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यहां 750 बच्चों ने बहाया था पसीना, लाखों रुपए हुए थे खर्च, Medal का दर्जा सिर्फ यादों तक ही

बांसवाड़ा में गत दिनों राज्य स्तरीय जनजाति खेलकूद प्रतियोगिता का आयोजन हुआ. जिसमें करीब 750 खिलाड़ियों ने भाग लिया और कई विजेताओं ने मैडल भी जीते. लेकिन सरकारी स्तर पर इन मैडल्स की कोई खास अहमियत नहीं है. दरअसल ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इस प्रतियोगिता को सरकार की ओर से किसी प्रकार की कोई मान्यता नहीं दी गई है. जिसकी वजह से इन खिलाड़ियों को इसका खास लाभ नहीं मिल पाता है.

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जनजाति खेलकूद प्रतियोगिता को मान्यता का इंतजार
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Published : Dec 3, 2019, 12:02 PM IST

बांसवाड़ा. राज्य स्तरीय जनजाति खेलकूद प्रतियोगिता के लिए प्रदेश के 6 जिलों के खिलाड़ियों द्वारा पसीना बहाया गया. लेकिन हम आपको बता दें कि यहां अपने बेहतर प्रदर्शन के दम पर जिन जिन खिलाड़ियों ने मैडल जीते हैं, उस मैडल की सरकारी लिहाज से कोई खास अहमियत नहीं है. मैडल का दर्जा यादों तक ही सीमित है. क्योंकि, अब तक सरकार द्वारा इस प्रतियोगिता को किसी भी प्रकार की मान्यता नहीं दी गई है.

जनजाति खेलकूद प्रतियोगिता को मान्यता का इंतजार

हम बात कर रहे हैं 30 नवंबर से 2 दिसंबर तक बांसवाड़ा में आयोजित हुई राज्य स्तरीय जनजातीय खेल प्रतियोगिता की. इस प्रतियोगिता में बेहतर प्रदर्शन के लिए भले ही जनजाति वर्ग के छात्र-छात्राओं ने अच्छा प्रदर्शन किया हो और मैडल भी जीते हो. लेकिन, सरकारी नजरों में उनकी वैल्यूएशन जीरो ही मानी जा रही है. पता चला है कि यह प्रतियोगिता सरकारी स्तर पर राज्य स्तर के रूप में मान्य नहीं है. अर्थात यहां अपने प्रदर्शन के बूते जिन जिन खिलाड़ियों ने मैडल हासिल किए हैं और बेहतर प्रदर्शन किया है, सरकारी स्तर पर उन्हें किसी भी प्रकार का लाभ नहीं मिलने वाला है.

यह भी पढ़ें : बांसवाड़ाः जनजातीय खेलकूद प्रतियोगिता का समापन, उदयपुर के खिलाड़ियों ने दिखाया दमखम

दबी जुबान में आयोजन से जुड़े कई लोग अपनी इस व्यथा को बताते नजर आए. सूत्रों का कहना है कि क्योंकि यह 6 जिलों की प्रतियोगिता है. इस कारण इसे राज्य स्तर की मान्यता नहीं है. जब तक प्रदेश के सभी जिलों के लिए इसका आयोजन नहीं होता, तब तक इसे राज्य स्तर की मान्यता नहीं दी जा सकती.

यह भी पढ़ें : बांसवाड़ाः मां त्रिपुरा सुंदरी के जयकारों के साथ त्रिवेदी ने संभाली सभापति की कुर्सी, परिषद ने बिछाई रेड कारपेट

जबकि अब तक राज्य स्तर के नाम पर यह छठा आयोजन हो चुका है. हैरत की बात तो यह है कि राज्य क्रीड़ा परिषद हर साल इसके आयोजन पर लाखों रुपए खर्च कर रहा है. लेकिन इसमें भाग लेने वाले खिलाड़ियों को इसका कोई लाभ मिलता नहीं दिख रहा है और जनजाति वर्ग के इन खिलाड़ियों के लिए यह महज सिर्फ मनोरंजन ही साबित हो रहा है.

ये हैं जनजाति जिले...

