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खाड़ी देशों में मरे हुए लोगों को उनके अपनों से मिलवाता है राजस्थान का यह शख्स...

पैसा कमाने की चाहत और पेट पालने की मजबूरी अपना वतन छुड़वा देती है और ऐसे में जिंदगी साथ छोड़ दे तो शरीर अपने वतन की माटी में मिलना चाहता है. ऐसे वक्त में यदि कोई शव को अपनों के पास पहुंचा दे तो रूह को मोक्ष और परिवार को अपनों के अंतिम दर्शन हो जाते हैं.

गुलाम खान
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Published : Mar 14, 2019, 11:32 PM IST

झुंझुनू. पैसा कमाने की चाहत और पेट पालने की मजबूरी अपना वतन छुड़वा देती है और ऐसे में जिंदगी साथ छोड़ दे तो शरीर अपने वतन की माटी में मिलना चाहता है. ऐसे वक्त में यदि कोई शव को अपनों के पास पहुंचा दे तो रूह को मोक्ष और परिवार को अपनों के अंतिम दर्शन हो जाते हैं.

जिले के गुलाम खान गत 30 सालों से ऐसा ही काम कर रहे हैं. पहले अकेले जुटे, बाद में मारवाड़ वेलफेयर संगठन बनाया और अब ऐसा है कि साल में चार पांच शव को वतन भिजवा रहे हैं. रियाद में रहने वाले गुलाम खान से कई बार तो भारतीय दूतावास भी परिजनों को खोजने में मदद मांगता है. अब तक खान और उनका संगठन लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा शव को भारत भेज चुका है.

गुलाम खान

गुलाम खां कमाने के लिए विदेश गए थे लेकिन वहां 1987 में उनकी बुआ के दामाद का इंतकाल हो गया था. इस पर परिजनों को मौत की खबर तो लग गई, लेकिन दस्तावेजों की कमी के कारण वहां की सरकार ने शव देने से मना कर दिया. ऐसे में यहां परिजन शव के लिए इंतजार कर रहे थे. लेकिन वहां केवल गुलाम खां ही उनकी जान पहचान वाले थे और वह बार-बार उनको शव लाने के लिए कह रहे थे परंतु वह भी क्या कर सकते थे. तब से खां ने प्रण ले लिया कि कानूनी अड़चनों, भाषा की समझ ना होने, पैसे की कमी पड़ जाने से जो अपने वतन नहीं जा पा रहा हो उसकी हर संभव मदद करते हैं

गुलाम खान बताते हैं कि एजेंट लोगों को टूरिस्ट वीजा से विदेश भेज देते हैं और उनकी वीजा अवधि खत्म होने पर लोग वहीं पर काम करते रहते हैं. कुछ मामलों में तो उनका पासपोर्ट भी छीन लेते हैं. इसके बाद यदि कोई दुर्घटना हो जाती है तो ऐसे शवों को वहां की सरकार देने से मना कर देती है. ऐसे में उनकी संस्था ऐसे लोगों की मदद करती है और उनको वापस देश भेजने तक रुकने और खाने पीने की व्यवस्था भी करते हैं.

झुंझुनू. पैसा कमाने की चाहत और पेट पालने की मजबूरी अपना वतन छुड़वा देती है और ऐसे में जिंदगी साथ छोड़ दे तो शरीर अपने वतन की माटी में मिलना चाहता है. ऐसे वक्त में यदि कोई शव को अपनों के पास पहुंचा दे तो रूह को मोक्ष और परिवार को अपनों के अंतिम दर्शन हो जाते हैं.

जिले के गुलाम खान गत 30 सालों से ऐसा ही काम कर रहे हैं. पहले अकेले जुटे, बाद में मारवाड़ वेलफेयर संगठन बनाया और अब ऐसा है कि साल में चार पांच शव को वतन भिजवा रहे हैं. रियाद में रहने वाले गुलाम खान से कई बार तो भारतीय दूतावास भी परिजनों को खोजने में मदद मांगता है. अब तक खान और उनका संगठन लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा शव को भारत भेज चुका है.

