जयपुर. राजस्थान जब से राजतंत्र से निकलकर लोकतंत्र की ओर बढ़ा तो प्रदेश की सियासत में कई बड़े चेहरों ने एक मुकाम बनाया, लेकिन किसी दबंग और दिग्गज महिला नेत्री का नाम लिया जाए तो उस लिस्ट में सबसे ऊपर पूर्व सीएम वसुंधरा राजे का नाम आएगा. 5 बार विधायक, 5 बार सांसद और 2 बार मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाली वसुंधरा राजे अपना पहला चुनाव अपने ही गृह राज्य से हार गईं. उसके बाद जब अपने ससुराल से राजनीतिक सफर शुरू किया तो पीछे मुड़कर नहीं देखा और रच दिया राजनीति का नया अध्याय.
राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे भाजपा के बदलते हुए स्वरूप की ऐसी मिसाल हैं, जिन्हें देख कर चाल, चरित्र और चेहरे की परिभाषा बार-बार बदलनी होती है. राजे अपने दल, देश और साथी सहयोगियों के लिए एक अजूबा हैं. दल से वफादारी का दावा करते-करते अचानक वो दल को चुनौती दे बैठती हैं. राजनीति भी करती हैं तो मानो अपनी शर्तों पर. दिल में अपने आलोचकों और प्रतिद्वंद्वियों से निपटने का उनका खास अंदाज़ है.
इसी खास अंदाज के शिकार भाजपा के वरिष्ठ नेताओं के किस्से सुनने को मिल जाते हैं. हालांकि, इसी अंदाज के चलते वसुंधरा के सामने कई बार सियासी संकट भी आते रहे, जिनका उन्होंने मजबूती से न केवल मुकाबला किया, बल्कि अपने वर्चस्व को बनाए रखा. लेकिन इस बार जिस दौर से वो गुजर रही हैं, उसमें स्वयं के साथ बेटे के राजनीतिक भविष्य को नजरअंदाज नहीं कर पा रही हैं.
राजतंत्र से लोकतंत्र का सफर : वसुंधरा राजे सिंधिया का जन्म 8 मार्च 1953 को मुंबई में हुआ. वसुंधरा का संबंध किसी आम परिवार से नहीं है, बल्कि वे ग्वालियर के महाराजा जीवाजी राव सिंधिया और विजयाराजे सिंधिया की बेटी हैं, जो प्रमुख सिंधिया शाही मराठा परिवार से हैं. वसुंधरा राजे ने स्कूली शिक्षा कोडाइकनाल, तमिलनाडु में प्रेजेंटेशन कॉन्वेंट स्कूल से पूरी करने के बाद मुंबई सोफिया कॉलेज फॉर वूमेन से अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान की डिग्री के साथ स्नातक की डिग्री लीं. 17 नवंबर 1972 को वसुंधरा राजे की शादी शाही धौलपुर परिवार के महाराज राणा हेमंत सिंह के साथ हुई. हालांकि, वसुंधरा राजे का वैवाहिक जीवन ज्यादा लंबे समय तक नहीं चल सका और कुछ समय बाद वे अपने पति राणा हेमंत सिंह से अलग होने का निर्णय लिया.
ग्वालियर की बेटी से धौलपुर की बहू तक सफर में आई कठिनाइयों ने मां विजयाराजे सिंधिया को चिंतित किया. ऐसे में विजयाराजे ने उन्हें राजनीति में सक्रिय करने का निर्णय लिया और 1984 भारतीय जनता पार्टी में प्रवेश कराते हुए मध्य प्रदेश की भिंड लोकसभा से चुनावी मैदान में उतार दिया. लेकिन उस वक्त देश में राजीव गांधी की लहर थी, तो वसुंधरा राजे को करारी हार का सामना करना पड़ा.
वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी बताते हैं कि राजनीति में प्रवेश के साथ अपने ही राज्य में मिली करारी हार ने विजयाराजे सिंधिया को और ज्यादा परेशानी में डाल दिया. उसके बाद विजयाराजे सिंधिया ने वसुंधरा राजे को उस वक्त के तत्कालीन राजस्थान के मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत से आग्रह किया कि वो राजस्थान की राजनीति में वसुंधरा राजे का सहयोग करें. उसके बाद साल 1985 में राजस्थान में हुए विधानसभा चुनाव में राजे अपने ससुराल धौलपुर से चुनावी मैदान में उतरीं और जीत दर्ज कीं. उसके बाद राजे ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
5 बार विधायक, 5 बार सांसद और दो बार मुख्यमंत्री : वैसे तो वसुंधरा राजे का राजनीतिक परिवार से ताल्लुक रहा है. बेटे से लेकर भतीजे तक सियासत में एक बड़ा मुकाम रखते हैं. भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया मध्य प्रदेश की सियासत में दिग्गज नेता माने जाते हैं. पहले कांग्रेस और अब भाजपा की केंद्र सरकार में मंत्री हैं, तो वहीं उनके बेटे दुष्यंत सिंह उनके पूर्व निर्वाचन क्षेत्र झालावाड़-बारां से लोकसभा के लिए 4 बार चुने गए. वसुंधरा साल 1985 धौलपुर विधानसभा चुनाव से राजस्थान की राजनीति में सक्रिय हुईं. उसके बाद लोकसभा चुनाव में भी जीत दर्ज कीं. वसुंधरा राजे 5 बार की लोकसभा सांसद रही हैं, 5 बार विधायक और दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रहीं. वर्तमान में वो बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के पद पर हैं.
