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Special : भूखे और असहाय लोगों का पेट भर रही 'मां की रसोई', सप्ताह में दो दिन नमकीन और मिठाई भी - बस्सी में मां की रसोई

चित्तौड़गढ़ के बस्सी में सर्राफा व्यापारी शेखर सोनी लागातार 2 सालों से गरीब ओर बेसहारा लोगों को घर का बना शुद्ध खाना खिला रहे है. अपनी रसोई का नाम शेखर ने मां की रसोई रखा है. यहां निशुल्क लोगों को भरपेट भोजन कराया जाता है. यहां किसी के साथ भेदभाव नही किया जाता है.

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मां की रसोई
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Published : Feb 15, 2020, 10:56 AM IST

बस्सी (चित्तौड़गढ़). 'मां की रसोई' यह शब्द सुनते ही जहन में मां के हाथों का बना लजीज खाना याद आ जाता है और मुंह में वही स्वाद. ऐसा ही भोजन निर्धन और निराश्रित लोगों को मिले तो इससे अच्छी और क्या बात होगी.

आपको बता दे की मां की रसोई में बना भोजन चित्तौड़गढ़ जिला मुख्यालय से 25 किमी दूर स्थित बस्सी गांव में गरीब और निराश्रित लोगों को मिल रहा है. यहां एक व्यक्ति करीब 2 सालों से रोज गरीबों के लिए निशुल्क भोजन उपलब्ध करवाता है. साथ ही अपनी रसोई का नाम उन्होंने 'मां की रसोई' रखा है. खास बात यह है कि यहां मिलने वाला भोजन घर पर बनाया जाता है. अमूमन हम बड़े तबके के लोगों को किसी दिन विशेष पर दान करते हुए या खाना खिलाते हुए देखते या सुनते है. लेकिन जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर स्थित बस्सी में एक व्यक्ति ने दान करने की परिभाषा को बदलते हुए रोज गरीबों को खाना खिलाने का कार्य कर रहा है.

भूखे और असहाय का पेट भर रही "मां की रसोई"

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चित्तौड़गढ़ में सर्राफा व्यवसायी और बस्सी निवासी शेखर सोनी लगातार दो सालों से असहाय लोगों को निःशुल्क भोजन करवा रहे है. वो भी अपने घर की रसोई का बना शुद्ध खाना. उन्होंने अपनी मां के कहने पर अपनी रसोई का नाम 'मां की रसोई' रखा. शेखर सोनी ने बताया कि जिला मुख्यालय पर उनकी ज्वेलर्स की दुकान है लेकिन वे बस्सी में रहते है. उन्होंने बताया कि 2 साल पहले एक दिन उन्होंने बस्सी में दो-तीन लोगों को देखा था जो मानसिक रूप से विक्षिप्त थे. सभी लोग कई दिन से भूखे थे. ये लोग कमा कर खाने में भी असमर्थ थे. तभी से मन में आया कि ऐसे कई लोग है जो कमाने में असमर्थ है और कई लोग ऐसे है जो महंगाई के कारण मजबूरी में भूखे रहते है. ऐसे लोगों को खाना खिलाना एक धर्म का कार्य होगा. यह सोचने के बाद परिवार से चर्चा कर करीब दो साल पहले अनंत चतुर्दशी के दिन से मां की रसोई की शुरुआत की गई.

पढ़ेंः 15 फरवरी से होगा 3 दिवसीय जालोर महोत्सव का आयोजन, कई कार्यक्रम होंगे

शेखर सोनी का कहना है कि उनकी मां की ओर से इस कार्य मे पूर्ण रूप से सहयोग मिला. कार्य के शुरू करने के बाद कुछ दिनों तक घर पर ही खाना बना कर टिफिन ले जाकर लोगों को खिलाया. शुरू-शुरू में कई दिनों तक परिवार के सदस्यों ने खाना बनाया. लोगों की संख्या बढ़ने के बाद खाना बनाने के लिए एक व्यक्ति को रखा गया. जो खाना घर पर ही बनाता है. उसके बाद बस स्टैंड पर एक बैनर लगाया गया और दो टेबल. एक टेबल पर खाना रखा जाता है और दूसरे टेबल पर खाना खिलाया जाता है.

