जयपुर. अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस आज पूरी दुनिया में स्थानीय भाषा की मजबूती की प्रतीक के रूप में मनाया जा रहा है. इस बीच राजस्थानी भाषा की संवैधानिक मान्यता का इंतजार कर रहे भाषा प्रेमियों का दर्द इस मौके पर एक बार और निकला. राजस्थानी भाषा को लेकर पूरे प्रदेश में भाषा समर्थक लगातार आवाज उठाते रहे हैं. उनका कहना है कि मायड़ भाषा का मान बढ़ाने की दिशा में न तो राजस्थान सरकार ने राजभाषा का दर्जा देकर कार्य किया है और न ही केंद्र सरकार ने इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया है. लिहाजा भाषा प्रेमियों के मन की टीस जस की तस है.
गौरतलब है कि प्रदेश में प्रचलित बोलियों की वजह से मूल राजस्थानी भाषा को लेकर कभी एक राय नहीं बन पाई. राज्य में मारवाड़ी भाषा नागौर, पाली, जोधपुर, जैसलमेर और बीकानेर इलाके में बोली जाती है. तो उदयपुर, राजसमंद, चित्तौड़गढ़ और भीलवाड़ा क्षेत्र में मेवाड़ी का प्रचलन है. इसी तरह बांसवाड़ा और डूंगरपुर का क्षेत्र बागड़ी का है तो जयपुर अंचल के दौसा, टोंक और सीकर में ढूंढाड़ी वहीं कोटा और बूंदी क्षेत्र हाड़ौती का है. जबकि भरतपुर में ब्रज भाषा का जोर है.
केंद्र और राज्य के बीच फुटबाल बना मुद्दा- राजस्थान मोटियार परिषद के प्रदेश अध्यक्ष शिवदान सिंह ने कहा कि राजस्थानी देश और दुनिया की समृद्ध भाषाओं में से एक है, परंतु दुर्भाग्य यह है कि इस भाषा में बी. ए. एमए या फिर पीएचडी प्राप्त करने के बावजूद भी छात्रों को संवैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं होने का नुकसान उठाना पड़ता है. राज्य सरकार एक तरफ केंद्र का हवाला देकर अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेती है, दूसरी ओर केन्द्र भी राज भाषा का दर्जा नहीं होने की बात कहकर राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता नहीं दे रही है.
उन्होंने कहा कि इस बार भी बजट में राजस्थानी को मान्यता मिलने का इंतजार था परंतु सरकार ने भाषा प्रेमियों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया. इसी तरह से राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति के प्रदेश पाटवी राजेंद्र बारहठ और पद्मश्री सीपी देवल का कहना है कि प्रदेश के युवाओं को अगर आगे बढ़ाना है और रोजगार उपलब्ध करवाना है, तो फिर राजस्थानी भाषा को मान्यता दिए जाने की दिशा में सरकारों को जल्द से जल्द काम करना होगा.
आजादी से पहले का है मायड़ की मान्यता का संघर्ष- मौजूदा अशोक गहलोत सरकार के कार्यकाल में राजस्थानी भाषा की मान्यता को लेकर प्रदेश भर में कई स्तर पर आंदोलन का दौर जारी है. राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता का पहला मसला साल 1936 में हुआ था और तब से आज तक इसकी संवैधानिक मान्यता पर फैसला नहीं हो पाया है. इस बारे में प्रस्ताव केंद्र सरकार के पास साल 2003 से अटका हुआ है, जब वसुंधरा राजे सरकार ने दिल्ली तक मांग उठाई थी.
केंद्र सरकार ने उड़ीसा के वरिष्ठ साहित्यकार एस एस महापात्र के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई थी. महापात्र के नेतृत्व में बनी इस कमेटी ने राजस्थानी और भोजपुरी भाषा को संवैधानिक दर्जे का पात्र भी बताया था. जिसके बाद चौदहवीं लोकसभा में मौजूदा सरकार ने राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता देने का भरोसा दिलाया, बल्कि इस बारे में तैयार बिल आज भी लोकसभा में अटका हुआ है और राजनीति का मुद्दा बना हुआ है. अपने पिछले कार्यकाल के दौरान बीकानेर सांसद और केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने राजस्थानी भाषा में शपथ भी लेनी चाही थी लेकिन उन्हें संवैधानिक मान्यता नहीं होने से रोक दिया गया. मेघवाल ने भी कई मर्तबा राजस्थानी भाषा की मान्यता की मांग उठाई है.