जयपुर. मकर संक्रांति का जिक्र हो और जयपुर शहर में पतंगबाजी की बात न हो ये हो नहीं सकता. 15 दशक यानी करीब 150 साल से भी पहले जयपुर को पतंगबाजी की डोर ने बांध लिया ( Jaipur Kite festival Lucknow Connection). यह सर्वविदित है कि जयपुर में पतंगों को लेकर सबसे पहले राजाराम सिंह आए थे लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि पतंग और इसके कारीगर जयपुर में सबसे पहले लखनऊ से आए थे.
जयपुर से जुड़े लोग बताते हैं कि एक दफा राजाराम सिंह लखनऊ के नवाब के न्योते पर गये थे , जहां उन्होंने पहली बार आसमान में आदमकद कपड़ों की कलाकृतियों को मोटी रस्सी के साथ बांधकर उड़ते हुए देखा. उत्सुकतावश राजाराम सिंह ने नवाब से पतंग जयपुर से ले जाने की गुजारिश की और इसके साथ पतंगबाजी से जुड़े चार परिवार भी नवाब ने जयपुर भेज दिये. जयपुर के सिटी पैलेस यानी चंद्र महल में आज भी इन पतंगों को बड़े-बड़े चरखों के साथ महफूज रखा गया है . इतिहासकार जितेन्द्र सिंह शेखावत बताते हैं कि राजाराम सिंह शिव भक्त होने के कारण शिवरात्रि के दिन ही पतंगबाजी किया करते थे . जो उनके निधन के बाद मकर संक्रांति पर की जाने लगी . आज भी पूर्व राजपरिवार के सदस्य हर संक्रांति पर सिटी पैलेज की छत्त पर जमकर पतंगबाजी का लुत्फ लेते हैं.
पतंगबाजी ने दिया जयपुर को रोजगार- राजाराम सिंह द्वितीय ने लखनऊ से पतंगबाजी के लिए खास तौर पर लाए गए परिवारों को हांडी पुरा नाम की जगह पर बसा दिया. यहीं हांडी पुरा आज जयपुर का सबसे बड़ा पतंग मार्केट है. हजारों की संख्या में पतंग और डोर के कारोबार से लोग जुड़े हुए हैं. 19वीं सदी की शुरुआत में जब कारखाने स्थापित किए गए , तो इनमें पहला कारखाना पतंग बनाने का ही लगा था.
राजा रामसिंह द्वितीय के शासन काल में इन पतंगों को कागज की जगह पतले और बारीक कपड़े से बनाया जाता था. जिन पर चांदी के घुंघरू भी बांधे जाते थे . पतंग टूटकर गिरने पर उसे लूटने के लिए होड़ मच जाती थी. किस्सा है कि जो शख्स पतंग को दरबार तक पहुंचाता था, उसे इनाम दिया जाता था. सिटी पैलेज म्यूजियम में तितली के आकार की इन विशाल पतंगों को सहेज कर रखा गया है. राजाराम सिंह इन्हें तुक्कल कहकर बुलाते थे. राजा से यह शौक प्रजा तक आ गया और वक्त के साथ ही जलमहल की पाल पर बड़े-बड़े पतंगबाजों के दंगल भी आयोजित होने लगे.
वक्त के साथ मोटी रस्सी की जगत मांझे ने ली , जिसे पतले धागे पर महीन पिसे हुए कांच को चावल के आटे के घोल में मिलाकर लेप से तैयार किया जाता था , इस काम में परंपरागत कोली जाति के लोग पारंगत हुआ करते थे. बदलते वक्त के साथ माँझे को भी मशीनों से तैयार किया जा रहा है और आज जयपुर में पतंग के कारोबार से सैकड़ों लोग जुड़े हैं , जो पूरे राजस्थान में डोर-पतंग की मांग पूर्ति करते हैं.
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कौमी एकता की पहचान- जयपुर के हांडीपुरा को शहर और आसपास के क्षेत्र का हर पतंगबाज पहचानता है. यहां पतंग और डोर तैयार होती है. पतंगबाजी और हांडीपुरा ने हमेशा गुलाबी शहर से मजहबी तकरार को हमेशा दूर रखा है. पतंग कारोबार से जुड़े ज्यादातर लोग मुस्लिम समुदाय से आते हैं तो इन पतंग और डोर के खरीददार हिंदू समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. दशकों से मकर सक्रांति और पतंगबाजी इन दोनों समुदायों को जोड़ने का काम कर रही है. जयपुर की चारदीवारी इलाके में दोनों समुदाय के लोग एक छत पर खड़े होकर पतंगों के दंगल लड़ाते हैं. एक बात और है की समाज के बाकी भेदभाव को भी इस पतंगबाजी ने गुलाबी शहर से दूर रखा है. जहां इस त्योहार पर अमीर-गरीब सब भेदभाव बुलाकर आसमान के दंगलों में शिरकत करते हैं.
गोविंद देव मंदिर में पतंगोत्वस- जयपुर के आराध्य राधा गोविंद देव मंदिर में भी मकर सक्रांति के दिन पतंग उत्सव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. लोग समय के साथ मंदिर को भी इस उत्सव से दूर नहीं रख पाए. अब ऐसी प्रथा है कि मकर सक्रांति के दिन पूर्व राज परिवार की ओर से सोने या चांदी से बनी पतंगों को मंदिर में भेंट किया जाता है. दर्शनों में राधा गोविंद चरखी और पतंग के साथ नजर आते हैं. मंदिर के गर्भगृह पर भी पतंगों को सजाया जाता है, तो दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु भी अपने आराध्य को पतंग भेंट करते हैं.
मकर सक्रांति के दिन दान पुण्य का दौर भी चलता है. महाराजा रामसिंह ने मकर सक्रांति को दान पुण्य पर ध्यान देते हुए सदाव्रत फंड बनाया था. जो हमेशा गरीबों के हित में काम करता था . जिस तर्ज पर आज भामाशाह और इंदिरा रसोई काम करती है, उसी तर्ज पर कभी इस फंड से गरीबों को भोजन और अन्य उपलब्ध करवाया जाता था. 18 वीं सदी के दौर में फंड में 25 लाख जमा करवाए गए थे. इसके बाद राजा माधव सिंह के कार्यकाल तक इस व्यवस्था को यथावत रखा गया था. मकर सक्रांति के वक्त में बैलगाड़ी में तिल से बने खाद्य सामग्री को जनता के बीच बांटा जाता था.