जयपुर. पौराणिक कथाओं के अनुसार शनिदेव की माता संज्ञा भोलेनाथ की बहुत बड़ी भक्त थी. जब शनिदेव अपनी मां के गर्भ में पल रहे थे. उनकी माता दिन रात शिव जी की आराधना में लगी रहती थी, लेकिन वह शनि के पिता सूर्य का ताप सहन नहीं कर पायी. जिससे शनिदेव का रंग रूप काला हो गया. अपने पति के ताप से बचने के लिए संज्ञा अपनी ही छाया स्वर्णा को पति सूर्यदेव और पुत्र शनिदेव के पास रहने का आदेश देकर स्वयं अपने पिता के यहां चली गयी.
संज्ञा के जाने के बाद सूर्यदेव और शनिदेव इस बात को समझ नहीं पाए कि वह केवल संज्ञा की छाया है. स्वर्णा और सूर्यदेव के कुल पांच पुत्र और तीन पुत्रियां हुई. कहा जाता है कि शुरुआत में स्वर्णा शनिदेव का पूरा ख्याल रखती. किन्तु बाद में वह एकदम बदल गयी और शनिदेव की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं देती थी. शनिदेव इस बात से दुखी रहने लगे.
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एक दिन जब स्वर्णा अपने बच्चों को खाना खिला रही थी. तब शनिदेव ने भी उससे खाना मांगा, किन्तु वह उनकी बात अनसुनी कर रही थीं. तभी क्रोध में आकर शनिदेव ने अपना एक पैर उठाकर उन को मारने की कोशिश की. तभी पलट कर उसने शनिदेव को श्राप दे दिया कि शनि तुम्हारा एक पैर फौरन टूट जाएगा.
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अपनी मां के मुख से ऐसा श्राप सुनकर शनिदेव तुरंत अपने पिता सूर्यदेव के पास पहुंचे और उन्हें सारी बात बताई. यह सब सुनकर सूर्यदेव आश्चर्यचकित रह गए और सोचने लगे एक मां होकर अपने पुत्र को ऐसा कठोर श्राप कैसे दे सकती हैं. तब सूर्यदेव स्वर्णा के पास पहुंचे और उससे कड़ाई से सच्चाई पूछने लगे. भयभीत होकर स्वर्णा ने सारी सच्चाई सूर्यदेव को बताई कि वह संज्ञा नहीं बल्कि उसकी छाया है.
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सूर्यदेव ने शनिदेव को समझाया कि भले ही वह उनकी माता नहीं पर माँ की छाया ही है, इसलिए उसका श्राप खाली तो नहीं जाएगा. श्राप का प्रभाव इतना कठोर भी नहीं होगा कि उन्हें अपना एक पैर खोना पड़ जाए. सूर्यदेव ने शनिदेव को बताया कि उनका पैर तो रहेगा, लेकिन उनकी चाल लंगड़ी हो जाएगी. इस तरह से अपनी मां के प्रतिरूप से मिले श्राप के कारण शनिदेव लंगड़े हो गए और उनकी चाल धीमी पड़ गयी.