कोटा. रामगंजमंडी निवासी मूकबधिर 15 वर्षीय बालिका गौरांशी ने ब्राजील में डीफ ओलंपिक में झंडे गाड़ते हुए बैडमिंटन में गोल्ड मेडल जीतकर देश का नाम ऊंचा किया (Goranshi Sharma won gold medal in deaf olympics) है. ओलंपिक में गोल्ड जीतने वाली गौरांशी की कहानी दिलचस्प है. बालिका के मां-बाप भी मूक बधिर हैं. केवल बालिका को पढ़ाने और उसे अच्छा स्पोर्ट्सपर्सन बनाने के लिए अपने घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर भोपाल में रह रहे हैं. उनका एक ही लक्ष्य है कि बेटी स्पोर्ट्स में नाम कमाए. उसके पिता गौरव का भी सपना स्पोर्ट्समैन बनने का था, लेकिन परिवार की स्थितियों के चलते वैसा नहीं कर पाए, लेकिन उनके घर में जब मूकबधिर बच्ची पैदा हुई, तभी तय कर लिया था कि उसे बुलंदियों की ऊंचाई पर पहुंचाना है. वे करीब 11 साल से बच्ची के साथ भोपाल में मेहनत कर रहे हैं.
स्टेमिना के लिए भी तगड़ी प्रैक्टिस: स्पोर्ट्सपर्सन बनाने के लिए गौरांशी रोज 25 किलोमीटर साइकिलिंग, 5 किलोमीटर रनिंग और कई किलोमीटर की वाकिंग करती है. वह घंटों बैडमिंटन कोर्ट पर प्रैक्टिस करती है. उसके मां-पिता उसका पूरा ध्यान रखते हैं. कोविड-19 के चलते भोपाल में स्कूल बंद हो गया है. ऐसे में गौरांशी भी अपने माता-पिता के साथ कोटा और रामगंजमंडी आकर रहने लगी, लेकिन यहां भी उसके पिता गौरव ने मेहनत नहीं छोड़ी. बेटी को लगातार प्रैक्टिस करवाते रहे. यहां तक कि उसका स्टेमिना बरकरार रखने के लिए साइकिलिंग और वाकिंग के साथ-साथ रनिंग की प्रैक्टिस भी जारी रही. ब्राजील का डिफ ओलंपिक 2021 में होना था, लेकिन 1 साल कोविड-19 की वजह से टल गया.
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साइना नेहवाल को देख कर रुक जाती थी: गौरांशी की दादी हेमलता का कहना है कि गौरांशी 7 साल की उम्र में ही अच्छी तैराक बन गई थी. वह उससे बढ़ी उम्र के बच्चों से भी अच्छी तैराकी कर लेती थी. जब गौरव उसे लेकर स्विमिंग पूल से वापस लौटते थे तो वह उसी स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स में बैडमिंटन खेलते हुए बच्चों को देखते हुए जाती थी. यहां तक कि साइना नेहवाल के फोटो को देखते हुए उस पर इशारा करती थी कि मुझे यह खेलना है. उसके बाद उसके पिता ने तय किया कि गौरांशी की इच्छा के अनुसार उसे बैडमिंटन सिखाएंगे. उन्होंने घर पर ही पंखे से एक कोक लटका प्रैक्टिस करवाई.
मंत्री के हस्तक्षेप के बाद मिली एंट्री : गौरव चाहते थे कि गौरांशी बैडमिंटन अकेडमी में एडमिशन ले. उसको लेकर भोपाल के सरकारी स्पोर्ट्स कॉम्प्लेक्स भी गए. जहां पर मूकबधिर होने के चलते उसे प्रवेश नहीं मिल पाया. माता-पिता भी मूकबधिर थे. ऐसे में ट्रेनिंग कोच रश्मि मालवीय ने इनकार कर दिया. उसने हवाला दिया कि सब बच्चे नॉर्मल हैं, सुन सकते हैं लेकिन वह मूकबधिर बच्ची को कैसे सिखा सकती है. इसके बाद उच्चाधिकारियों ने गौरव की बात को समझा और मध्य प्रदेश की तत्कालीन खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया से बातचीत कर उन्हें एंट्री दिलाई गई.
