अलवर. वैसे तो अलवर में कई प्रमुख पर्यटन स्थल है लेकिन फतह गंज का गुंबद अपनी खास पहचान रखता है (Alwar Fateh jang Gumbad). 5 मंजिला इमारत अपनी बनावट कला के चलते राजपूत व मुगल शैली की याद दिलाती है. प्रत्येक दिशा में 5 दरवाजे और दो खिड़कियां हैं. पांचवी मंजिल पर एक ही आकार के 28 दरवाजे भी हैं. रेलवे स्टेशन के पास ही मौजूद है स्थापत्य कला का ये बेजोड़ नमूना और अलवर से गुजरने वाली ट्रेनों के मुसाफिरों को दिख जाता है.
स्मारक मुगल शासक शाहजहां के एक मंत्री फतेह जंग को समर्पित है. भवन पांच मंजिला है. ये मुगल और राजपूत स्थापत्य शैली का मिश्रण बताया जाता है. जिसमें मुगलिया अंदाज का गुंबद है तो राजपूती शैली में वर्गाकार है और चारों ओर छज्जे, खिड़कियां और गुंबद पर छत्री भी बनी हैं. कैलिग्राफी का बेहतरीन नमूना दीवारों पर खुदी कुरान की आयतों में दिखता है साथ ही विभिन्न मालों पर दीवारों पर कुरेदे फूल भी दिखते हैं- ये राजपूताना शैली की पहचान हैं.
पांच मंजिला स्मारक- मकबरे का निर्माण 1647 में हुआ था. फतेह जंग एक पठान योद्धा थे. अलवर के खानजादा शासकों से संबंधित थे और यहां के गर्वनर भी. एक विशाल चबूतरे पर 5 माला इमारत पर गुंबद को स्थापित किया गया है. प्रत्येक दिशा में 5 दरवाजे और दो खिड़की हैं. पांचवी मंजिल पर एक ही आकार के 28 दरवाजे हैं. पहली व दूसरी मंजिल की दीवारों पर कुरान की आयतें लिखी हुई है. दूसरी मंजिल पर कोई सजावट नहीं है. लेकिन तीसरी मंजिल पर पत्र पुष्प वल्लरियों से सजावट है. सबसे ऊपर 5 स्तंभों पर टिकी एक छोटी छतरी बनी हुई है. फतह गंज गुंबद के तीनों तरफ खुला गार्डन बना हुआ है.
देवनागरी में लिखा इतिहास- पहली मंजिल के एक कोने में देवनागरी अक्षरों में एक लेख लिखा है. उसके अनुसार 1604 में फतेह जंग का निधन हुआ. उनकी स्मृति में इस गुंबद का निर्माण कराया गया. फतेह सिंह हसन खां मेवाती के वंशज थे और वो पांचवी मुगल सम्राट शासक के दरबार में सबसे भरोसेमंद मंत्री थे. मकबरे में प्रवेश करने के लिए बड़े और भारी लकड़ी के दरवाजे बने हुए हैं. दीवारों पर फूल पत्ती बनी हुई है. इनके रंग आज भी नजर आते हैं.
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प्रशासन की अनदेखी के भी निशान- ये ऐतिहासिक धरोहर अनदेखी का शिकार भी कम नहीं हुआ है. वो भी तब जब इसे देखने लोग विदेशों से भी आते हैं. कुछ साल पहले तक हालात और भी खराब थे. एक स्कूल चलता था. कष्ट होता है देखकर कि गुंबद की दीवारें क्षतिग्रस्त हो रही हैं. कुछ लोगों ने आवाज उठाई तो जिम्मेदारों की नजर पड़ी. अब इसकी सुध ली जाने लगी है और मरम्मत कराई जा रही है ताकि जो बचा है उसको संजो कर रखा जा सके.
इतिहास के झरोखे से- इतिहासकारों की मानें तो अलवर और उसके आसपास के इलाकों में यदुवंशी राजपूतों का शासन था. इन शासकों में से एक राजा सोनपाल 1372 से 1402 तक शासक रहे. उस समय फिरोजशाह तुगलक 1351 से 1388 के शासनकाल के दौरान राजा सोनपाल ने धर्म परिवर्तन किया वो हिंदू धर्म मुसलमान बन गए. राजा सोनपाल को खान या प्रभुत्व के समकक्ष की उपाधि दी गई. फिर इन्हें खानजादा राजपूत का नाम मिला.
खानजादा उत्तर और पश्चिम भारत में मुस्लिम राजपूतों में शामिल करने वाले कई समुदायों में से एक थे. उस समय मेवात क्षेत्र में हरियाणा का नूह और राजस्थान का अलवर और भरतपुर शामिल था. अलवर मेवात की राजधानी थी. मेवात के अंतिम खानजादा राजपूत शासक हसन खान मेवाती का शासन 1504 से 1527 के बीच रहा. उस समय बाबर की आक्रमणकारी सेना ने भारत में अफगान और राजपूतों की संयुक्त सेना का सामना किया. खानजादा हसन खां मेवाती ने राजपूत सेना में शामिल हो मेवाड़ के राणा सांगा के नेतृत्व में लड़ाई लड़ी. फतेह जंग हसन खां मेवाती के वंशज थे. 1647 ईस्वी में अलवर के गवर्नर फतेह सिंह की मृत्यु हुई. उसके कुछ ही समय बाद उनका मकबरा बनाया गया.