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स्पेशल: यहां हर 2 दिन में भर्ती होने वाले 15 में से 14 बच्चे स्वस्थ्य होकर लौटते हैं घर - Banswara special report

कोटा में हुए बच्चों की मौत के मामले ने हर चिकित्सालय की सुविधाओं पर सवाल उठाए हैं. लेकिन बांसवाड़ा में एक ऐसा सरकारी हॉस्पिटल जहां पर हर 2 दिन में 15 बच्चे भर्ती होते हैं, जिनमें से 14 बच्चे स्वस्थ होकर घर लौटते हैं.

बांसवाड़ा जिला चिकित्सालय, Banswara news
बांसवाड़ा के जिला चिकित्सालय में बच्चों को मिल रही सुविधा...
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Published : Jan 7, 2020, 3:19 PM IST

बांसवाड़ा. जहां एक ओर कोटा के जेके लोन हॉस्पिटल में नवजात बच्चों की मौत का सिलसिला थम नहीं रहा है. वहीं दूसरी ओर बांसवाड़ा के सबसे बड़े सरकारी हॉस्पिटल में हर 2 दिन में 15 बच्चे भर्ती होते हैं, जिनमें से 14 बच्चे स्वस्थ होकर घर लौटते रहे हैं. क्योंकि बांसवाड़ा जिला चिकित्सालय प्रबंधन बच्चों की चिकित्सा व्यवस्था को लेकर काफी सतर्क है. इसके तहत चिकित्सालय कई प्रकार की छोटी बड़ी खामियों को दुरुस्त करवाया है.

बांसवाड़ा के जिला चिकित्सालय में बच्चों को मिल रही सुविधा...

यदि हम इस हॉस्पिटल के स्पेशल न्यू बोर्न चाइल्ड यूनिट के आंकड़ों पर नजर डाले तो आदिवासी अंचल में होने के बावजूद प्रदेश के गिने-चुने हॉस्पिटल मे शुमार किया जा सकता है. साल 2019 में एसएनसीयू में कुल 2 हजार 651 नवजात भर्ती कराए गए थे, अर्थात प्रतिमाह 220 नवजात बच्चे स्पेशल यूनिट में लाए गए थे.

वहीं आंकड़े बताते हैं कि साल 2019 में 180 बच्चे तमाम प्रयासों के बावजूद नहीं बचाया जा सके. इस प्रकार यहां भर्ती कराए जाने यहां हर 2 दिन में भर्ती कराए जाने वाले 15 बच्चों में से एक बच्चे की मौत हो रही है, जो कि साधन सुविधाओं की कमी के बावजूद आदिवासी बाहुल्य इस इलाके के लिए संतोषजनक आंकड़ा कहा जा सकता है. हालांकि बच्चों की मौत का आंकड़ा कुल भर्ती कराए जाने वाले बच्चों के मुकाबले 6 से 7 प्रतिशत के बीच बैठ रहा है. हॉस्पिटल प्रबंधन का कहना है कि विशेषज्ञ चिकित्सकों एवं स्टाफ के साथ इंस्ट्रुमेंट्स आदि का विस्तार किया जाए तो इसमें और भी कमी लाई जा सकती है.

पढ़ेंः बांसवाड़ा में एसीबी की बड़ी कार्रवाई, 9 हजार की रिश्वत लेते डॉक्टर और लैब टेक्निशियन गिरफ्तार

18 बेड और 30 का लोड...

चिकित्सालय में न्यू बोर्न बेबी के लिए अट्ठारह बेड की एक पूरी यूनिट है, लेकिन इसके मुकाबले यहां 30-35 बच्चे पहुंचते हैं. कई बार एक-एक वार्मर पर दो-दो, तीन-तीन बच्चों को भर्ती करना पड़ता है. ऐसे में इन पर संक्रमण का खतरा भी बना रहता है. क्रिटिकल स्टेज पर बच्चों को उदयपुर रेफर करना पड़ता है. बच्चों की संख्या को देखते हुए यहां 6 बाल विशेषज्ञों की जरूरत है, लेकिन वर्तमान में चार विशेषज्ञ चिकित्सक कार्यरत हैं.

