दौसा. किसी ने ठीक ही कहा है कि मरता क्या नहीं करता. जब इंसान के सामने मजबूरी आ जाती है तो वह अपने हर समस्या का समाधान खुद ही करने का प्रयास करता है. कुछ इसी तरह की मजबूरी बिहार जा रहे मजदूरों के सामने आई. जो मजदूर कल तक कपड़ों पर रंग-रोगन कर उन्हें खूबसूरत बनाया करते थे, आज साइकिल का पंचर बनाने को मजबूर हैं.
बता दें कि बिहार से दर्जनों मजदूर बाड़मेर के बालोतरा में मजदूरी करने आए थे. यहां पर कपड़ों की प्रिंटिंग का कार्य करते थे. जैसे ही लॉकडाउन हुआ तो इनका रोजगार छिन गया. जिसके बाद इनके सामने खाने-पीने की समस्या खड़ी हो गई. मजबूर होकर इन मजदूरों को अपने राज्य की ओर लौटने का फैसला लेना पड़ा. वहीं लॉकडाउन के चलते पैसा खत्म हो गया और फैक्ट्री मालिक ने एडवांस तो दूर किए गए काम का पैसा भी नहीं दिया. जिसके बाद इन मजदूरों ने अपने घर से ऑनलाइन पैसा मंगवाया और साइकिल खरीदकर बिहार की ओर निकल गए. ये श्रमिक साइकिल से ही अपने गृह राज्य की ओर लौटने को मजबूर हैं.
मुश्किलों से भरा है ये हजारों किलोमीटर का सफर
ये श्रमिक साइकिल से घर की ओर निकल गए पर हजारों किलोमीटर का सफर तय करने में इनके सामने कई समस्या खड़ी हो गई है. पहले तो इतनी तपती धूप में साइकिल से सफर करना सबसे मुश्किल है. वहीं दूसरी तरफ रास्ते में सारे दुकान बंद हैं. ऐसे में इनके सामने खाने-पीने की समस्या खड़ी हो गई है.
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इन श्रमिकोंं की समस्या खत्म ही नहीं हो रही है. रास्ते में बार-बार साइकिल पंक्चर हो जाती है. रास्तों पर कोई पंक्चर बनाने का दुकान भी नहीं खुला है. ऐसे में कोई रास्ता नहीं देखकर रोगन करने वाले हाथों ने पंक्चर बनाने के लिए टूल्स उठा लिए हैं. इन श्रमिकों को पंक्चर भी बनाने नहीं आता है. हालांकि, रास्ते में आने वाली सभी समस्याओं को लेकर यह मजदूर पहले से आश्वस्त थे.
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जिसके चलते इन्होंने साइकिल में हवा भरने के लिए पंप और पंचर निकालने का सामान पहले ही साथ में रख लिया था. शायद इन मजदूरों की उसी दूर दृष्टि का परिणाम है कि इनकी जब साइकिल पंचर हुई तो खुद ही जैसे-तैसे पंचर बनाना शुरू कर दिया. जैसे-तैसे करके पंचर बना दिया और फिर मंजिल की ओर चल दिए. ऐसे में अब इन मजदूरों को मजबूरी ने इन्हें पंक्चर बनाना भी सीखा दिया, तभी तो कहते हैं कि समस्या जब सामने आती है तो इंसान लड़ना भी सीख जाता है.