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गांधी @ 150 : सिमटने के कगार पर गांधी जी की 'खादी'

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Published : Oct 1, 2019, 10:18 PM IST

ईटीवी भारत गांधी जी की 150वीं जयंती पर अपने पाठकों को गांधी जी से जुड़ी यादों को साझा कर रहा है. लेकिन वर्तमान में गांधी की खादी बस नेताओं तक सिमट कर रह गई है. या यूं कह की खादी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है. भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए खादी को लेकर महात्मा गांधी की सोच आज फैशन के इस जमाने में कहीं गुम हो गई है. देखिए जैसलमेर गांधी सेवा सदन से ईटीवी भारत की स्पेशल रिपोर्ट

khadi struggling in india, भारत में खादी का संघर्ष

जैसलमेर. महात्मी गांधी ने कहा था खादी केवल वस्त्र नहीं, बल्कि विचार है. लेकिन अब 'गांधी जी' की 'खादी' सिमटने के कगार पर है. वो खादी को गांधी जी ने हथियार बनाकर विदेशी शासनों के किलों को हिलाकर रख दिया था. अब वो आजाद भारत में अपनी बदहाली के कगार पर पहुंच गई है. कभी स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक रही खादी आज खतरे में है. गांधी के देश में खादी को अपना अस्तित्व बचाने के लिए ही संघर्ष करना पड़ रहा है.

खादी पर जैसलमेर गांधी सेवा सदन से ईटीवी भारत की स्पेशल रिपोर्ट

गांधी के देश में खादी पर मंडराता संकट
गांधी के नाम को भुनाने में कभी पीछे नहीं रहने वाली सरकारें, चाहे वह किसी भी दल की हो. लेकिन पिछले कई वर्षों से खादी उत्पादों और उन्हें बनाने वाले कामगारों की जमकर उपेक्षा करने में जुटे हैं. गांधी के देश में खादी को अपना अस्तित्व बचाने के लिए ही जद्दोजहद करना पड़ रहा है. भारतीय जनमानस पर एक शताब्दी से अधिक समय तक राज करने वाला खादी वस्त्र आज आमजन की पहुंच से दूर होता जा रहा है. आम आवाम के रग-रग में बसे खादी ग्रामोद्योग पर आजादी के सात दशक बाद ही मंडराते इस संकट की कई वजह हैं. सरकारी उपेक्षा ने जहां गांधी के सपने को संघर्ष के मुहाने पर खड़ा कर दिया है, वहीं बदलती प्राथमिकताओं ने इसे बाजार से दूर कर दिया है.

पढ़ें- गांधी @ 150 : रामोजी ग्रुप के चेयरमैन रामोजी राव ने लॉन्च किया बापू का प्रिय भजन

कामगारों की तादाद घटकर 10 फीसदी रही
सीमावर्ती जैसलमेर जिले में खादी से जुड़े कामगारों की तादाद घटकर 10 फीसदी तक ही रह गई है. आधुनिकता और कम्प्यूटरीकरण की मुरीद सरकारों ने अव्यावहारिक ढंग से नीतियां बनाकर रही सही कसर पूरी कर दी. स्वदेशी और खादी के प्रति लोगों की उदासीनता और पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव के कारण गांधी का चरखा लगभग बंद होने के कगार पर है. कभी यहां लाखों का माल तैयार किया जाता था. वर्तमान में गांधी सेवा सदन की उत्पादन क्षमता घटकर मात्र कुछ हजार तक सिमट गई है. आलम यह है कि कभी कारीगरों से गुलजार रहने वाला गांधी सेवा सदन अब वीरान होती जा रही है. कारीगरों को गुमनामी का साया तो मिला ही साथ ही गांधी जी से प्रभावित होकर चलाई गई योजना सिमटने की कगार पर है.

1000 से 1100 तक रह गए कतिनें
जानकारी के अनुसार जैसलमेर जिले में किसी जमाने में 10 हजार कतिनें हुआ करती थीं. जो घर पर बैठकर चरखा चलाकर अपने परिवार की जरूरतें पूरी करते हुए खादी को सम्बल प्रदान किया करतीं. आज उनकी तादाद घटकर 1000-1100 तक ही रह गई है. ऐसे ही बुनकरों की संख्या 500 तक पहुंची हुई थी और आज वे बमुश्किल 50 का आंकड़ा छूते हैं. औद्योगीकरण के अंधड़ में पूर्णतया हस्तनिर्मित खादी उत्पाद तूफान में फडफड़़ाते दीये के जैसे नजर आते हैं. कताई-बुनाई से लेकर रंगाई-छपाई तक का काम हाथ से ही होने के कारण इसकी लागत बढ़ जाती है, इससे बाजार में उसका टिकना संभव नहीं है.

