झुंझुनू. पैसा कमाने की चाहत और पेट पालने की मजबूरी अपना वतन छुड़वा देती है और ऐसे में जिंदगी साथ छोड़ दे तो शरीर अपने वतन की माटी में मिलना चाहता है. ऐसे वक्त में यदि कोई शव को अपनों के पास पहुंचा दे तो रूह को मोक्ष और परिवार को अपनों के अंतिम दर्शन हो जाते हैं.
जिले के गुलाम खान गत 30 सालों से ऐसा ही काम कर रहे हैं. पहले अकेले जुटे, बाद में मारवाड़ वेलफेयर संगठन बनाया और अब ऐसा है कि साल में चार पांच शव को वतन भिजवा रहे हैं. रियाद में रहने वाले गुलाम खान से कई बार तो भारतीय दूतावास भी परिजनों को खोजने में मदद मांगता है. अब तक खान और उनका संगठन लगभग डेढ़ सौ से ज्यादा शव को भारत भेज चुका है.
गुलाम खां कमाने के लिए विदेश गए थे लेकिन वहां 1987 में उनकी बुआ के दामाद का इंतकाल हो गया था. इस पर परिजनों को मौत की खबर तो लग गई, लेकिन दस्तावेजों की कमी के कारण वहां की सरकार ने शव देने से मना कर दिया. ऐसे में यहां परिजन शव के लिए इंतजार कर रहे थे. लेकिन वहां केवल गुलाम खां ही उनकी जान पहचान वाले थे और वह बार-बार उनको शव लाने के लिए कह रहे थे परंतु वह भी क्या कर सकते थे. तब से खां ने प्रण ले लिया कि कानूनी अड़चनों, भाषा की समझ ना होने, पैसे की कमी पड़ जाने से जो अपने वतन नहीं जा पा रहा हो उसकी हर संभव मदद करते हैं
गुलाम खान बताते हैं कि एजेंट लोगों को टूरिस्ट वीजा से विदेश भेज देते हैं और उनकी वीजा अवधि खत्म होने पर लोग वहीं पर काम करते रहते हैं. कुछ मामलों में तो उनका पासपोर्ट भी छीन लेते हैं. इसके बाद यदि कोई दुर्घटना हो जाती है तो ऐसे शवों को वहां की सरकार देने से मना कर देती है. ऐसे में उनकी संस्था ऐसे लोगों की मदद करती है और उनको वापस देश भेजने तक रुकने और खाने पीने की व्यवस्था भी करते हैं.