अपनी शर्तों पर काम करने वाली नेत्री : वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी कहते हैं कि वसुंधरा राजे भारतीय जनता पार्टी में राजस्थान में ही नहीं, बल्कि देश में भी दबंग नेत्रियों में से हैं. दबंग अंदाज में जितनी मजबूती से विपक्ष पर हमला बोलती हैं, उतनी ही ताकत से पार्टी के भीतर भी अपनी बात रखती हैं. वसुंधरा राजे ने अब तक की राजनीति अपनी शर्तों पर की है, किसी तरह का कोई समझौता उन्होंने बर्दाश्त नहीं किया. राजस्थान की राजनीति में कद्दावर नेता रहे घनश्याम तिवाड़ी हों या फिर ललित किशोर चतुर्वेदी, यहां तक कि मौजूदा असम के राज्यपाल और पूर्व गृह मंत्री गुलाबचन्द कटारिया की यात्रा का मामला. राजे ने वही किया जो उन्हें ठीक लगा.
ओम सैनी बताते हैं कि 1985 के बाद से 2018 तक की राजनीतिक सफर में राजे के तेवर कई बार ऐसे रहे हैं कि उन्होंने हाइकमान को भी झुकने पर मजबूर कर दिया था. वसुंधरा राजे की छवि एक आक्रामक नेता के तौर पर रही है. कई बार गाहे बगाहे हाइकमान के साथ खटपट की चर्चाओं को बल मिलता रहा है और हर बार वसुंधरा राजे किसी विजेता की तरह बाहर निकलीं. चाहे बात प्रदेश अध्यक्ष की रही हो या अपने करीबियों को टिकट देने की, हर बार उन्होंने अपनी बात मनवाते हुए विजेता ही साबित हुई हैं. कई बार संघ के साथ भी उनके मनमुटाव की खबरें सामने आईं, लेकिन बावजूद इसके उन्होंने अपनी सत्ता कायम रखा.
हालांकि, इस बार भाजपा की राजनीती में वो कुछ कमजोर दिख रही हैं. ओम सैनी कहते हैं कि 2014 से केंद्र में मोदी सरकार बनी, लेकिन नरेंद्र मोदी भाजपा के बड़े नेता के रूप में सामने आए, तब से राजे की आक्रामक राजनीति में कमी आई है. मौजूदा वक्त में वसुंधरा राजे जिस तरह का सॉफ्ट नेचर सामने रख कर प्रदेश की सियासत में अपनी जगह को बनाए हुए हैं वो उनके चरित्र के विपरीत है. ओम सैनी कहते हैं कि वसुंधरा राजे के सामने इस बार बेहद मुश्किल चुनौती है. अब वो इससे किस तरह से पार कर पाती हैं, इसी पर सबकी निगाहें जमी हुई हैं.
संबंध राजघराने से, लेकिन गरीब तक पहुंच : वसुंधरा राजे जितना आक्रामक दिखती हैं, उतना ही अंदर से मानवता से भरी हुई हैं. राजस्थान में वसुंधरा राजे की पकड़ का बड़ा कारण उनकी हर तबके तक मजबूत पकड़ है. राजे का संबंध भले ही राजघराने से हो, लेकिन वे गरीब तबके तक पहुंच कर उन्हें गले लगाने तक से पीछे नहीं हटतीं.
महिलाओं में राजे का खासा क्रेज आज भी दिखाई देता है, फिर बेधड़क उनके साथ बैठकर उन्हीं का अंदाज अपना लेना हो या फिर उन्हीं की वेशभूषा को धारण करना हो. इसमें राजे का कोई सानी नहीं है. ओम सैनी बताते हैं कि राजे की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि साल 2003 में जब वसुंधरा ने पहली बार राजस्थान की सियासत में बदलाव के लिए परिवर्तन यात्रा निकाली तो प्रदेश में मानो भाजपा की एक हवा बन गई. पहली बार प्रदेश में भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ 120 सीटों के साथ सत्ता पर काबिज हुई. उसके बाद 2013 में सुराज संकल्प यात्रा निकाली तो 163 की अजेय बढ़त के साथ सत्ता हासिल की थीं.