खादी के काम से नहीं जुड़ना चाहती नई पीढ़ी
खादी को सबसे बड़ा आसरा खरीदारों को मिलने वाली सरकारी सब्सिडी का ही रहता आया है. कभी यह 25, 35 और 50 प्रतिशत तक हुआ करती थी और आज सरकारी उपेक्षा के चलते महज 5 प्रतिशत ही रह गई है. खादी संस्थाएं अपनी ओर से 10 प्रतिशत सब्सिडी दे रही हैं. फिर भी यह आम खरीदारों के लिए महंगी ही पड़ती है. खादी के कार्य में मेहनत ज्यादा होने तथा मजदूरी कम मिलने से भी नई पीढ़ी इससे जुड़ा नहीं चाहती. जिन परिवारों में यह कार्य पीढ़ियों से चल रहा था, वे अब रोजगार के दूसरे ठिकानों की तरफ मुड़ रहे हैं. उस पर सरकार ने कतिनों तक को कम्प्यूटरीकरण और बैंकिंग के बेवजह के झमेलों में फंसा दिया है. जैसलमेर जैसे सीमावर्ती तथा विशाल क्षेत्रफल वाले जिले में कम्प्यूटर तथा बैंकिंग व्यवस्था की पहुंच अब तक सीमित है.

पढ़ें- ईटीवी भारत की ओर से देश के सर्वश्रेष्ठ गायकों ने बापू को दी संगीतमय श्रद्धांजलि

जैसलमेर जिले में खादी से जुड़ी 5 संस्थाएं
खादी की बात की जाए तो मरुस्थलीय जैसलमेर जिले में अधिकतर ऊन की कताई-बुनाई का काम होता है. यहां खादी से जुड़ी 5 संस्थाएं सुचारू रूप से काम कर रही हैं. यहां कोट, जैकेट, शॉल, पट्टू, कम्बल सहित अन्य ऊनी उत्पाद तैयार होते हैं. इन ऊनी कपड़ों में सर्दी का मुकाबला करने की क्षमता खूब होती है. यह और बात है कि मानव श्रम से तैयार होने वाली खादी को विशाल पूंजी वाली फैक्ट्रियों से बनने वाले माल से टक्कर लेने के लिए सरकारों ने छोड़तक एक तरह से उसे इतिहास की वस्तु बनाने की भूमिका तैयार कर दी है.

जेहन में खादी से जुड़े पवित्र भाव को रखना होगा
जानकारी के अनुसार जिले में बीते वर्षों के दौरान खादी का सालाना ऊनी का उत्पादन 2 करोड़ था. जो अब लागत बढ़ने के बावजूद 1.25 करोड़ पर अटक गया है. जानकारों का सुझाव है कि खादी को जिंदा रखने के लिए कताई और बुनाई के कार्य को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से जोड़ा जाए तो लोगों को न्यूनतम मजदूरी मिल पाएगी. वहीं उत्पाद सस्ते होने से वे खुले बाजार के प्रतियोगी बाजार में टिक सकेंगे. मौजूदा समय में खादी को कई मोर्चों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. केंद्र और राज्य सरकारों को इसे रोजगारपरक बनाने के लिए जरूरी सहायता प्रदान करनी ही चाहिए. लोगों को भी खादी से जुड़े पवित्र भाव को जेहन में रखना होगा.