गुलाम खान

गुलाम खां कमाने के लिए विदेश गए थे लेकिन वहां 1987 में उनकी बुआ के दामाद का इंतकाल हो गया था. इस पर परिजनों को मौत की खबर तो लग गई, लेकिन दस्तावेजों की कमी के कारण वहां की सरकार ने शव देने से मना कर दिया. ऐसे में यहां परिजन शव के लिए इंतजार कर रहे थे. लेकिन वहां केवल गुलाम खां ही उनकी जान पहचान वाले थे और वह बार-बार उनको शव लाने के लिए कह रहे थे परंतु वह भी क्या कर सकते थे. तब से खां ने प्रण ले लिया कि कानूनी अड़चनों, भाषा की समझ ना होने, पैसे की कमी पड़ जाने से जो अपने वतन नहीं जा पा रहा हो उसकी हर संभव मदद करते हैं

गुलाम खान बताते हैं कि एजेंट लोगों को टूरिस्ट वीजा से विदेश भेज देते हैं और उनकी वीजा अवधि खत्म होने पर लोग वहीं पर काम करते रहते हैं. कुछ मामलों में तो उनका पासपोर्ट भी छीन लेते हैं. इसके बाद यदि कोई दुर्घटना हो जाती है तो ऐसे शवों को वहां की सरकार देने से मना कर देती है. ऐसे में उनकी संस्था ऐसे लोगों की मदद करती है और उनको वापस देश भेजने तक रुकने और खाने पीने की व्यवस्था भी करते हैं.

Intro:झुंझुनू । पैसा कमाने की चाहत और पेट पालने की मजबूरी अपना वतन छुड़वा देती है और ऐसे में जिंदगी साथ छोड़ दे तो शरीर अपने वतन की माटी में मिलना चाहता है।. विदेश में ऐसी कानूनी अड़चन आ जाती है कि शव को स्वदेश लाना मुश्किल हो जाता है। ऐसे वक्त में यदि कोई शव को अपनों के पास पहुंचा दे तो रूह को मोक्ष और परिवार को अपनों के अंतिम दर्शन हो जाते हैं। झुंझुनू के गुलाम खान गत 30 सालों से ऐसा ही काम कर रहे हैं। पहले अकेले जुटे, बाद में मारवाड़ वेलफेयर संगठन बनाया और अब ऐसा है कि साल में चार पांच शव को वतन भिजवा रहे हैं। रियाद में रहने वाले गुलाम खान से कई बार तो वहां भारत की एंबेसी भी परिजनों को खोजने में मदद मांगती है। अब तक वे व उनका संगठन लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा शव को भारत ला चुके हैं या उनके परिजनो की मदद कर चुके हैं।





Body:ऐसा हुआ कि झकझोर दिया मन
गुलाम खां खाने कमाने के लिए विदेश गए थे। वहां 1987 में उनकी बुआ के दामाद का इंतकाल हो गया था ।.उनके परिजनों को मौत की खबर तो लग गई लेकिन दस्तावेजों की कमी के कारण वहां की सरकार ने शव देने से मना कर दिया ।अब यहां परिवार के लिए शव का अंतिम इंतजार चल रहा था ।वहां केवल गुलाम खाई उनकी जान पहचान वाले थे और वह बार बार उन को शव लाने के लिए कह रहे थे परंतु वह भी क्या कर सकते थे। बस तब से उन्होंने मिशन बना लिया कि कानूनी अड़चनों , भाषा की समझ ना होने , पैसे की कमी पड़ जाने से जो सब अपने वतन नहीं जा पा रहे उनके परिजनों की मदद करनी है




Conclusion:वीजा ही आ जाता है आड़े
गुलाम खान बताते हैं कि एजेंट लोगों को टूरिस्ट वीजा से भेज देते हैं और उनकी अवधि खत्म होने पर भोले लोग वहीं पर काम करते रहते हैं। जिस काम के लिए भेजा जाता है, वह नहीं देकर दूसरे काम में लगा देते हैं ।इसके अलावा उनका पासपोर्ट भी छीन लेते हैं ।इसके बाद यदि कोई दुर्घटना हो जाती है तो ऐसे शवों को वहां की सरकार देने से मना कर देती है। गुलाम खान की संस्था उनके दस्तावेज़ से लेकर दूसरी औपचारिकता में मदद करती है। वही काम करने वालों का भी पासपोर्ट छीन लेने से उनके पास भी कोई वैध दस्तावेज नहीं होता है तो उनकी स्वदेश वापसी नहीं हो पाती है। ऐसे में उनकी संस्था ऐसे लोगों से भी मदद करती है और उनको वापस भेजने तक रुकने की व्यवस्था करते हैं।
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