जयपुर. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत 3 मई को अपना जन्मदिन मना रहे हैं. 5 दशक से उन्होंने राजस्थान की राजनीति को करीब से देखा है. तीन बार उन्होंने राजस्थान का नेतृत्व किया है. अशोक गहलोत को अपने राजनीतिक काल के दौरान कई उपनाम भी मिले. जोधपुर से आने की वजह से उन्हें मारवाड़ के गांधी के नाम से जाना गया. पार्टी के अंदर और बाहर विरोध के बावजूद सफलतापूर्वक कार्यकाल और राजनीतिक संकट से उबरने की वजह से उन्हें राजनीति का जादूगर भी कहा जाता है. राहुल गांधी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत के दौरान अशोक गहलोत उनके मार्गदर्शक भी रहे हैं. उत्तर प्रदेश में राहुल की लॉन्चिंग के दौरान गहलोत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. गहलोत कांग्रेस में गांधी परिवार के चंद करीबी नेताओं में शुमार हैं.
गहलोत 'राज' और राजनीति का कालखंड : वरिष्ठ पत्रकार ओम सैनी ने बताया कि मोहनलाल सुखाड़िया के बाद अशोक गहलोत के राजनीतिक कार्यकाल को प्रदेश की राजनीति के एक कालखंड के रूप में देखा जा सकता है. उनका मानना है कि गैर कांग्रेसी सरकार को हटाने के बाद चुनाव में एक विशाल जीत दर्ज करके अशोक गहलोत ने राजस्थान की राजनीति में कांग्रेस को स्थापित करने का प्रयास किया था. 1998 के विधानसभा चुनाव में गहलोत के प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए पार्टी ने 156 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इससे पहले बतौर अध्यक्ष गहलोत ने संगठन की मजबूती पर काम किया और जिलेवार पार्टी के कार्यकर्ताओं की फौज तैयार की. जिस दौर में कांग्रेस कमजोर हो रही थी, उस दौर में गहलोत ने अलग-अलग जातियों और वर्ग से नेताओं को चुना और पार्टी के लिए युवा नेताओं की लंबी फेहरिस्त तैयार की.
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जातिगत समीकरणों का रखा ख्याल : ओम सैनी बताते हैं कि राजस्थान में गहलोत के लिए राजनीति कभी भी आसान नहीं रही. उन्हें हमेशा अपने विरोधियों से जूझना पड़ा. यहां तक की गहलोत को खुद को स्थापित करने के लिए वर्चस्व वाले नेताओं को साधना भी पड़ा. इसके लिए उन्होंने जातिगत समीकरणों का विशेष रूप से ख्याल रखा. 2008 में जिस तरह से सरकार बचाने के लिए गहलोत में बहुजन समाज पार्टी के 6 विधायकों को कांग्रेस में शामिल करके पार्टी का ही प्रदेश स्तर पर विलय करवाया, ये भी आज एक उदाहरण के रूप में जाना जाता है.
ओम सैनी बताते हैं कि कोरोना जैसी महामारी के बीच पार्टी के अंदर बगावत के बाद सरकार को गिरने से बचाना भी गहलोत की कामयाब राजनीतिक पारी और मिसाल के रूप में हमेशा देखी जाती रहेगी. शासन में भी अशोक गहलोत का जलवा हमेशा बरकरार रहा. कर्मचारियों के विरोध के बावजूद सरकारी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने की कोशिश, हमेशा उनकी सफलता के रूप में गिनी जाती है. उनके पहले कार्यकाल में अध्यापकों की हड़ताल से लेकर दूसरे और मौजूदा कार्यकाल में भी सरकारी कर्मचारियों के कार्य बहिष्कार के बीच फ्लैगशिप स्कीम में काम को देखा जा रहा है. ऐसे में जब अशोक गहलोत भाजपा को चुनौती देते हुए सरकार को रिपीट करने का दावा करते हैं तो ओपीएस, मुफ्त इलाज और बिजली में मिल रही छूट जैसे अवसर चुनाव के दौरान गहलोत के ट्रंप कार्ड के रूप में ही देखे जाएंगे.
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प्रधानमंत्री मोदी ने भी माना लोहा : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत विपरीत राजनीतिक विचारधारा से आते हैं. इसके बावजूद कई मर्तबा सार्वजनिक मंच पर मोदी गहलोत की तारीफ में कसीदे पढ़ते हुए देखे गए. हाल ही में दिल्ली मुंबई एक्सप्रेस हाईवे के एक फेज के उद्घाटन करते हुए भी मोदी ने गहलोत का जिक्र छेड़ा था. इससे पहले भीलवाड़ा में भी मोदी ने गहलोत को सराहा. अशोक गहलोत की मैनेजमेंट का लोहा पीएमओ ने कोविड-19 महामारी के दौरान माना और भीलवाड़ा मॉडल को पूरे देश में लागू करने की बात कही. जिस तरह से बीमारी के प्रसार को रोकने के लिए गहलोत ने लॉकडाउन जैसे सख्त कदम उठाए, उसकी भी चर्चा कुछ कम नहीं रही.
यह रहा है सियासी सफर : अशोक गहलोत को महज 34 वर्ष की उम्र में राजस्थान कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बना दिया गया था. साल 2004 से 2009 तक गहलोत अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव भी रहे. 2018 में उन्होंने राहुल गांधी की टीम में बतौर महासचिव काम किया. संगठन के लंबे अनुभव के साथ-साथ गहलोत साल 1998, 2008 और 2018 में राजस्थान के मुख्यमंत्री चुने गए. गहलोत एक ऐसे नेता हैं, जिन्हें बतौर केंद्रीय मंत्री 3 प्रधानमंत्री के साथ काम करने का मौका भी मिला, जिनमें इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और नरसिम्हा राव जैसे बड़े नाम शामिल हैं.
अशोक गहलोत पहली बार सातवीं लोकसभा में साल 1980 में जोधपुर से सांसद चुने गए थे. इसके बाद 1984 के चुनाव में भी उन्होंने लोकसभा में जोधपुर का नेतृत्व किया. इसके बाद 1991 से 1996 तक 10 वीं लोकसभा में, 11वीं लोकसभा में 1996 से 1998 तक और 12 वीं लोकसभा में 1998 में गहलोत ने राजस्थान का प्रतिनिधित्व किया. इसके बाद गहलोत ने जोधपुर के सरदारपुरा विधानसभा सीट पर उपचुनाव जीतकर राजस्थान की विधानसभा में एंट्री ली. साल 2003, 2008, 2013 और 2018 के चुनाव में उन्होंने इसी सीट से जीत हासिल की और विधानसभा चुनाव में लगातार जीत का सिलसिला बरकरार रखा.