चित्तौड़गढ़. विश्व विख्यात चित्तौड़ दुर्ग का हर एक भवन ऐतिहासिक है. इनमें एक हजार साल पुराना समाधीश्वर महादेव मंदिर है. जिसे देखने के लिए देश-विदेश के हजारों पर्यटक यहां आते हैं. इस मंदिर की खास बात यह है, कि यहां अकेले शिव नहीं विराजते हैं. शिव के साथ ब्रह्मा और विष्णु के त्रिमूर्ति दर्शन जहां होते हैं. यही नहीं तीनों एक ही पत्थर पर विराजते हैं. जिनकी पूजा के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से आते हैं.
हजारों सालों से पुराना मंदिर
प्राचिन होने के साथ ही इस मंदिर के ऐतिहासिक प्रमाण भी मौजूद हैं. शिल्पकारों ने वास्तु शास्त्र को ध्यान में रख कर इसका निर्माण करवाया, ताकि हजारों सालों तक इस मंदिर को कोई नुकसान नहीं पहुंचे.
दुर्ग भ्रमण पर आने वाले देश-विदेश के हजारों पर्यटक इस मंदिर में भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश के त्रिमूर्ति विशाल दर्शन देख कर अभिभूत हो जाते हैं. इस महाशिवरात्रि भी मंदिर पर शुक्रवार को विशेष अभिषेक के साथ ही श्रृंगार भी होंगे.
मंदिर का निर्माण
इस मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में परमार राजा भोज ने करवाया था. ऐसा बताया जाता है, कि मंदिर को बनाते समय राजा भोज ने पहली बार वास्तु शास्त्र का उपयोग किया था. निर्माण से पहले सैकड़ों ज्योतिष और पंडितों को बुलाकर कुंडली बनाई गई, जो आज भी मंदिर में लगे शिलालेख में दर्ज है.
यह पूरे विश्व का एकमात्र मंदिर है, जिसमें मूर्ति पहले बनाई और मंदिर बाद में बना. इसका कारण यह है, कि इस मंदिर में 6 फीट के एक विशाल पत्थर पर तीन मूर्तियां है, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं. मंदिर निर्माण के बाद इतनी बड़ी प्रतिमाएं अंदर स्थापित करना संभव नहीं था. ऐसे में पहले यहां प्रतिमां बनी और बाद में मंदिर.
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एक ही पत्थर पर दिए तीन रूप
ऐसा कहा जाता है, कि मूर्तिकार ने एक ही पत्थर पर तीन रूप दिए. जिनमें सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा, पालक विष्णु और विनाशक महेश की प्रतिमाएं हैं, लेकिन एक बारगी में कोई देख कर नहीं पहचान सकता, कि कौनसी मूर्ति किसकी है. इसमें भगवान के बचपन, जवानी और बुढ़ापे की प्रतिमाएं हैं. बचपन का रूप ब्रह्मा का है. जवानी का भगवान विष्णु का और बुढ़ापे का भगवान शिव का. इन प्रतिमाओं को भी इनकी विशेषताओं से पहचानना पड़ता है.
कौन सी मूर्ति किसकी
इन मूर्तियों को देखने के बाद कोई समझ नहीं पाता, कि कौनसी मूर्ति किसकी है. मूर्तिकार ने इसमें अलग-अलग पहचान डाली है. ब्रह्मा के हाथ में कमल का फूल और एक हाथ में शंख है तो भगवान विष्णु की प्रतिमा में सिर पर त्रिपुंड और कान में कुंडल हैं. गले में नाग नहीं होकर नाग जमीन से आ रहा है. सबसे अंत में भगवान शिव की मूर्ति है, जिसमें उनके हाथ में खप्पर है और गले में नाग है.
बताया जाता है, कि 1303 में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया था. उस समय मंदिर की बहुत सी प्रतिमाओं को खंडित कर दिया गया था. बाद में महाराणा कुम्भा के पिता महाराणा मोकल ने 1428 में इसका जीर्णोद्धार कराया.
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निर्माण के दो प्रमाण
इस मंदिर के निर्माण और जीर्णोद्धार के दो प्रमाण हैं. इस मंदिर में दो शिलालेख लगे हुए हैं. उस समय में मुगलों के हमलों से बचाने के लिए मन्दिर को मिट्टी में आधा ढंक दिया था. इसकी वजह से दुर्ग का यह एकमात्र मंदिर है, जिसमें असली मूर्ति हैं.
इस मंदिर के निर्माण में भी वास्तुकला का बहुत ध्यान रखा गया है. इस मंदिर की नींव कमल के फूल पर है. इसके ऊपर कीचक है, जो दोष से बचाते हैं. मंदिर में प्रवेश के समय भी कीचक पर पैर रख कर निकलना पड़ता है, जिससे सभी प्रकार के दोष दूर होते हैं.
मंदिर की दीवारों पर बनी अनेक प्रतिमाएं
मंदिर की दीवार पर देवियों और हाथी की प्रतिमाएं बनी हैं, जो मंदिर को बाधाओं से बचाती हैं. उस समय वास्तुकला का ध्यान रखते हुए मंदिर के प्रवेश द्वार पर काला पत्थर लगाया गया था. वहीं एकमात्र मंदिर बताया जाता है, जिसमें नंदी की आंखे सीधे प्रतिमाओं से मिलती हैं. अपनी इन्ही विशेषताओं के चलते यह मंदिर अपनी अलग पहचान रखता है.
इस शिवरात्रि यानि शुक्रवार को यहां कई आयोजन होंगे, जिसकी तैयारियां पूरी की जा रहीं हैं. वहीं शिवरात्रि के अगले दिन मंदिर में विशेष श्रृंगार होगा.