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5 में से 3 विकलांग संतानों का पालन कर रहे बांसवाड़ा के रमेश, नहीं मिल पा रही सरकारी मदद - बांसवाड़ा में विकलांग

बांसवाड़ा के गनोड़ा क्षेत्र के रहने वाले रमेश खेती बाड़ी करके अपने तीन विकलांग समेत 5 बच्चों का पालना पोषण कर रहे हैं. उन्होंने कई बार विकलांग बच्चों के लिए सरकार से मदद की गुहार लगाई है, बांसवाड़ा और उदयपुर के चक्कर लगाकर थक चुके हैं, लेकिन अभी तक उनको कोई सरकारी मदद नहीं मिली है. जबकि विकलांगों को सरकार द्वारा पेंशन देने का प्रावधान है.

Disabled in Banswara, बांसवाड़ा न्यूज
विकलांग बच्चों को नहीं मिल पा रही सरकारी मदद
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Published : Dec 24, 2019, 6:08 PM IST

बांसवाड़ा. सरकार विकलांग लोगों की मदद के लिए कई योजनाएं चला रही है. लेकिन गनोड़ा क्षेत्र के रमेश के लिए सरकारी मदद दूर की कौड़ी बन चुकी है. एक तो पेट भरने के लिए खेती-बाड़ी ही सहारा है तो दूसरी ओर 5 में से तीन संताने पूरी तरह से विकलांग हैं. किसी तरह रमेश और शारदा अपने बच्चों का लालन पालन कर रहे हैं. हालांकि रमेश ने सरकारी मदद के लिए कई बार गुहार लगाई है.

विकलांग बच्चों को नहीं मिल पा रही सरकारी मदद

सरकारी मदद के लिए विकलांग का सर्टिफिकेट अनिवार्य है और इस सर्टिफिकेट के लिए यह लोग गांव से बांसवाड़ा और बांसवाड़ा से उदयपुर तक के चक्कर लगा-लगा कर थक चुके हैं. कुल मिलाकर रमेश और शारदा अब हथियार डाल चुके हैं.

यह व्यथा है गनोड़ा इलाके के दूकवाड़ा गांव के आदिवासी रमेश और शारदा की. हालांकि कहने को इस दंपत्ति के पांच संताने हैं, लेकिन असल में तीन संतानें जन्म से ही विकलांगता का शिकार हैं. हाथ पैर के अलावा मानसिक और शारीरिक विकृति के शिकार 7 वर्ष के आकाश, 3 वर्षीय विनोद और 9 वर्षीय विक्रम को पालना इस दंपत्ति के लिए बस में नजर नहीं आ रहा है. जैसे-जैसे विकलांगता का शिकार यह बच्चे बड़े होते जा रहे हैं रमेश और शारदा की चिंता और भी बढ़ती जा रही है. हालांकि उसने इन बच्चों के इलाज के लिए उदयपुर में भी डॉक्टरों से संपर्क किया, लेकिन कहीं भी राहत नहीं मिली.

पढ़ें- स्पेशल रिपोर्ट: सड़क किनारे सुविधाओं के अभाव में गाड़िया लोहार, कब आएंगे इनके 'अच्छे दिन'

नियमानुसार इस प्रकार के विकलांगों को सरकार द्वारा प्रतिमाह पेंशन देने का प्रावधान है, लेकिन इसके लिए भी दस्तावेज जरूरी है. सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि अब तक इन बच्चों का आधार कार्ड और भामाशाह कार्ड तक नहीं बन पाया है. विकलांगता पेंशन के लिए 40 प्रतिशत से अधिक का सर्टिफिकेट होना आवश्यक है, जोकि बांसवाड़ा जिला मुख्यालय स्थित महात्मा गांधी चिकित्सालय में बनना मुश्किल नजर आ रहा है.

इन बच्चों में शारीरिक विकलांगता के साथ मेंटल और ईएनटी विशेषज्ञ की रिपोर्ट अनिवार्य है. इनमें से मेंटल को छोड़कर दो अन्य विशेषज्ञ डॉक्टरों के पद रिक्त हैं. इस कारण इन बच्चों का सर्टिफिकेट नहीं बन पा रहा है और यह लोग सरकारी मदद से दूर हैं. चाइल्ड हेल्पलाइन का कामकाज संभाल रहे कमलेश बुनकर, रमेश और शारदा को बच्चों सहित लेकर महात्मा गांधी चिकित्सालय पहुंचे लेकिन यहां से बच्चों को उदयपुर ले जाने की सलाह दी गई.