अब इंटरनेशनल प्रतियोगिताओं में दिखा रही दमखम: गौरांशी ने तात्या टोपे स्पोर्ट्स एकेडमी में प्रवेश मिलने के बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा. उसकी कोच रश्मि मालवीय ने भी मूक बधिर बच्चों की साइन लैंग्वेज को सीखा और उसी के जरिए ट्रेनिंग दी. एक के बाद एक प्रतियोगिता में गौरांशी आगे बढ़ती रही. पहले स्टेट, फिर नेशनल और इसके बाद इंटरनेशनल प्रतियोगिताओं में भी वह भाग ले रही है. ब्राजील ओलंपिक में गोल्ड जीतने के पहले ताईवान में अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में बतौर भारतीय खिलाड़ी भाग ले चुकी हैं. ब्राजील डिफ ओलंपिक के लिए चयन में भी उसने हजारों बच्चों को पीछे छोड़कर सलेक्शन पाया था.
गौरव और प्रीति के त्याग से ही सफल हुई गौरांशी: गौरव के बड़े भाई सौरभ का कहना है कि गौरव कोई जॉब नहीं करता है. हमारे कई रिश्तेदार और पड़ोसी टॉर्चर करते थे. कहते थे कि इसको कोई छोटा मोटा बिजनेस शुरू करवा दो. कोई गाड़ी दिलवा दो, जिसे यह चला सके, लेकिन हमने ऐसा नहीं किया. गौरव की भी इच्छा थी कि वह अपनी बेटी को पढ़ाए और स्पोर्ट्स पर्सन बनाए. इसके लिए भोपाल उसके साथ फ्लैट लेकर रहने लगा, लेकिन रिश्तेदार कहते थे कि भोपाल में क्या कर रहा है, उसे वापस बुला लीजिए. यहां पर रहेगा तो कुछ कर लेगा और काफी परेशान भी किया, लेकिन आज गौरव की बेटी गौरांशी ने ओलंपिक में गोल्ड जीतकर सबको नतमस्तक कर दिया है. यह सब कुछ गौरव और प्रीति के त्याग से ही हुआ है.
मां-पिता की स्कूल से शुरू हुई प्रेम कहानी: रामगंजमंडी निवासी प्रमोद और हेमलता शर्मा के बेटे गौरव जन्मजात मूकबधिर हैं. परिवारजनों व रिश्तेदारों ने गौरव की चिंता की और उन्हें स्कूल की शिक्षा कैसे मिले, इसके लिए प्रयास शुरू कर दिए. चार साल की छोटी उम्र में भोपाल के आशा निकेतन स्कूल में उनका दाखिला करवा दिया. जिस दिन गौरव का दाखिला हो रहा था, उसी दिन कानपुर निवासी प्रीति गुप्ता भी एडमिशन लेने पहुंची. यह भी गौरव की तरह मूकबधिर थी. प्रीति और गौरव की क्लास एक थी, दोनों अलग-अलग हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करने लगे. कक्षा 10 तक साथ पढ़े. दोनों की दोस्ती गहरी होती गई. बाद में जब दोनों अपने घर आ गए तो एक दूसरे की याद सताने लगी और खाना भी नहीं खाते थे. जब दोनों से बात की गई तो उन्होंने एक दूसरे के साथ रहने की बात कही और आखिर में परिजनों ने दोनों की जिद के आगे झुक कर इनका विवाह 2004 में करवा दिया. हालांकि जब दोनों के 2007 में गौरांशी पैदा हुई तो वह भी मूकबधिर थी, तब पूरे परिवार को धक्का लगा.
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मौत के मुंह से निकल कर आई थी 2009 में गौरांशी: गौरांशी के दादा प्रमोद शर्मा का कहना है कि घर में खेलते समय गौरांशी ने कई लीटर गर्म दूध अपने पर उड़ेल लिया था. जिससे काफी ज्यादा झुलस गई. काफी ज्यादा झुलस जाने के चलते वह अस्पताल में करीब 1 महीने तक अस्पताल में भर्ती रही. इसके बाद घर पर भी लंबे समय तक उसका उपचार चला. आइसोलेट रखा गया. काफी समय बाद वह ठीक हुई. प्रमोद का कहना है कि अभी भी उसे पानी से कुछ प्रॉब्लम होने लग जाती है. उनका कहना है कि गौरव से उन्होंने कोई काम नहीं करवाया. गौरव की भी इच्छा यह है कि वह अपनी बेटी को अच्छे मुकाम पर देखना चाहता है. इसीलिए उनको भोपाल में फ्लैट और अन्य सुविधाएं दिलाई मुहैया करवाई गई. गौरांशी स्कूल जाती है और वहां से फ्री होने के बाद स्पोर्ट्स अकेडमी में प्रैक्टिस करती है. इनका पूरा खर्च उनका परिवार उठाता है.