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राजस्थान में करीब 3 लाख घरेलू कामगार महिलाएं, सामाजिक सुरक्षा की इन्हें दरकार...कानून बना तो बनेगी बात

जयपुर में प्रवासी घरेलू कामगार महिलाओं ने 16 जून का दिन चुना है अपनी बात उन तक पहुंचाने को जो जिम्मेदार पदों पर हैं और जिनकी कलम उनकी किस्मत बदल सकती है. 16 जून को इंटरनेशनल डे ऑफ फैमिली रेमिटेंस (International Day of Family Remittances) मनाया जाता है. ऐसा दिन जो उन कामगारों को समर्पित है जो अपने देश से दूर रह परिवार को जिंदा रखने की जंग गैरों के बीच लड़ते हैं. राजस्थान में ऐसे कामगारों हैं जो विभिन्न प्रदेशों से आकर जीवन की जंग लड़ रहे हैं.

International Day of Family Remittances
राजस्थान में करीब 3 लाख प्रवासी घरेलू कामगार महिलाएं
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Published : Jun 16, 2022, 11:47 AM IST

जयपुर. गांव में घटते रोजगार से शहरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ता जा रहा है. आर्थिक रूप कमजोर स्थिति के बीच महिलाओं को भी काम पर जाना पड़ता है. इनमें से ज्यादातर महिलाएं शिक्षा से वंचित होती हैं. नए शहर के खर्चे और परिवार की जरूरत के कारण ये घरेलू कामगार के तौर पर खुद को झोंक देती हैं. एक सर्वे के मुताबिक प्रदेश में करीब 3 लाख घरेलू कामगार महिलाएं बिना किसी सोशल सिक्योरिटी के अपनी सेवाएं दे रही हैं. नतीजतन इन्हें आर्थिक नुकसान तो होता ही है साथ ही शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती है. इनकी आवाज अंतर्राष्ट्रीय पारिवारिक प्रेषण दिवस (International Day of Family Remittances) पर राजस्थान में बुलंद की जा रही है और जिम्मा उठाया है सामाजिक कार्यकर्ता मेवा भारती ने.

कानून बनने के साथ श्रमिक का दर्जा मिले: कामगार महिलाओं के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता मेवा भारती कहती हैं कि यह दुर्भाग्य है कि राजस्थान में 3 लाख के करीब कामगार महिलाएं है जो घरों में काम करती हैं. अकेले जयपुर की बात करें तो यहां डेढ़ लाख के करीब कामगार महिलाएं है , लेकिन कोई सामाजिक सुरक्षा नही है . इन महिलाओं को न श्रमिक का दर्जा मिला है और न ही इनके लिए कोई कानून बना है. जिसकी वजह से आज भी इन लाखों महिलाओं को आर्थिक नुकसान के साथ शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है जिसकी सुनवाई कहीं नही होती.

आज ही के दिन क्यों ?: मेवा भारती कहती हैं कि इंटरनेशनल डे ऑफ फैमिली रेमिटेंस के दिन हम अपने देश में ही दूसरी जगह जा रहे कामगारों की बात क्यों न करें. क्यों न इसे नए मायने दिए जाएं, क्यों न आज इनके अधिकारों पर खुल कर चर्चा और बहस किया जाए. मध्यवर्गीय परिवारों, नौकरीशुदा स्त्रियों के घरों में घरेलू काम में' सहायक' के तौर पर काम करने वाली महिलाओं, लड़कियों और बच्चियों के अधिकार का सवाल उपेक्षित हैं. वे अपनी जीविका चलाने के लिए दूसरों के घरों में काम करने के लिए मजबूर हैं. उनका सिर्फ आर्थिक शोषण ही नहीं होता . उनके साथ होने वाली हिंसा, यौन शोषण, दुर्व्यवहार, अमानवीयता की खबरें जितनी सामने आती हैं, हकीकत में उससे सैकड़ों गुना ज्यादा हैं.

पढ़ें-International Yoga Day: जापान से शुरू होगा योगा, पूरे विश्व में 25 करोड़ लोग लेंगे भाग -महेंद्र मुंजपरा

अर्थव्यवस्था में हिस्सा नही: मेवा भारती कहती हैं कि आज सैकड़ों महिलाएं अपने अधिकारों के लिए एकत्रित हुई हैं. प्रदेश में घरेलू कामकाजी महिलाओं के श्रम को अनदेखा किया जाता है . हमारी अर्थव्यवस्था के भीतर घरेलू काम और उनमें सहायक के तौर पर लगे लोगों के काम को बेनाम और न दिखाई पड़ने वाला , गैर उत्पादक श्रम माना जाता है . उसकी कोई कीमत नहीं मानी जाती है . सदियों से चली आ रही मान्यता के तहत आज भी घरेलू काम करने वालों को नौकर/नौकरानी का दर्जा दिया जाता है . किसी तरह का हादसा हो जाए तो उसकी कोई सुरक्षा नही है.

