केशवरायपाटन(बूंदी)। हिन्दी, ब्रजभाषा, मेवाती, मारवाड़ी, शेखावाटी, हाड़ौती जैसी कई भाषाओं के मिश्रिण को राजस्थानी भाषा का नाम दिया गया है. भारत में लगभग 9 करोड़ लोग किसी न किसी राजस्थानी भाषा को बोलते हैं. राजस्थानी भाषाओं में मारवाड़ी भाषा सबसे ज्यादा बोली जाती है. लगभग 4.5 से 5 करोड़ लोग मारवाड़ी भाषा का प्रयोग करते हैं.
राजस्थानी भाषाऐं भारत के राजस्थान, मालवा क्षेत्र तथा पाकिस्तान के कुछ भागों में बोली जाती है. इन भाषाओं का इतिहास बहुत पुराना है. इन भाषाओं में साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है. इन भाषाओं में कई लोक गीत, संगीत, नृत्य, नाटक, कथा, कहानी आदि उपलब्ध है.
हालांकि राजस्थानी भाषा को सरकारी मान्यता अभी तक नहीं मिली है. यही वजह है कि इन्हें विद्यालयों में नहीं पढ़ाया जाता. यही कारण है कि युवा और शिक्षित वर्ग धीरे-धीरे इन भाषाओं का उपयोग छोड़ता जा रहा है. परिणामस्वरूप इन भाषाओं का तेजी से ह्रास हो रहा है.
राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने के लिए प्रदेश के लोग सालों से संघर्षरत हैं. इन्हीं में से एक हैं साहित्यकार और कवि देवकी दर्पण. देवकी दर्पण की रचना 'गंगा राजस्थानी' एक प्रेरक गीत के रूप में प्रसिद्ध है. यह गीत राजस्थानी भाषाओं की महत्ता को दर्शाता है.
देवकी दर्पण का कहना है कि लेखन की भाषा कोई भी हो, उसमें गंभीरता और पाठकों के दिल को छूने लेने की काबिलियत हो तो लेखन में भाषा का माध्यम गौण हो जाता है. रोटेदा के देवकी दर्पण ने अभावों मे रहकर मायड़ भाषा में लेखन की शुरूआत की थी. तब उन्हें यह नहीं मालूम था कि उनकी लेखनी आपणी भाषा का परिचय बन जाएगी.
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पिछले 15 सालों में उनकी कई रचनाएँ सामने आई तो उनकी लेखन शैली और 'आपणी भाषा' का महत्व जन-जन तक पहुंचने लगा. उन्होंने अपनी 'चार चंटका' नामक कृति में समाज की संस्कृति से लेकर विकारो तक को अपनी ठैठ हाड़ौती भाषा के शब्दों मे ढाला है. 'आपणी भाषा' में दर्पण का लेखन जहां समाज में हो रहे बदलाव को अपने शब्दों में दर्शाता है, तो वहीं सम सामयिक घटनाओं कुरीतियों पर प्रहार भी करता है.
साहित्यकार देवकी दर्पण आपणी भाषा में ठेठ आम लोगों से जुडे मुद्दों को मायड़ भाषा के शब्दों में पिरोते हैं. ऐसा करने पर तो मानो आपणी भाषा का लावण्य और भी प्रखर हो उठता है. दर्पण को उनके इस योगदान के लिए विभिन्न साहित्यक संस्थाओं ने सम्मानित भी किया है.
देवकी दर्पण अक्सर समाज में बेटियों की दशा पर समाज को जागरूक करने का काम करते हैं. बेटियों के बारे में वे लिखते हैं, "अन्नपूर्णा सात नाज मं, आंख-आंख मं बसी नम बेटी. लक्ष्मी, दुर्गा और सुरस्वती, कोया सुं कौने कम बेटी". इस रचना के माध्यम से वे बेटियों की महत्ता को दर्शा रहे हैं.
बेटियों की समर्पित अपनी एक अन्य रचना में वे लिखते हैं, "हरिया खैता की खुशहाली, मक्का बाजरो छ बेटी". इस रचना के माध्यम से वे गांवों में बेटी के काम-काज के आधार पर उसके योगदान को बताते रहे हैं.
देवकी दर्पण की अब तक उनकी कई रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी प्रमुख रचनाओं में अम्रत को धोरो, मेघमाल कांकरी घुदंता पग( यात्रा वृत्तांत) शामिल है. उन्होंने मायड़ भाषा में सभी विषयों पर गंभीर लेखन किया है. वैसे उनकी सबसे चर्चित पुस्तक 'कहै चकवा सुण चकवी' है. इसमें उन्होंने समाज के सभी रूपों का मायड़ भाषा में बेहद ही सुंदर वर्णन किया है.
देवकी दर्पण की "बेटी करवा चौथ रूपाली पावणी चन्द्रमा की कौर गुरगल" रचना आपणी भाषा के चहेतों को हर्षित करती है. वहीं उनकी कृति 'चार चटंका' में समाज में हो रहे बदलाव और समाज में व्याप्त कुरीतियों का बेहद की सुंदर ढंग से वर्णन किया गया है. इसके अलावा वे इस कृति के माध्यम से वर्तमान परिस्थितियों पर व्यंग भी करते हैं.
मैम्हारी मायड़ भासा ई म्हारी माई छै, जै जामण का दूध कै लारा म्हारा हलक मं उतरी. माई की गोदी तो सदा ई रुपाळी अर ममता भरी रै छै. मायड़ भासा मं ई म्हारो मन गळकचा होवै छै, ईंकी रक्षा करबो म्हारो ई नै आंखा राजस्थान अर प्रवासी राजस्थान्या को धरम बणै छै. जद अलग भासा नै मानत्या मलगी तो म्हारी मायड़ सूं बैर क्यूं. मानत्या मलबा सूं और प्रान्ता का मनख नौकरी लेखै राजस्थान मं न घुसैगा, क्यूकै वै राजस्थानी न जाणै. मानत्या मलबा सूं बेरोजगारी हटैगी यो फायदो राजस्थान नै मलैगो.