पढ़ें- 150वीं गांधी जयंती: राजसमंद के गांधी सेवा सदन ने 'बापू' से जुड़ी हर याद को संजोकर रखा

खादी पर पड़ी जीएसटी की मार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील और कोशिश ने खादी का कायापलट कर दिया है. जब से पीएम मोदी ने युवाओं से खादी पहनने की अपील किए हैं, उसके बाद खादी उत्पादों की बिक्री में जबरदस्त मांग देखने को मिल रहा है. लेकिन पीएम मोदी की खादी को फैशन बनाने की अपील के बाद खादी की बढ़ती लोकप्रियता को वस्तु एवं सेवा (जीएसटी) से झटका लगा है. आजादी के बाद पहली बार खादी पर जीएसटी के रूप में टैक्स लगा है. इससे बुनकर और खादी पहनने वाले परेशान हैं. बुनकरों को ना तो कच्च माल मिल पा रहा है और न ही उनके कपड़े बाहर जा रहे हैं. बुनकरों और दुकानदारों का दावा है कि जीएसटी लगने से 75 प्रतिशत खादी कारोबार प्रभावित हुआ है.

जैसलमेर. महात्मी गांधी ने कहा था खादी केवल वस्त्र नहीं, बल्कि विचार है. लेकिन अब 'गांधी जी' की 'खादी' सिमटने के कगार पर है. वो खादी को गांधी जी ने हथियार बनाकर विदेशी शासनों के किलों को हिलाकर रख दिया था. अब वो आजाद भारत में अपनी बदहाली के कगार पर पहुंच गई है. कभी स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक रही खादी आज खतरे में है. गांधी के देश में खादी को अपना अस्तित्व बचाने के लिए ही संघर्ष करना पड़ रहा है.

खादी पर जैसलमेर गांधी सेवा सदन से ईटीवी भारत की स्पेशल रिपोर्ट

गांधी के देश में खादी पर मंडराता संकट
गांधी के नाम को भुनाने में कभी पीछे नहीं रहने वाली सरकारें, चाहे वह किसी भी दल की हो. लेकिन पिछले कई वर्षों से खादी उत्पादों और उन्हें बनाने वाले कामगारों की जमकर उपेक्षा करने में जुटे हैं. गांधी के देश में खादी को अपना अस्तित्व बचाने के लिए ही जद्दोजहद करना पड़ रहा है. भारतीय जनमानस पर एक शताब्दी से अधिक समय तक राज करने वाला खादी वस्त्र आज आमजन की पहुंच से दूर होता जा रहा है. आम आवाम के रग-रग में बसे खादी ग्रामोद्योग पर आजादी के सात दशक बाद ही मंडराते इस संकट की कई वजह हैं. सरकारी उपेक्षा ने जहां गांधी के सपने को संघर्ष के मुहाने पर खड़ा कर दिया है, वहीं बदलती प्राथमिकताओं ने इसे बाजार से दूर कर दिया है.

पढ़ें- गांधी @ 150 : रामोजी ग्रुप के चेयरमैन रामोजी राव ने लॉन्च किया बापू का प्रिय भजन

कामगारों की तादाद घटकर 10 फीसदी रही
सीमावर्ती जैसलमेर जिले में खादी से जुड़े कामगारों की तादाद घटकर 10 फीसदी तक ही रह गई है. आधुनिकता और कम्प्यूटरीकरण की मुरीद सरकारों ने अव्यावहारिक ढंग से नीतियां बनाकर रही सही कसर पूरी कर दी. स्वदेशी और खादी के प्रति लोगों की उदासीनता और पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव के कारण गांधी का चरखा लगभग बंद होने के कगार पर है. कभी यहां लाखों का माल तैयार किया जाता था. वर्तमान में गांधी सेवा सदन की उत्पादन क्षमता घटकर मात्र कुछ हजार तक सिमट गई है. आलम यह है कि कभी कारीगरों से गुलजार रहने वाला गांधी सेवा सदन अब वीरान होती जा रही है. कारीगरों को गुमनामी का साया तो मिला ही साथ ही गांधी जी से प्रभावित होकर चलाई गई योजना सिमटने की कगार पर है.

1000 से 1100 तक रह गए कतिनें
जानकारी के अनुसार जैसलमेर जिले में किसी जमाने में 10 हजार कतिनें हुआ करती थीं. जो घर पर बैठकर चरखा चलाकर अपने परिवार की जरूरतें पूरी करते हुए खादी को सम्बल प्रदान किया करतीं. आज उनकी तादाद घटकर 1000-1100 तक ही रह गई है. ऐसे ही बुनकरों की संख्या 500 तक पहुंची हुई थी और आज वे बमुश्किल 50 का आंकड़ा छूते हैं. औद्योगीकरण के अंधड़ में पूर्णतया हस्तनिर्मित खादी उत्पाद तूफान में फडफड़़ाते दीये के जैसे नजर आते हैं. कताई-बुनाई से लेकर रंगाई-छपाई तक का काम हाथ से ही होने के कारण इसकी लागत बढ़ जाती है, इससे बाजार में उसका टिकना संभव नहीं है.