घरेलू कामगार विधेयक: मेवा भारती कहती है कि ऐसा नही है कि कामगार महिलाओं को लेकर कोई काम नही हुआ . घरेलू कामगारों की हितों की सुरक्षा के लिए कई साल पहले सरकारी और गैरसरकारी संगठनों ने मिलकर 'घरेलू कामगार विधेयक' का खाका बनाया था. इस विधेयक पर राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपनी स्वीकृति देकर सरकार के पास भेज दिया था. इसके बावजूद, अब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. महिलाओं के लिए संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए हर साल हो-हल्ला मचाने वाली पार्टियों ने इतनी बड़ी आबादी को बुनियादी अधिकार दिलाने वाले इस विधेयक को पारित करने के सवाल पर कभी कोई आवाज नहीं उठाई.

महाराष्ट्र और केरल में कानून: मेवा ने कहा कि जिस विधेयक को तैयार किया गया था उसमें साफ साफ लिखा था कि ऐसा कोई भी बाहरी व्यक्ति जो पैसे के लिए या किसी भी रूप में किए जाने वाले भुगतान के बदले किसी घर में सीधे या एजेंसी के माध्यम से जाता है तो स्थायी/अस्थायी, अंशकालिक या पूर्णकालिक हो तो भी उसे घरेलू कामगार की श्रेणी में रखा जाएगा. इसमें उनके वेतन, साप्ताहिक छुट्टी, सामाजिक सुरक्षा आदि का प्रावधान किया गया है. महाराष्ट्र और केरल जैसे कुछ राज्यों में घरेलू कामगारों के लिए कानून बनने से उनकी स्थिति में एक हद तक सुधार हुआ है, लेकिन राजस्थान में अभी ऐसा कोई कानून नहीं है. मेवा कहती हैं कि अगर कानून बनेगा तो घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी का भी सवाल उठेगा इसलिए सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है. इनकी सुरक्षा और न्यूनतम मजदूरी को सुनिश्चित करने के लिए कानून बनना तो तात्कालिक समाधान है.

क्या है कामगार महिलाओं की मांग:

  • कॉग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र जो अब राज पत्र बन चुका है, इसके अनुसार असंगठित क्षेत्र के सभी श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए राज्य स्तरीय बोड़ का गठन किया जाए.
  • घरेलू कामगारों का श्रम विभाग में रजिस्ट्रेशन कर महाराष्ट्र सरकार की तरह ही सामाजिक सुरक्षा दी जाए.
  • श्रमिक होने का पहचान पत्र मिलना चाहिए (घरेलू काम का गौरव व सम्मान होना चाहिए)
  • घरेलू कामगारों के लिए समग्र कानून बनना चाहिए (इसका बोर्ड बने )
  • घरेलू कामगारों को सामाजिक सुरक्षा मिलनी चाहिए , जिसमे ILO कन्वेंशन C-189 का समर्थन करना चाहिए .
  • 50 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं को पेन्शन मिलनी चाहिए .
  • साप्ताहिक और वार्षिक छुट्टी तय की जाए.
  • घरेलू कामगारों का ESI कार्ड बनना चाहिए छ माह का मातृत्व अवकाश मिलना चाहिए.
  • घरेलू कामगारों को दुर्घटना में मुआवजा मिलना चाहिए.

जयपुर. गांव में घटते रोजगार से शहरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ता जा रहा है. आर्थिक रूप कमजोर स्थिति के बीच महिलाओं को भी काम पर जाना पड़ता है. इनमें से ज्यादातर महिलाएं शिक्षा से वंचित होती हैं. नए शहर के खर्चे और परिवार की जरूरत के कारण ये घरेलू कामगार के तौर पर खुद को झोंक देती हैं. एक सर्वे के मुताबिक प्रदेश में करीब 3 लाख घरेलू कामगार महिलाएं बिना किसी सोशल सिक्योरिटी के अपनी सेवाएं दे रही हैं. नतीजतन इन्हें आर्थिक नुकसान तो होता ही है साथ ही शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती है. इनकी आवाज अंतर्राष्ट्रीय पारिवारिक प्रेषण दिवस (International Day of Family Remittances) पर राजस्थान में बुलंद की जा रही है और जिम्मा उठाया है सामाजिक कार्यकर्ता मेवा भारती ने.

कानून बनने के साथ श्रमिक का दर्जा मिले: कामगार महिलाओं के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता मेवा भारती कहती हैं कि यह दुर्भाग्य है कि राजस्थान में 3 लाख के करीब कामगार महिलाएं है जो घरों में काम करती हैं. अकेले जयपुर की बात करें तो यहां डेढ़ लाख के करीब कामगार महिलाएं है , लेकिन कोई सामाजिक सुरक्षा नही है . इन महिलाओं को न श्रमिक का दर्जा मिला है और न ही इनके लिए कोई कानून बना है. जिसकी वजह से आज भी इन लाखों महिलाओं को आर्थिक नुकसान के साथ शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है जिसकी सुनवाई कहीं नही होती.