पढ़ें- अजमेर वन विभाग के लिए खुशखबरी: जिले के वन क्षेत्र में बढ़ रही पैंथरों की संख्या​​​​​​​

इन विकलांग बच्चों के पिता रमेश के अनुसार हमने इलाज के साथ-साथ दस्तावेज के लिए तमाम हाथ पैर मार लिए, लेकिन अब तक दस्तावेज बनता दिखाई नहीं दे रहा है. वहीं ग्राम पंचायत के ग्राम विकास अधिकारी धर्मेंद्र सिंह शक्तावत के अनुसार हम इन बच्चों के लिए ऑफलाइन पेंशन आवेदन कर सकते हैं. परंतु इसके लिए भी 40 प्रतिशत से अधिक विकलांगता का सर्टिफिकेट अनिवार्य है, जोकि फिलहाल उनके पास नहीं है. फिलहाल हम सर्टिफिकेट बनवाने का प्रयास कर रहे हैं.

बांसवाड़ा. सरकार विकलांग लोगों की मदद के लिए कई योजनाएं चला रही है. लेकिन गनोड़ा क्षेत्र के रमेश के लिए सरकारी मदद दूर की कौड़ी बन चुकी है. एक तो पेट भरने के लिए खेती-बाड़ी ही सहारा है तो दूसरी ओर 5 में से तीन संताने पूरी तरह से विकलांग हैं. किसी तरह रमेश और शारदा अपने बच्चों का लालन पालन कर रहे हैं. हालांकि रमेश ने सरकारी मदद के लिए कई बार गुहार लगाई है.

विकलांग बच्चों को नहीं मिल पा रही सरकारी मदद

सरकारी मदद के लिए विकलांग का सर्टिफिकेट अनिवार्य है और इस सर्टिफिकेट के लिए यह लोग गांव से बांसवाड़ा और बांसवाड़ा से उदयपुर तक के चक्कर लगा-लगा कर थक चुके हैं. कुल मिलाकर रमेश और शारदा अब हथियार डाल चुके हैं.

यह व्यथा है गनोड़ा इलाके के दूकवाड़ा गांव के आदिवासी रमेश और शारदा की. हालांकि कहने को इस दंपत्ति के पांच संताने हैं, लेकिन असल में तीन संतानें जन्म से ही विकलांगता का शिकार हैं. हाथ पैर के अलावा मानसिक और शारीरिक विकृति के शिकार 7 वर्ष के आकाश, 3 वर्षीय विनोद और 9 वर्षीय विक्रम को पालना इस दंपत्ति के लिए बस में नजर नहीं आ रहा है. जैसे-जैसे विकलांगता का शिकार यह बच्चे बड़े होते जा रहे हैं रमेश और शारदा की चिंता और भी बढ़ती जा रही है. हालांकि उसने इन बच्चों के इलाज के लिए उदयपुर में भी डॉक्टरों से संपर्क किया, लेकिन कहीं भी राहत नहीं मिली.

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नियमानुसार इस प्रकार के विकलांगों को सरकार द्वारा प्रतिमाह पेंशन देने का प्रावधान है, लेकिन इसके लिए भी दस्तावेज जरूरी है. सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि अब तक इन बच्चों का आधार कार्ड और भामाशाह कार्ड तक नहीं बन पाया है. विकलांगता पेंशन के लिए 40 प्रतिशत से अधिक का सर्टिफिकेट होना आवश्यक है, जोकि बांसवाड़ा जिला मुख्यालय स्थित महात्मा गांधी चिकित्सालय में बनना मुश्किल नजर आ रहा है.

इन बच्चों में शारीरिक विकलांगता के साथ मेंटल और ईएनटी विशेषज्ञ की रिपोर्ट अनिवार्य है. इनमें से मेंटल को छोड़कर दो अन्य विशेषज्ञ डॉक्टरों के पद रिक्त हैं. इस कारण इन बच्चों का सर्टिफिकेट नहीं बन पा रहा है और यह लोग सरकारी मदद से दूर हैं. चाइल्ड हेल्पलाइन का कामकाज संभाल रहे कमलेश बुनकर, रमेश और शारदा को बच्चों सहित लेकर महात्मा गांधी चिकित्सालय पहुंचे लेकिन यहां से बच्चों को उदयपुर ले जाने की सलाह दी गई.

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इन विकलांग बच्चों के पिता रमेश के अनुसार हमने इलाज के साथ-साथ दस्तावेज के लिए तमाम हाथ पैर मार लिए, लेकिन अब तक दस्तावेज बनता दिखाई नहीं दे रहा है. वहीं ग्राम पंचायत के ग्राम विकास अधिकारी धर्मेंद्र सिंह शक्तावत के अनुसार हम इन बच्चों के लिए ऑफलाइन पेंशन आवेदन कर सकते हैं. परंतु इसके लिए भी 40 प्रतिशत से अधिक विकलांगता का सर्टिफिकेट अनिवार्य है, जोकि फिलहाल उनके पास नहीं है. फिलहाल हम सर्टिफिकेट बनवाने का प्रयास कर रहे हैं.

