मा है.

donation for girl child education, Ghansiram Verma of Jhunjhunu
बालिका शिक्षा और जरूरतमंदों की मदद के लिए दान की जीवन भर की कमाई

झुंझुनूं जिले के सीगड़ी गांव का डॉ. घासीराम वर्मा गरीबी में पढ़े. उन्होंने मित्रों के सहयोग से, मां द्वारा तैयार घी व बाप के पाले हुए पशु बेचकर फीस जमा कराते हुए अमेरिका में प्रोफेसर के पद तक का सफर किया. इसके बाद अपनी सारी तनख्वाह गरीब और जरूतमंदों के लिए भारत में लगा दी. इस प्रकार डॉ. वर्मा करोड़पति हुए, लेकिन फिर भी रहे फकीर के फकीर. तभी लोग उनको करोड़पति फकीर के नाम से पुकारते हैं.

राज्यसभा में जाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया

डॉ. वर्मा प्रशंसा और प्रचार से कतई मोह नहीं किया. लोग राजनीती में मुकाम बनाने के लिए कत्लेआम करने में भी पीछे नहीं रहते. वहीं इनको राज्यसभा में जाने का प्रस्ताव तक मिला, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया. पद्मश्री के लिए आवेदन मांगा गया, लेकिन आवेदन तक नहीं किया. आज डॉ. वर्मा नब्बे साल से ऊपर हैं, लेकिन अब भी अमेरिका में अतिथि प्रोफेसर की हैसियत से काम करते हैं, कमाते हैं और भारत आकर सारा खर्च कर जाते हैं. इस हद तक कि वापसी की टिकट के लिए पैसा तक नहीं बचता. मित्रों से किराया उधार मांगकर फिर जाते हैं और पुन: आकर फिर लगा जाते हैं, खासकर बालिका शिक्षा के लिए. डॉ. वर्मा अब तक नौ करोड़ रुपये से अधिक का वेतन समाज को समर्पित कर चुके हैं.

पढ़ें- सीकर में भामाशाहों ने 25 ऑक्सीजन कंसंट्रेटर जिला कलेक्टर को सौंपे, मंत्री डोटासरा ने जताया आभार

डॉ. घासीराम वर्मा का जन्म 1 अगस्त 1927 को मंडावा के छोटे से गांव सीगड़ी में चौधरी रामू राम के पुत्र लादूराम तेतरवाल की धर्मपत्नी जीवनी देवी की कोख से हुआ. इंटरमीडियट की परीक्षा पास करते ही घर वालों ने विवाह कर दिया. इनको 3 पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई. जब बालक घासीराम आठवीं कक्षा पिलानी में अध्ययनरत थे, तब गांधी जी के नेतृत्व में देश में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन गूंज रहा था और उसी माहौल का असर पड़ने के चलते विद्यालय छोड़ घर आ गए. दिन भर मन में क्रांति की ज्वाला धधकती रही, परंतु बाद में संस्कृत के अध्यापक के समझाने पर पुन: विद्यालय शुरू किया. अपने कॉलेज जीवन में इन्होंने आर्थिक रूप से खूब संकट झेला, लेकिन साथियों के द्वारा इनको मदद मिली. वहीं अनेक प्रकार की इनको छात्रवृत्ति भी मिली.

उच्च पढ़ाई के बावजूद झेली बेरोजगारी की मार

1950 में घासीराम ने बीए कंप्लीट कर लिया और गांव आ गए. यहां पर इन्होंने बेरोजगारी की मार ही झेली. ऐसे कठिन दौर में 1 दिन घासीराम के पास इस्लामपुर झुंझुनू निवासी सहपाठी रहे राधेश्याम शर्मा का पत्र आया कि बीएल स्कूल बगड़ झुंझुनू में गणित विषय के अध्यापक का पद खाली है. इसके बाद घासीराम इस्लामपुर होते हुए राधेश्याम को साथ ले बगड़ गए और वहां उन्होंने 100 रुपये प्रति माह की नौकरी शुरू कर दी.

डॉ. घासीराम वर्मा के मन में हमेशा उच्च अध्ययन की लालसा बनी रही. घरवालों के भारी विरोध के बावजूद मिली नौकरी को छोड़ कर डॉ. वर्मा उच्च अध्ययन के लिए बनारस चले गए. जहां संघर्षमय जीवन बिताते हुए इन्होंने एमए किया और एक बार फिर से उन्हें बीएल स्कूल बगड़ में नौकरी करनी पड़ी. इसके बाद डॉ. वर्मा एक दिन पिलानी गए और वहां प्रोफेसर ढुल सिंह से मिले. जिन्होंने गणित के नए रिसर्च प्रोफेसर आने का समाचार बताया. रिसर्च करने को प्रेरित किया, रिसर्च प्रोफेसर के पास पहुंचे जहां उन्होंने हामी भर ली. मगर डर फिर उसी आर्थिक संकट का.

घासीराम रिसर्च प्रोफेसर डॉ. विभूति भूषण सेन की सलाह से प्रिंसिपल नीलकांत से मिले. घासीराम ने रिसर्च प्रोफेसर की सलाह से इंजीनियरिंग विषय इलास्टिसिटी शोध का विषय चुना. जिस पर घासीराम ने अपना शोध प्रबंध पूर्ण किया और संघर्ष के थपेड़े खाते हुए 1957 में घासीराम आखिरकार डॉ. घासी राम बने. 1958 इंडियन साइंस कांग्रेस की कोलकाता कॉन्फ्रेंस में घासीराम शामिल हुए और उस बैठक के बाद गणितीय विज्ञान संस्थान की ओर से उनका अमेरिकन विद्वान प्रोफेसर फ्रेडरिक से परिचय हुआ.

उन्होंने इनकी योग्यता को समझकर अमेरिका आने का निमंत्रण दे डाला. 1958 घासीराम के पास अमेरिका से एक पत्र आया. यह पत्र कूंराट संस्थान से था. जिसमें घासीराम को न्योता देते हुए 400 डॉलर प्रतिमाह देने का वादा किया गया था, भारतीय रुपयों के हिसाब से 2000 रु का यह तत्कालीन निमंत्रण था.

तेज गर्मी में ग्रामीण छात्राओं की समझी पीड़ा, बनवा डाला छात्रावास

इसके बाद संघर्ष करते हुए डॉ. वर्मा लगातार सफलता की सीढिय़ां चढ़ते गए. डॉ. घासीराम वर्मा 1982 में जब झुंझुनू आए, तब देखा कि तेज गर्मी दुपहरी में पढक़र जाने वाली ग्रामीण लड़कियों की हालत खराब है, तभी से उनके मन में आया कि क्यों न छात्रावास बनाकर इनके लिए आवास की सुविधा की जाए. बस यहीं से उनके दान देने की परंपरा शुरू हुई जो कि अभी तक जीवन पर्यंत जारी है. झुंझुनूं का महर्षि दयानंद बालिका छात्रावास जिसमें 300 से ज्यादा छात्राएं रहकर अध्ययन करती हैं. वहीं उससे सटा महर्षि दयानंद महिला विज्ञान महाविद्यालय डॉक्टर वर्मा की कहानी को स्वयं बताते हैं. इसके अलावा राजस्थान के अनेक छात्रावासों में लाखों रुपए का सहयोग इनके द्वारा दिया गया और यह क्रम लगातार जारी है.

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