खादी के काम से नहीं जुड़ना चाहती नई पीढ़ी
खादी को सबसे बड़ा आसरा खरीदारों को मिलने वाली सरकारी सब्सिडी का ही रहता आया है. कभी यह 25, 35 और 50 प्रतिशत तक हुआ करती थी और आज सरकारी उपेक्षा के चलते महज 5 प्रतिशत ही रह गई है. खादी संस्थाएं अपनी ओर से 10 प्रतिशत सब्सिडी दे रही हैं. फिर भी यह आम खरीदारों के लिए महंगी ही पड़ती है. खादी के कार्य में मेहनत ज्यादा होने तथा मजदूरी कम मिलने से भी नई पीढ़ी इससे जुड़ा नहीं चाहती. जिन परिवारों में यह कार्य पीढ़ियों से चल रहा था, वे अब रोजगार के दूसरे ठिकानों की तरफ मुड़ रहे हैं. उस पर सरकार ने कतिनों तक को कम्प्यूटरीकरण और बैंकिंग के बेवजह के झमेलों में फंसा दिया है. जैसलमेर जैसे सीमावर्ती तथा विशाल क्षेत्रफल वाले जिले में कम्प्यूटर तथा बैंकिंग व्यवस्था की पहुंच अब तक सीमित है.

पढ़ें- ईटीवी भारत की ओर से देश के सर्वश्रेष्ठ गायकों ने बापू को दी संगीतमय श्रद्धांजलि

जैसलमेर जिले में खादी से जुड़ी 5 संस्थाएं
खादी की बात की जाए तो मरुस्थलीय जैसलमेर जिले में अधिकतर ऊन की कताई-बुनाई का काम होता है. यहां खादी से जुड़ी 5 संस्थाएं सुचारू रूप से काम कर रही हैं. यहां कोट, जैकेट, शॉल, पट्टू, कम्बल सहित अन्य ऊनी उत्पाद तैयार होते हैं. इन ऊनी कपड़ों में सर्दी का मुकाबला करने की क्षमता खूब होती है. यह और बात है कि मानव श्रम से तैयार होने वाली खादी को विशाल पूंजी वाली फैक्ट्रियों से बनने वाले माल से टक्कर लेने के लिए सरकारों ने छोड़तक एक तरह से उसे इतिहास की वस्तु बनाने की भूमिका तैयार कर दी है.

जेहन में खादी से जुड़े पवित्र भाव को रखना होगा
जानकारी के अनुसार जिले में बीते वर्षों के दौरान खादी का सालाना ऊनी का उत्पादन 2 करोड़ था. जो अब लागत बढ़ने के बावजूद 1.25 करोड़ पर अटक गया है. जानकारों का सुझाव है कि खादी को जिंदा रखने के लिए कताई और बुनाई के कार्य को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से जोड़ा जाए तो लोगों को न्यूनतम मजदूरी मिल पाएगी. वहीं उत्पाद सस्ते होने से वे खुले बाजार के प्रतियोगी बाजार में टिक सकेंगे. मौजूदा समय में खादी को कई मोर्चों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. केंद्र और राज्य सरकारों को इसे रोजगारपरक बनाने के लिए जरूरी सहायता प्रदान करनी ही चाहिए. लोगों को भी खादी से जुड़े पवित्र भाव को जेहन में रखना होगा.

पढ़ें- 150वीं गांधी जयंती: राजसमंद के गांधी सेवा सदन ने 'बापू' से जुड़ी हर याद को संजोकर रखा

खादी पर पड़ी जीएसटी की मार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील और कोशिश ने खादी का कायापलट कर दिया है. जब से पीएम मोदी ने युवाओं से खादी पहनने की अपील किए हैं, उसके बाद खादी उत्पादों की बिक्री में जबरदस्त मांग देखने को मिल रहा है. लेकिन पीएम मोदी की खादी को फैशन बनाने की अपील के बाद खादी की बढ़ती लोकप्रियता को वस्तु एवं सेवा (जीएसटी) से झटका लगा है. आजादी के बाद पहली बार खादी पर जीएसटी के रूप में टैक्स लगा है. इससे बुनकर और खादी पहनने वाले परेशान हैं. बुनकरों को ना तो कच्च माल मिल पा रहा है और न ही उनके कपड़े बाहर जा रहे हैं. बुनकरों और दुकानदारों का दावा है कि जीएसटी लगने से 75 प्रतिशत खादी कारोबार प्रभावित हुआ है.