Intro:बांसवाड़ा। सरकार विकलांग लोगों की मदद के लिए कई योजनाएं चला रही है लेकिन गनोड़ा क्षेत्र के रमेश के लिए सरकारी मदद दूर की कौड़ी बन चुकी है। एक तो पेट भरने के लिए खेती-बाड़ी ही सहारा तो दूसरी ओर 5 में से तीन संताने पूरी तरह से विकलांग। येन केन प्रकारेण रमेश और शारदा अपने बच्चों का लालन पालन कर रहे हैं। सरकारी मदद के लिए कई बार गुहार लगाई लेकिन उसके लिए विकलांग का सर्टिफिकेट अनिवार्य हैं और इस सर्टिफिकेट के लिए यह लोग गांव से बांसवाड़ा और बांसवाड़ा से उदयपुर तक के चक्कर लगा लगा कर थक चुके हैं। कुल मिलाकर रमेश और शारदा अब हथियार डाल चुके हैं।


Body:यह व्यथा है गनोड़ा इलाके के दूकवाड़ा गांव के आदिवासी रमेश और शारदा की। हालांकि कहने को इस दंपत्ति के पांच संताने हैं लेकिन असल में तीन संताने जन्म से ही विकलांगता का शिकार है। हाथ पैर के अलावा मानसिक और शारीरिक विकृति के शिकार 7 वर्ष की आकाश 3 वर्षीय विनोद और 9 वर्षीय विक्रम को पालना इस दंपत्ति के लिए बस में नजर नहीं आ रहा है। 7 सदस्यों के परिवार पूरी तरह से खेती-बाड़ी पर निर्भर है। जैसे-जैसे विकलांगता का शिकार यह बच्चे बड़े होते जा रहे हैं रमेश और शारदा की चिंता और भी बढ़ती जा रही है। हालांकि उसने इन बच्चों के इलाज के लिए उदयपुर में भी डॉक्टरों से संपर्क किया लेकिन कहीं भी राहत नहीं मिली और अंततः गांव लौटना पड़ा।


Conclusion:नियमानुसार इस प्रकार के विकलांगों को सरकार द्वारा प्रतिमाह पेंशन देने का प्रावधान है लेकिन इसके लिए भी दस्तावेज जरूरी है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि अब तक इन बच्चों का आधार कार्ड और भामाशाह काट तक नहीं बन पाया है। विकलांगता पेंशन के लिए 40% से अधिक का सर्टिफिकेट होना आवश्यक है जोकि बांसवाड़ा जिला मुख्यालय स्थित महात्मा गांधी चिकित्सालय में बनना मुश्किल नजर आ रहा है। इन बच्चों में शारीरिक विकलांगता के साथ साथ मेंटल और ईएनटी विशेषज्ञ की रिपोर्ट अनिवार्य है। इनमें से मेंटल को छोड़कर दो अन्य विशेषज्ञ डॉक्टरों के पद रिक्त है। इस कारण इन बच्चों का सर्टिफिकेट नहीं बन पा रहा है और यह लोग सरकारी मदद से दूर है। चाइल्ड हेल्पलाइन का कामकाज संभाल रहे कमलेश बुनकर रमेश और शारदा को बच्चों सहित लेकर महात्मा गांधी चिकित्सालय पहुंचे लेकिन यहां से बच्चों को उदयपुर ले जाने की सलाह दी गई। इन विकलांग बच्चों के पिता रमेश के अनुसार हमने इलाज के साथ-साथ दस्तावेज के लिए तमाम हाथ पैर मार लिए लेकिन अब तक दस्तावेज बनता दिखाई नहीं दे रहा है। वही ग्राम पंचायत के ग्राम विकास अधिकारी धर्मेंद्र सिंह शक्तावत के अनुसार हम इन बच्चों के लिए ऑफलाइन पेंशन आवेदन कर सकते हैं परंतु इसके लिए भी 40% से अधिक विकलांगता का सर्टिफिकेट अनिवार्य है जोकि फिलहाल उनके पास नहीं है। फिलहाल हम सर्टिफिकेट बनवाने का प्रयास कर रहे हैं।

बाइट...... रमेश
विकलांग बच्चों के पिता

......... धर्मेंद्र सिंह शक्तावत
ग्राम विकास अधिकारी ग्राम पंचायत गनोड़ा
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