आज ही के दिन क्यों ?: मेवा भारती कहती हैं कि इंटरनेशनल डे ऑफ फैमिली रेमिटेंस के दिन हम अपने देश में ही दूसरी जगह जा रहे कामगारों की बात क्यों न करें. क्यों न इसे नए मायने दिए जाएं, क्यों न आज इनके अधिकारों पर खुल कर चर्चा और बहस किया जाए. मध्यवर्गीय परिवारों, नौकरीशुदा स्त्रियों के घरों में घरेलू काम में' सहायक' के तौर पर काम करने वाली महिलाओं, लड़कियों और बच्चियों के अधिकार का सवाल उपेक्षित हैं. वे अपनी जीविका चलाने के लिए दूसरों के घरों में काम करने के लिए मजबूर हैं. उनका सिर्फ आर्थिक शोषण ही नहीं होता . उनके साथ होने वाली हिंसा, यौन शोषण, दुर्व्यवहार, अमानवीयता की खबरें जितनी सामने आती हैं, हकीकत में उससे सैकड़ों गुना ज्यादा हैं.

पढ़ें-International Yoga Day: जापान से शुरू होगा योगा, पूरे विश्व में 25 करोड़ लोग लेंगे भाग -महेंद्र मुंजपरा

अर्थव्यवस्था में हिस्सा नही: मेवा भारती कहती हैं कि आज सैकड़ों महिलाएं अपने अधिकारों के लिए एकत्रित हुई हैं. प्रदेश में घरेलू कामकाजी महिलाओं के श्रम को अनदेखा किया जाता है . हमारी अर्थव्यवस्था के भीतर घरेलू काम और उनमें सहायक के तौर पर लगे लोगों के काम को बेनाम और न दिखाई पड़ने वाला , गैर उत्पादक श्रम माना जाता है . उसकी कोई कीमत नहीं मानी जाती है . सदियों से चली आ रही मान्यता के तहत आज भी घरेलू काम करने वालों को नौकर/नौकरानी का दर्जा दिया जाता है . किसी तरह का हादसा हो जाए तो उसकी कोई सुरक्षा नही है.

घरेलू कामगार विधेयक: मेवा भारती कहती है कि ऐसा नही है कि कामगार महिलाओं को लेकर कोई काम नही हुआ . घरेलू कामगारों की हितों की सुरक्षा के लिए कई साल पहले सरकारी और गैरसरकारी संगठनों ने मिलकर 'घरेलू कामगार विधेयक' का खाका बनाया था. इस विधेयक पर राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपनी स्वीकृति देकर सरकार के पास भेज दिया था. इसके बावजूद, अब तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. महिलाओं के लिए संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए हर साल हो-हल्ला मचाने वाली पार्टियों ने इतनी बड़ी आबादी को बुनियादी अधिकार दिलाने वाले इस विधेयक को पारित करने के सवाल पर कभी कोई आवाज नहीं उठाई.

महाराष्ट्र और केरल में कानून: मेवा ने कहा कि जिस विधेयक को तैयार किया गया था उसमें साफ साफ लिखा था कि ऐसा कोई भी बाहरी व्यक्ति जो पैसे के लिए या किसी भी रूप में किए जाने वाले भुगतान के बदले किसी घर में सीधे या एजेंसी के माध्यम से जाता है तो स्थायी/अस्थायी, अंशकालिक या पूर्णकालिक हो तो भी उसे घरेलू कामगार की श्रेणी में रखा जाएगा. इसमें उनके वेतन, साप्ताहिक छुट्टी, सामाजिक सुरक्षा आदि का प्रावधान किया गया है. महाराष्ट्र और केरल जैसे कुछ राज्यों में घरेलू कामगारों के लिए कानून बनने से उनकी स्थिति में एक हद तक सुधार हुआ है, लेकिन राजस्थान में अभी ऐसा कोई कानून नहीं है. मेवा कहती हैं कि अगर कानून बनेगा तो घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी का भी सवाल उठेगा इसलिए सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है. इनकी सुरक्षा और न्यूनतम मजदूरी को सुनिश्चित करने के लिए कानून बनना तो तात्कालिक समाधान है.

क्या है कामगार महिलाओं की मांग:

  • कॉग्रेस के चुनावी घोषणा पत्र जो अब राज पत्र बन चुका है, इसके अनुसार असंगठित क्षेत्र के सभी श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देने के लिए राज्य स्तरीय बोड़ का गठन किया जाए.
  • घरेलू कामगारों का श्रम विभाग में रजिस्ट्रेशन कर महाराष्ट्र सरकार की तरह ही सामाजिक सुरक्षा दी जाए.
  • श्रमिक होने का पहचान पत्र मिलना चाहिए (घरेलू काम का गौरव व सम्मान होना चाहिए)
  • घरेलू कामगारों के लिए समग्र कानून बनना चाहिए (इसका बोर्ड बने )
  • घरेलू कामगारों को सामाजिक सुरक्षा मिलनी चाहिए , जिसमे ILO कन्वेंशन C-189 का समर्थन करना चाहिए .
  • 50 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं को पेन्शन मिलनी चाहिए .
  • साप्ताहिक और वार्षिक छुट्टी तय की जाए.
  • घरेलू कामगारों का ESI कार्ड बनना चाहिए छ माह का मातृत्व अवकाश मिलना चाहिए.
  • घरेलू कामगारों को दुर्घटना में मुआवजा मिलना चाहिए.
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