प्रतापपुर सीएचसी में बाल चिकित्सक...

प्रतापपुर को छोड़कर जिलेभर में किसी भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में बाल विशेषज्ञ नहीं है. ऐसे में जिलेभर से आने वाले बच्चों के लिए यही एकमात्र चिकित्सा केंद्र है और यहां बच्चों के लाए जाने का क्रम बना रहता है. ग्रामीण क्षेत्र में बाल विशेषज्ञ की नियुक्ति कर दी जाए तो मरने वाले बच्चों की संख्या को और भी कम किया जा सकता है.

पढ़ेंः पंचायत चुनाव में भाग्य आजमा रहे हैं.. ये हैं जरूरी दस्तावेज

बचाया जा सकता है बच्चों को...

महात्मा गांधी चिकित्सालय के प्रमुख चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर नंदलाल चरपोटा के अनुसार गांव में बाल चिकित्सकों की भारी कमी है. इस कारण हर कोने से बच्चों को यहां लाया जाता है. सबसे बड़ी दुविधा यह है कि लोग अभी भी स्वास्थ्य को लेकर जागरूक नहीं है और क्रिटिकल स्टेज में बच्चों को लेकर यहां पहुंचते हैं. यदि समय पर ट्रीटमेंट मिल जाए तो बच्चों की मौत के आंकड़े को और भी कम किया जा सकता है. हमारे यहां पर केवल चार विशेषज्ञ चिकित्सक है जबकि जरूरत 6 चिकित्सकों की है. विशेषज्ञ चिकित्सक, स्टाफ और संसाधन उपलब्ध करा दिया जाए तो और भी बच्चों को बचाया जा सकता है.

बांसवाड़ा. जहां एक ओर कोटा के जेके लोन हॉस्पिटल में नवजात बच्चों की मौत का सिलसिला थम नहीं रहा है. वहीं दूसरी ओर बांसवाड़ा के सबसे बड़े सरकारी हॉस्पिटल में हर 2 दिन में 15 बच्चे भर्ती होते हैं, जिनमें से 14 बच्चे स्वस्थ होकर घर लौटते रहे हैं. क्योंकि बांसवाड़ा जिला चिकित्सालय प्रबंधन बच्चों की चिकित्सा व्यवस्था को लेकर काफी सतर्क है. इसके तहत चिकित्सालय कई प्रकार की छोटी बड़ी खामियों को दुरुस्त करवाया है.

बांसवाड़ा के जिला चिकित्सालय में बच्चों को मिल रही सुविधा...

यदि हम इस हॉस्पिटल के स्पेशल न्यू बोर्न चाइल्ड यूनिट के आंकड़ों पर नजर डाले तो आदिवासी अंचल में होने के बावजूद प्रदेश के गिने-चुने हॉस्पिटल मे शुमार किया जा सकता है. साल 2019 में एसएनसीयू में कुल 2 हजार 651 नवजात भर्ती कराए गए थे, अर्थात प्रतिमाह 220 नवजात बच्चे स्पेशल यूनिट में लाए गए थे.

वहीं आंकड़े बताते हैं कि साल 2019 में 180 बच्चे तमाम प्रयासों के बावजूद नहीं बचाया जा सके. इस प्रकार यहां भर्ती कराए जाने यहां हर 2 दिन में भर्ती कराए जाने वाले 15 बच्चों में से एक बच्चे की मौत हो रही है, जो कि साधन सुविधाओं की कमी के बावजूद आदिवासी बाहुल्य इस इलाके के लिए संतोषजनक आंकड़ा कहा जा सकता है. हालांकि बच्चों की मौत का आंकड़ा कुल भर्ती कराए जाने वाले बच्चों के मुकाबले 6 से 7 प्रतिशत के बीच बैठ रहा है. हॉस्पिटल प्रबंधन का कहना है कि विशेषज्ञ चिकित्सकों एवं स्टाफ के साथ इंस्ट्रुमेंट्स आदि का विस्तार किया जाए तो इसमें और भी कमी लाई जा सकती है.