Intro:Body:Note:- गांधी जयंती पर विशेष,,,

सिमटने के कगार पर 'गांधी' की 'खादी'

घटा खादी में रोजगार तो सिमटा उत्पादन भी ...

जिसने दिलाई आजादी...अब वो कर रहा है संघर्ष

इतिहास के पन्नो में खादी बेशक खास है....

आजादी के संघर्षों में गाँधी का विश्वास

जिम्मेदारों की नीतियों व व्यावसायिक तकाजों से बनी स्थिति

जैसाण में 10 फीसदी ही लोग ही अब जुड़े रह गए खादी में

महात्मा गांधी ने जिस खादी को हथियार बनाकर विदेशी शासन की चूलें हिला दी थी, आजाद भारत में आज वह सिमटने के कगार पर पहुंच गई है। गांधी के नाम को भुनाने में कभी पीछे नहीं रहने वाली सरकारें, चाहे वह किसी भी दल की हो, पिछले कई वर्षों से खादी उत्पादों व उन्हें बनाने वाले कामगारों की जमकर उपेक्षा करने में जुटे हैं। कभी स्वतंत्रता आंदोलन का प्रतीक रही खादी आज खतरे में है। गांधी के देश में खादी को अपना अस्तित्व बचाने के लिए ही जद्दोजहद करना पड़ रहा है।

भारतीय जनमानस पर एक शताब्दी से अधिक समय तक राज करने वाला खादी वस्त्र आज आमजन की पहुंच से दूर होता जा रहा है। आम आवाम के रग-रग में बसे खादी ग्रामोद्योग पर आजादी के सात दशक बाद ही मंडराते इस संकट की कई वजह हैं। सरकारी उपेक्षा ने जहां गांधी के सपने को संघर्ष के मुहाने पर खड़ा कर दिया है, वहीं बदलती प्राथमिकताओं ने इसे बाजार से दूर कर दिया है। सीमावर्ती जैसलमेर जिले में खादी से जुड़े कामगारों की तादाद घटकर 10 फीसदी तक ही रह गई है। आधुनिकता और कम्प्यूटरीकरण की मुरीद सरकारों ने अव्यावहारिक ढंग से नीतियां बनाकर रही सही कसर पूरी कर दी।स्वदेशी और खादी के प्रति लोगों की उदासीनता और पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव के कारण गांधी का चरखा लगभग बंद होने के कगार पर है। कभी यहां लाखों का माल तैयार किया जाता था। वर्तमान में गांधी सेवा सदन की उत्पादन क्षमता घटकर मात्र कुछ हजार तक सिमट गई है। आलम यह है कि कभी कारीगरों से गुलजार रहने वाला गांधी सेवा सदन अब वीरान होती जा रही है। कारीगरों को गुमनामी का साया तो मिला ही साथ ही गांधी जी से प्रभावित होकर चलाई गई योजना सिमटने की कगार पर है।

