कपासन (चित्तौड़गढ़). मेवाड़ अंचल का प्रसिद्व गंवरी नृत्य भी कोरोना की मार से अछुता नहीं रहा है. कोरोना के चलते इस नृत्य को भी ग्रहण सा लग गया. फिर भी देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए सोनियाना गांव में बुधवार को कलाकारों ने सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए मास्क लगाकर गवरी नृत्य का मंचन किया.
रक्षाबंधन के अगले दिन से शुरू होने वाला ये नृत्य श्राद्व पक्ष के अंतिम दिन तक आयोजित होता है. कलाकार गांव-गांव जाकर इस नृत्य का मंचन करते हैं. देवी देवताओं को प्रसन्न करने के लिए ये नृत्य एक गोले में किया जाता है. इस नृत्य की एक विशेषता ये है कि इसमें कोई भी महिला अभिनय नहीं करती है. पुरूष ही महिला का अभिनय करते हैं. वहीं, इसका सारा खर्चा ग्रामिण वहन करते हैं.
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गवरी में दो मुख्य पात्र होते हैं. राईबूढ़िया और राईमाता. राईबूढ़िया को भगवान शिव और राईमाता को माता पार्वती माना जाता है. इसलिए दर्शक इन पात्रों की पूजा भी करते हैं. गवरी का मूल कथानक भगवान शिव और भस्मासुर से संबंधित है. इसका नायक राईबूढ़िया होता है जो, भगवान शिव और भस्मासुर का प्रतीक है. राईबूड़िया की वेशभूषा विशिष्ट होती है. उसके हाथ में लकड़ी की खडग, कमर में मोटे घुघरूओं की पट्टी, जांघिया और मुंह पर विचित्र कलात्मक मुखौटा होता है. इसकी जटा और भगवा पहनावा भगवान शिव का प्रतीक है. वहीं, हाथ का कड़ा और मुखौटा भस्मासुर का द्योतक है.