पढ़ेंः बांसवाड़ा में एसीबी की बड़ी कार्रवाई, 9 हजार की रिश्वत लेते डॉक्टर और लैब टेक्निशियन गिरफ्तार

18 बेड और 30 का लोड...

चिकित्सालय में न्यू बोर्न बेबी के लिए अट्ठारह बेड की एक पूरी यूनिट है, लेकिन इसके मुकाबले यहां 30-35 बच्चे पहुंचते हैं. कई बार एक-एक वार्मर पर दो-दो, तीन-तीन बच्चों को भर्ती करना पड़ता है. ऐसे में इन पर संक्रमण का खतरा भी बना रहता है. क्रिटिकल स्टेज पर बच्चों को उदयपुर रेफर करना पड़ता है. बच्चों की संख्या को देखते हुए यहां 6 बाल विशेषज्ञों की जरूरत है, लेकिन वर्तमान में चार विशेषज्ञ चिकित्सक कार्यरत हैं.

प्रतापपुर सीएचसी में बाल चिकित्सक...

प्रतापपुर को छोड़कर जिलेभर में किसी भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में बाल विशेषज्ञ नहीं है. ऐसे में जिलेभर से आने वाले बच्चों के लिए यही एकमात्र चिकित्सा केंद्र है और यहां बच्चों के लाए जाने का क्रम बना रहता है. ग्रामीण क्षेत्र में बाल विशेषज्ञ की नियुक्ति कर दी जाए तो मरने वाले बच्चों की संख्या को और भी कम किया जा सकता है.

पढ़ेंः पंचायत चुनाव में भाग्य आजमा रहे हैं.. ये हैं जरूरी दस्तावेज

बचाया जा सकता है बच्चों को...

महात्मा गांधी चिकित्सालय के प्रमुख चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर नंदलाल चरपोटा के अनुसार गांव में बाल चिकित्सकों की भारी कमी है. इस कारण हर कोने से बच्चों को यहां लाया जाता है. सबसे बड़ी दुविधा यह है कि लोग अभी भी स्वास्थ्य को लेकर जागरूक नहीं है और क्रिटिकल स्टेज में बच्चों को लेकर यहां पहुंचते हैं. यदि समय पर ट्रीटमेंट मिल जाए तो बच्चों की मौत के आंकड़े को और भी कम किया जा सकता है. हमारे यहां पर केवल चार विशेषज्ञ चिकित्सक है जबकि जरूरत 6 चिकित्सकों की है. विशेषज्ञ चिकित्सक, स्टाफ और संसाधन उपलब्ध करा दिया जाए तो और भी बच्चों को बचाया जा सकता है.

Intro:बांसवाड़ा। कोटा के जेके लोन हॉस्पिटल में नवजात बच्चों की मौत का सिलसिला थम नहीं रहा है। 34 दिनों में 106 बच्चों की मौत अर्थात प्रतिदिन 3 बच्चे मौत के मुंह में जा रहे हैं जबकि वहां हर प्रकार के साधन सुविधाएं उपलब्ध है। वही पिछड़े माने जाने वाले बांसवाड़ा के सबसे बड़े सरकारी हॉस्पिटल में हर 2 दिन में 15 बच्चे भर्ती होते हैं और 14 बच्चे स्वस्थ होकर घर लौटते हैं। अर्थात हर दूसरे दिन एक बच्चे की मौत हो जाती है। इसका मुख्य कारण ग्रामीण क्षेत्र में लोगों की स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की कमी होना माना गया है जो अंतिम समय में बच्चों को लेकर हॉस्पिटल पहुंचते हैं।