जानकारी के अनुसार जैसलमेर जिले में किसी जमाने में 10 हजार कतिनें हुआ करती थीं जो घर पर बैठकर चरखा चलाकर अपने परिवार की जरूरतें पूरी करते हुए खादी को सम्बल प्रदान किया करतीं। आज उनकी तादाद घटकर 1000-1100 तक ही रह गई है। ऐसे ही बुनकरों की संख्या 500 तक पहुंची हुई थी और आज वे बमुश्किल 50 का आंकड़ा छूते हैं। औद्योगीकरण के अंधड़ में पूर्णतया हस्तनिर्मित खादी उत्पाद तूफान में फडफड़़ाते दीये के जैसे नजर आते हैं। कताई-बुनाई से लेकर रंगाई-छपाई तक का काम हाथ से ही होने के कारण इसकी लागत बढ़ जाती है, इससे बाजार में उसका टिकना संभव नहीं है। खादी को सबसे बड़ा आसरा खरीदारों को मिलने वाली सरकारी सब्सिडी का ही रहता आया है। कभी यह 25, 35 और 50 प्रतिशत तक हुआ करती थी और आज सरकारी उपेक्षा के चलते महज 5 प्रतिशत ही रह गई है। खादी संस्थाएं अपनी ओर से 10 प्रतिशत सब्सिडी दे रही हैं फिर भी यह आम खरीदारों के लिए महंगी ही पड़ती है। खादी के कार्य में मेहनत ज्यादा होने तथा मजदूरी कम मिलने से भी नई पीढ़ी इससे जुडऩा नहीं चाहती। जिन परिवारों में यह कार्य पीढिय़ों से चल रहा था, वे अब रोजगार के दूसरे ठिकानों की तरफ मुड़ रहे हैं। उस पर सरकार ने कतिनों तक को कम्प्यूटरीकरण और बैंकिंग के बेवजह के झमेलों में फंसा दिया है। जैसलमेर जैसे सीमावर्ती तथा विशाल क्षेत्रफल वाले जिले में कम्प्यूटर तथा बैंकिंग व्यवस्था की पहुंच अब तक सीमित है।

खादी की बात की जाए तो मरुस्थलीय जैसलमेर जिले में अधिकतर ऊन की कताई-बुनाई का काम होता है। यहां खादी से जुड़ी 5 संस्थाएं सुचारू रूप से काम कर रही हैं। यहां कोट, जैकेट, शॉल, पट्टू, कम्बल सहित अन्य ऊनी उत्पाद तैयार होते हैं। इन ऊनी कपड़ों में सर्दी का मुकाबला करने की क्षमता खूब होती है। यह और बात है कि मानव श्रम से तैयार होने वाली खादी को विशाल पूंजी वाली फैक्ट्रियों से बनने वाले माल से टक्कर लेने के लिए सरकारों ने छोडकऱ एक तरह से उसे इतिहास की वस्तु बनाने की भूमिका तैयार कर दी है। जानकारी के अनुसार जिले में बीते वर्षों के दौरान खादी का सालाना ऊनी का उत्पादन 2 करोड़ था जो अब लागत बढऩे के बावजूद 1.25 करोड़ पर अटक गया है। जानकारों का सुझाव है कि खादी को जिंदा रखने के लिए कताई और बुनाई के कार्य को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से जोड़ा जाए तो लोगों को न्यूनतम मजदूरी मिल पाएगी। वहीं उत्पाद सस्ते होने से वे खुले बाजार के प्रतियोगी बाजार में टिक सकेंगे। मौजूदा समय में खादी को कई मोर्चों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। केंद्र और राज्य सरकारों को इसे रोजगारपरक बनाने के लिए जरूरी सहायता प्रदान करनी ही चाहिए। लोगों को भी खादी से जुड़े पवित्र भाव को जेहन में रखना होगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील और कोशिश ने खादी का कायापलट कर दिया है। जब से पीएम मोदी ने युवाओं से खादी पहनने की अपील किए हैं, उसके बाद खादी उत्पादों की बिक्री में जबरदस्त मांग देखने को मिल रहा है। लेकिन पीएम मोदी की खादी को फैशन बनाने की अपील के बाद खादी की बढ़ती लोकप्रियता को वस्तु एवं सेवा (जीएसटी) से झटका लगा है।आजादी के बाद पहली बार खादी पर जीएसटी के रूप में टैक्स लगा है। इससे बुनकर और खादी पहनने वाले परेशान हैं। बुनकरों को न तो कच्च माल मिल पा रहा है और न ही उनके कपड़े बाहर जा रहे हैं। बुनकरों और दुकानदारों का दावा है कि जीएसटी लगने से 75 प्रतिशत खादी कारोबार प्रभावित हुआ है।

फैक्ट फाइल -
10 प्रतिशत लोग ही जुड़े रह गए खादी से
1.25 करोड़ का सालाना व्यवसाय
05 संस्थाएं जिले में कार्यरत

बाईट-1- मदनलाल भूतड़ा - उपाध्यक्ष - खादी उधोग
बाईट-2- राजूराम प्रजापत, मंत्री, खादी परिषद जैसलमेर
बाईट-3- मदनलाल भूतड़ा - उपाध्यक्ष - खादी उधोग Conclusion:
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