पढ़ेंः स्पेशल: Short कट के चक्कर में हाइवे पर लगा दिये अवैध कट, कब क्या हो जाए कुछ पता नहीं

यहां प्रतिदिन सुबह 11 बजे से दोपहर 3 बजे तक लोगों को पेट भर कर खाना मिलता है. मां की रसोई में कोई भी व्यक्ति खाना खा सकता है. किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता है. घर पर बनने वाली सब्जी, रोटी, चावल और अचार ही प्रतिदिन मिलता है. सप्ताह में दो दिन मिठाई और नमकीन भी मिलता है. इसके अलावा गांव मे कोई भी आयोजन हो तो कस्बेवासी पूर्ण रूप से सहयोग करते हैं. शेखर ने बताया कि इस कार्य में प्रतिदिन लगभग 1200 रुपए तक का खर्चा होता है

बस्सी (चित्तौड़गढ़). 'मां की रसोई' यह शब्द सुनते ही जहन में मां के हाथों का बना लजीज खाना याद आ जाता है और मुंह में वही स्वाद. ऐसा ही भोजन निर्धन और निराश्रित लोगों को मिले तो इससे अच्छी और क्या बात होगी.

आपको बता दे की मां की रसोई में बना भोजन चित्तौड़गढ़ जिला मुख्यालय से 25 किमी दूर स्थित बस्सी गांव में गरीब और निराश्रित लोगों को मिल रहा है. यहां एक व्यक्ति करीब 2 सालों से रोज गरीबों के लिए निशुल्क भोजन उपलब्ध करवाता है. साथ ही अपनी रसोई का नाम उन्होंने 'मां की रसोई' रखा है. खास बात यह है कि यहां मिलने वाला भोजन घर पर बनाया जाता है. अमूमन हम बड़े तबके के लोगों को किसी दिन विशेष पर दान करते हुए या खाना खिलाते हुए देखते या सुनते है. लेकिन जिला मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर स्थित बस्सी में एक व्यक्ति ने दान करने की परिभाषा को बदलते हुए रोज गरीबों को खाना खिलाने का कार्य कर रहा है.

भूखे और असहाय का पेट भर रही "मां की रसोई"

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चित्तौड़गढ़ में सर्राफा व्यवसायी और बस्सी निवासी शेखर सोनी लगातार दो सालों से असहाय लोगों को निःशुल्क भोजन करवा रहे है. वो भी अपने घर की रसोई का बना शुद्ध खाना. उन्होंने अपनी मां के कहने पर अपनी रसोई का नाम 'मां की रसोई' रखा. शेखर सोनी ने बताया कि जिला मुख्यालय पर उनकी ज्वेलर्स की दुकान है लेकिन वे बस्सी में रहते है. उन्होंने बताया कि 2 साल पहले एक दिन उन्होंने बस्सी में दो-तीन लोगों को देखा था जो मानसिक रूप से विक्षिप्त थे. सभी लोग कई दिन से भूखे थे. ये लोग कमा कर खाने में भी असमर्थ थे. तभी से मन में आया कि ऐसे कई लोग है जो कमाने में असमर्थ है और कई लोग ऐसे है जो महंगाई के कारण मजबूरी में भूखे रहते है. ऐसे लोगों को खाना खिलाना एक धर्म का कार्य होगा. यह सोचने के बाद परिवार से चर्चा कर करीब दो साल पहले अनंत चतुर्दशी के दिन से मां की रसोई की शुरुआत की गई.

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शेखर सोनी का कहना है कि उनकी मां की ओर से इस कार्य मे पूर्ण रूप से सहयोग मिला. कार्य के शुरू करने के बाद कुछ दिनों तक घर पर ही खाना बना कर टिफिन ले जाकर लोगों को खिलाया. शुरू-शुरू में कई दिनों तक परिवार के सदस्यों ने खाना बनाया. लोगों की संख्या बढ़ने के बाद खाना बनाने के लिए एक व्यक्ति को रखा गया. जो खाना घर पर ही बनाता है. उसके बाद बस स्टैंड पर एक बैनर लगाया गया और दो टेबल. एक टेबल पर खाना रखा जाता है और दूसरे टेबल पर खाना खिलाया जाता है.

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यहां प्रतिदिन सुबह 11 बजे से दोपहर 3 बजे तक लोगों को पेट भर कर खाना मिलता है. मां की रसोई में कोई भी व्यक्ति खाना खा सकता है. किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता है. घर पर बनने वाली सब्जी, रोटी, चावल और अचार ही प्रतिदिन मिलता है. सप्ताह में दो दिन मिठाई और नमकीन भी मिलता है. इसके अलावा गांव मे कोई भी आयोजन हो तो कस्बेवासी पूर्ण रूप से सहयोग करते हैं. शेखर ने बताया कि इस कार्य में प्रतिदिन लगभग 1200 रुपए तक का खर्चा होता है

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