Body:हालांकि जब से कोटा का मामला सुर्खियों में आया है अन्य अस्पतालों की तरह बांसवाड़ा जिला चिकित्सालय प्रबंधन भी बच्चों की चिकित्सा व्यवस्था को लेकर सतर्क हो गया है और कई प्रकार की छोटी बड़ी खामियों को दुरुस्त किया गया है। अब यदि हम इस हॉस्पिटल के स्पेशल न्यू बोर्न चाइल्ड यूनिट के आंकड़ों पर नजर डाले तो आदिवासी अंचल में होने के बावजूद प्रदेश के गिने-चुने हॉस्पिटल मे शुमार किया जा सकता है। वर्ष 2019 में एसएनसीयू में कुल 2651 नवजात भर्ती कराए गए थे अर्थात प्रतिमाह 220 नवजात बच्चे स्पेशल यूनिट में लाए गए थे। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2019 में 180 बच्चे तमाम प्रयासों के बावजूद नहीं बचाया जा सके। इस प्रकार यहां भर्ती कराए जाने यहां हर 2 दिन में भर्ती कराए जाने वाले 15 बच्चों में से एक बच्चे की मौत हो रही है। जोकि साधन सुविधाओं की कमी के बावजूद आदिवासी बाहुल्य इस इलाके के लिए संतोषजनक आंकड़ा कहा जा सकता है।


Conclusion:हालांकि बच्चों की मौत का आंकड़ा कुल भर्ती कराए जाने वाले बच्चों के मुकाबले 6 से 7 प्रतिशत के बीच बैठ रहा है। हॉस्पिटल प्रबंधन का कहना है कि विशेषज्ञ चिकित्सकों एवं स्टाफ के साथ इंस्ट्रुमेंट्स आदि का विस्तार किया जाए तो इसमें और भी कमी लाई जा सकती है।

18 बेड और 30 का लोड

चिकित्सालय में न्यू बोर्न बेबी के लिए अट्ठारह बेड की एक पूरी यूनिट है लेकिन इसके मुकाबले यहां 30-35 बच्चे पहुंचते हैं। कई बार एक एक वार्मर पर दो-दो ,तीन-तीन बच्चों को भर्ती करना पड़ता है। ऐसे में इन पर संक्रमण का खतरा भी बना रहता है। क्रिटिकल स्टेज पर बच्चों को उदयपुर रेफर करना पड़ता है। बच्चों की संख्या को देखते हुए यहां 6 बाल विशेषज्ञों की जरूरत है लेकिन वर्तमान में चार विशेषज्ञ चिकित्सक कार्यरत हैl

गांवों में केवल प्रतापपुर सीएचसी में बाल चिकित्सक

प्रतापपुर को छोड़कर जिलेभर में किसी भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में बाल विशेषज्ञ नहीं है। ऐसे में जिलेभर से आने वाले बच्चों के लिए यही एकमात्र चिकित्सा केंद्र है और यहां बच्चों के लाए जाने का क्रम बना रहता है। ग्रामीण क्षेत्र में बाल विशेषज्ञ की नियुक्ति कर दी जाए तो मरने वाले बच्चों की संख्या को और भी कम किया जा सकता है। महात्मा गांधी चिकित्सालय के प्रमुख चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर नंदलाल चरपोटा के अनुसार गांव में बाल चिकित्सकों की भारी कमी है इस कारण हर कोने से बच्चों को यहां लाया जाता है। सबसे बड़ी दुविधा यह है कि लोग अभी भी स्वास्थ्य को लेकर जागरूक नहीं है और क्रिटिकल स्टेज में बच्चों को लेकर यहां पहुंचते हैं। यदि समय पर ट्रीटमेंट मिल जाए तो बच्चों की मौत के आंकड़े को और भी कम किया जा सकता है। हमारे यहां पर केवल चार विशेषज्ञ चिकित्सक है जबकि जरूरत 6 चिकित्सकों की है। विशेषज्ञ चिकित्सक और स्टाफ तथा संसाधन उपलब्ध करा दिया जाए तो और भी बच्चों को बचाया जा सकता है।

बाइट...... रेखा प्रकाश
........ गुड्डी मोहन
.......... डॉक्टर नंदलाल चरपोटा प्रमुख चिकित्सा अधिकारी महात्मा गांधी चिकित्सालय बांसवाड़ा

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