सरकारी मान्यता के अनुसार डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, उदयपुर, सिरोही और बारां जनजाति बहुल क्षेत्र माने गए हैं. अर्थात यह सारे जिले ट्राइबल सब प्लान में आते हैं. जबकि प्रदेश में कई जिले ऐसे हैं, जहां पर बड़े पैमाने पर आदिवासी वर्ग के लोग निवासरत है. जिला खेल अधिकारी धनेश्वर मईडा के अनुसार यह सही है कि इसे 6 जिलों में होने के कारण राज्य सरकार दर्जा हासिल नहीं है. प्रदेश के सभी जिलों में आदिवासी वर्ग के लोग निवासरत है. ऐसे में सरकार को सारे जिलों को मिलाकर इस प्रकार की प्रतियोगिता का आयोजन करवाना चाहिए. इस दिशा में वे भी अपनी बात उच्चाधिकारियों तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे.

बांसवाड़ा. राज्य स्तरीय जनजाति खेलकूद प्रतियोगिता के लिए प्रदेश के 6 जिलों के खिलाड़ियों द्वारा पसीना बहाया गया. लेकिन हम आपको बता दें कि यहां अपने बेहतर प्रदर्शन के दम पर जिन जिन खिलाड़ियों ने मैडल जीते हैं, उस मैडल की सरकारी लिहाज से कोई खास अहमियत नहीं है. मैडल का दर्जा यादों तक ही सीमित है. क्योंकि, अब तक सरकार द्वारा इस प्रतियोगिता को किसी भी प्रकार की मान्यता नहीं दी गई है.

जनजाति खेलकूद प्रतियोगिता को मान्यता का इंतजार

हम बात कर रहे हैं 30 नवंबर से 2 दिसंबर तक बांसवाड़ा में आयोजित हुई राज्य स्तरीय जनजातीय खेल प्रतियोगिता की. इस प्रतियोगिता में बेहतर प्रदर्शन के लिए भले ही जनजाति वर्ग के छात्र-छात्राओं ने अच्छा प्रदर्शन किया हो और मैडल भी जीते हो. लेकिन, सरकारी नजरों में उनकी वैल्यूएशन जीरो ही मानी जा रही है. पता चला है कि यह प्रतियोगिता सरकारी स्तर पर राज्य स्तर के रूप में मान्य नहीं है. अर्थात यहां अपने प्रदर्शन के बूते जिन जिन खिलाड़ियों ने मैडल हासिल किए हैं और बेहतर प्रदर्शन किया है, सरकारी स्तर पर उन्हें किसी भी प्रकार का लाभ नहीं मिलने वाला है.

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दबी जुबान में आयोजन से जुड़े कई लोग अपनी इस व्यथा को बताते नजर आए. सूत्रों का कहना है कि क्योंकि यह 6 जिलों की प्रतियोगिता है. इस कारण इसे राज्य स्तर की मान्यता नहीं है. जब तक प्रदेश के सभी जिलों के लिए इसका आयोजन नहीं होता, तब तक इसे राज्य स्तर की मान्यता नहीं दी जा सकती.

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जबकि अब तक राज्य स्तर के नाम पर यह छठा आयोजन हो चुका है. हैरत की बात तो यह है कि राज्य क्रीड़ा परिषद हर साल इसके आयोजन पर लाखों रुपए खर्च कर रहा है. लेकिन इसमें भाग लेने वाले खिलाड़ियों को इसका कोई लाभ मिलता नहीं दिख रहा है और जनजाति वर्ग के इन खिलाड़ियों के लिए यह महज सिर्फ मनोरंजन ही साबित हो रहा है.

ये हैं जनजाति जिले...

