जयपुर. राजस्थान हाईकोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में कहा है कि माता-पिता या अभिभावक कोर्ट की अनुमति के बिना अपनी अवयस्क संतान का डीएनए टेस्ट नहीं करा सकते. अदालत ने कहा कि यदि डीएनए टेस्ट के संबंध में अदालत के समक्ष कोई प्रार्थना पत्र आता है, तो पहले यह देखना चाहिए कि क्या मामले में डीएनए टेस्ट कराना बेहद जरूरी है और टेस्ट के परिणाम से अवयस्क या किसी अन्य को कोई नुकसान तो नहीं होगा. इसके अलावा इसकी रिपोर्ट भी सार्वजनिक नहीं की जाए. न्यायाधीश संजीव प्रकाश शर्मा की एकलपीठ ने यह आदेश हिंडौन निवासी युवक की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए दिए.
अदालत ने याचिकाकर्ता पर 10 हजार का हर्जाना लगाते हुए सरकार से मंशा जताई है कि वह ऐसे मामलों में बच्चों के अधिकारों और डीएनए टेस्ट से होने वाले नुकसान को देखते हुए कानून बनाए. अदालत ने यूके का हवाला देते हुए कहा कि वहां वर्ष 2006 में ह्यूमन एक्ट के जरिए ह्यूमन टिशु को बिना मंजूरी के लेना या संरक्षित करना अवैध घोषित कर दिया था. लेकिन, दुर्भाग्य की बात है कि भारत में ऐसा कोई कानून नहीं बनाया गया है. अदालत ने कहा कि केवल पति की ओर से बिना कानूनी साक्ष्य के सिर्फ बयान के आधार पर डीएनए टेस्ट की अनुमति नहीं दी जा सकती.
याचिका में अधीनस्थ कोर्ट के 15 मार्च 2019 के उस आदेश को चुनौती दी गई थी. जिसमें उसके बेटे के डीएनए टेस्ट कराने संबंधी प्रार्थना पत्र को खारिज कर दिया था. याचिकाकर्ता का कहना था कि उसकी पत्नी का चेन्नई के एक हॉस्पिटल में सोनोग्राफी टेस्ट कराया गया था. हॉस्पिटल की रिपोर्ट में उसकी पत्नी 13 दिसंबर सितंबर 2017 को 35 सप्ताह और 6 दिन की गर्भवती थी. जबकि याचिकाकर्ता का विवाह उसके बाद हुआ था. याचिकाकर्ता का कहना था कि उसकी पत्नी शादी से पहले ही गर्भवती थी और उसके जो बच्चा हुआ उसका नहीं है. वहीं पत्नी का कहना था कि पति उसे शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित कर रहा है. उसकी ओर से जो आरोप लगाए गए हैं वह बेबुनियाद है.