सरकारी मान्यता के अनुसार डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, उदयपुर, सिरोही और बारां जनजाति बहुल क्षेत्र माने गए हैं. अर्थात यह सारे जिले ट्राइबल सब प्लान में आते हैं. जबकि प्रदेश में कई जिले ऐसे हैं, जहां पर बड़े पैमाने पर आदिवासी वर्ग के लोग निवासरत है. जिला खेल अधिकारी धनेश्वर मईडा के अनुसार यह सही है कि इसे 6 जिलों में होने के कारण राज्य सरकार दर्जा हासिल नहीं है. प्रदेश के सभी जिलों में आदिवासी वर्ग के लोग निवासरत है. ऐसे में सरकार को सारे जिलों को मिलाकर इस प्रकार की प्रतियोगिता का आयोजन करवाना चाहिए. इस दिशा में वे भी अपनी बात उच्चाधिकारियों तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे.

Intro:स्पेशल रिपोर्ट .......


बांसवाड़ा। राज्य स्तरीय जनजाति खेलकूद प्रतियोगिता के लिए प्रदेश के 6 जिलों के छात्रों द्वारा पसीना बहाया गया । लेकिन हम आपको बता दें कि यहां अपने बेहतर प्रदर्शन के दम पर जिन जिन खिलाड़ियों ने मेडल जीते हैं उस मेडल का सरकारी लिहाज से कोई मोल नहीं है । मेडल का दर्जा मनोरंजन तक ही सीमित है क्योंकि अब तक सरकार द्वारा इस प्रतियोगिता को किसी भी प्रकार की मान्यता नहीं दी गई है।


Body:हम 30 नवंबर से 2 दिसंबर तक बांसवाड़ा में आयोजित शक्ति राज्य स्तरीय जनजातीय खेल प्रतियोगिता की बात कर रहे हैं। इस प्रतियोगिता मैं बेहतर प्रदर्शन के लिए भले ही जनजाति वर्ग के छात्र छात्राओं ने अच्छा प्रदर्शन किया हो और मेडल भी मिले हो लेकिन सरकारी नजरों में उनकी वैल्यूएशन जीरो ही मानी जा रही है। पता चला है कि यह प्रतियोगिता सरकारी स्तर पर राज्य स्तर के रूप में मान्य नहीं है। अर्थात यहां अपने प्रदर्शन के बूते जिन जिन खिलाड़ियों ने मेडल लिए हैं और बेहतर प्रदर्शन किया है सरकारी स्तर पर उन्हें किसी भी प्रकार का लाभ नहीं मिलने वाला।


Conclusion:दबी जुबान में आयोजन से जुड़े कई लोग अपनी इस व्यथा को बताते दिखे। सूत्रों का कहना है कि क्योंकि यह 6 जिलों की प्रतियोगिता है इस कारण इसे राज्य स्तर की मान्यता नहीं है। जब तक प्रदेश के सभी जिलों के लिए इसका आयोजन नहीं होता तब तक इसे राज्य स्तर की मान्यता नहीं दी जा सकती जबकि अब तक राज्य स्तर के नाम पर यह छठ का आयोजन हो चुका है। हैरत की बात यह है कि राज्य क्रीड़ा परिषद हर साल इसके आयोजन पर लाखों रुपए खर्च कर रहा है लेकिन इस में भाग लेने वाले खिलाड़ियों को इसका कोई लाभ मिलता नहीं दिख रहा है और जनजाति वर्ग के इन खिलाड़ियों के लिए यह महज मनोरंजन साबित हो रहा है।

यह है जनजाति जिले

सरकारी मान्यता के अनुसार डूंगरपुर बांसवाड़ा प्रतापगढ़ उदयपुर सिरोही और बारा जनजाति बहुल माने गए हैं अर्थात यह सारे जिले ट्राईबल सब प्लान में आते हैं जबकि प्रदेश में कई जिले से हैं जहां पर बड़े पैमाने पर आदिवासी वर्ग के लोग निवासरत है। जिला खेल अधिकारी धनेश्वर मईडा के अनुसार यह सही है कि इसे 6 जिलों में होने के कारण राज्य सरकार दर्जा हासिल नहीं है। प्रदेश के सभी जिलों में आदिवासी वर्ग के लोग निवासरत है ऐसे में सरकार को सारे जिलों को मिलाकर इस प्रकार की प्रतियोगिता का आयोजन करवाना चाहिए। इस दिशा में हम भी अपनी बात उच्चाधिकारियों तक पहुंचाने का प्रयास करेंगे।

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