जयपुर. भारतीय सैनिकों के अदम्य साहस और पराक्रम के कारण ही 26 जुलाई को पाकिस्तान के नापाक मंसूबे ध्वस्त हो गए थे. वीर सैनिकों ने टाइगर हिल समेत अन्य चोटियों को मुक्त कराकर विजय का तिरंगा फहराया था. सबसे लंबे चले इस युद्ध में राजस्थान की माटी के एक मां के तीन सपूत एकसाथ युद्ध लड़ रहे थे. उनमें एक सपूत ऐसा भी था, जिसने दुश्मनों के सारे मंसूबों को नेस्तनाबूत कर कर दिया था. ऐसे महावीर चक्र विजेता दिगेंद्र सिंह उर्फ कमांडो कोबरा से ईटीवी भारत ने खास बातचीत की..
26 जुलाई 2020 को कारगिल विजय दिवस के 21 साल पूरे हो रहे हैं. भारतीय सेना ने साल 1999 में पाक के नापाक मंसूबों को मुंहतोड़ जवाब दिया था. मई से जुलाई 1999 के बीच करीब दो महीने तक यह ऑपरेशन चला था. जिसको ऑपरेशन विजय नाम दिया गया. इसमें पहली जीत राजस्थान की उस माटी के लाल ने दिलाई, जिसे इंडियन आर्मी में 'कोबरा' के नाम से जाना जाता है. इंडियन आर्मी के सबसे खतरनाक कोबरा कमांडो में शामिल दिगेंद्र सिंह ने कारगिल में अदम्य साहस और वीरता का ऐसा उदाहरण पेश किया, जिस पर हिंदुस्तान को आज भी गर्व है और आने वाली कई पीढ़ियां उनकी बहादुरी से प्रेरित होंगी. 5 गोलियां खाने वाले दिगेंद्र ने पाकिस्तान के 48 फौजी मारे और एक पाक मेजर को मौत के घाट उतार दिया.
दिगेंद्र सिंह सीकर के नीमकाथाना के पास छोटे से गांव दयाल की नांगल के रहने वाले हैं. कारगिल युद्ध के बारे में याद करते हुए दिगेंद्र सिंह बताते हैं कि मई 1999 में पाक के हजारों सैनिकों ने घुसपैठ कर कारगिल युद्ध स्मारक के ठीक सामने स्थित तोलिलिंग की पहाड़ी पर कब्जा जमा लिया था. तोलोलिंग को मुक्त करवाने में भारतीय सेना के तीन यूनिट फेल हो गई थी. एक यूनिट के 18, दूसरी के 22 और तीसरी 28 भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे. तोलोलिंग पर विजय पाना भारतीय सेना के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया था. तब भारतीय सेना की सबसे बेहतरीन बटालियन को तोलोलिंग को मुक्त करवाने की जिम्मेदारी सौंपी गई.
300 किलोमीटर दूर कुपवाड़ा से दो राज रिफ बटालियन को बुलाया गया और जिम्मेदारी दी गई कि वे इस ऑपरेशन को अंजाम देंगे. इसमें दिगेंद्र भी शामिल थे. जब उनकी टुकड़ी तोलोलिंग के पास पहुंची तो उनके आर्मी चीफ कमांडर रविंद्र नाथ से सवाल किया गया कि उनकी बटालियन में कोई ऐसा फौजी है, जो तोलोलिंग की पहाड़ी पर जा कर दुश्मनों की रेकी करके आ सके. दिगेंद्र बताते हैं कि फौजियों की पंक्ति में वो सबसे पीछे बैठा था. और इस दौरान उन्होंने हाथ खड़ा किया.
कोबरा कमांडो के नाम से जाने जाते हैं दिगेंद्र
दिगेंद्र उससे पहले ही कोबरा बेस्ट कमांडो के नाम से जाने जाते थे और उन्हें सेना मेडल भी मिला था. जब उन्होंने हाथ खड़ा किया तो उनके चीफ ने कहा कि तुम वहीं हो ना, जिन्होंने श्रीलंका में उग्रवादी का बम लेकर उसी के ऊपर छोड़ दिया था. तुम्हारे बारे में काफी सुना है. इसके बाद जवान दिगेंद्र तोलोलिंग पहाड़ी पर रेकी करने की जिम्मेदारी को सौंपी गई. जिसके बाद दुर्गम रास्ते से होते हुए 14 घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद तोलोलिंग की पहाड़ी पर चढ़े. इस दौरान दुश्मनों ने उनके ऊपर हमला कर दिया और इस क्रॉस फायरिंग में 9 कमांडो और एक मेजर शहीद हो गए. वहीं दिगेंद्र अकेले बचे थे, उनके सीने पर 3 गोलियां लगी. एक गोली कमर में और एक हाथ में भी लगी. वहीं उनकी पैरों में काफी चोट लग चुकी थी.
मुश्किल वक्त में पिता की एक बात ने भर दिया जोश
दिगेंद्र बताते हैं कि वे हताश होते उससे पहले उन्हें अपने पिता की एक बात याद आई. जिसमें उनके पिता ने कहा था कि 'वीर भाग्यो वसुंधरा' यानी वीर वो ही जो विजय प्राप्त करें. जिसके बाद इस कोबरा कमांडों में जोश आ गया. उन्होंने एक के बाद एक 11 पाकिस्तानी बंकर ध्वस्त कर दिए और ऐसी तबाही मचाई कि 48 पाकिस्तानियों को मौत के घाट उतार दिया.
5 गोली लगने के बाद भी नहीं टूटा हौसला
पूरी रात दुश्मनों का खात्मा के बाद जैसे ही सूरज की किरण निकलने वाली थी कि उनका सामना चोटी पर तैनात पाकिस्तानी मेजर से हो गया. दिगेंद्र सिंह ने 5 गोलियां शरीर में लगने के बाद भी उसको मौत के घाट उतार दिया. यह कारगिल युद्ध में भारत की पहली जीत थी. इसके बाद टाइगर हिल समेत अन्य चोटियों को मुक्त कराया गया और 26 जुलाई को युद्ध समाप्त हुआ.
दो राजपुताना राइफल किसी मिशन में नाकाम नहीं हुई
दिगेंद्र सिंह बताते हैं कि वो जिस यूनिट में थे, उसका नाम दो राज रिफ है. दो राज रिफ जिसे दो राजपुताना राइफल भी कहते हैं. जीत इस यूनिट की पहचान है. 200 साल पुरानी इस दो राज रीफ के इतिहास में अब तक कोई भी मिशन में नाकाम नहीं हुआ है. 1948, 1971 जितने भी युद्ध हुए सभी में दो राज रीफ की बटालियन ने जीत के अध्याय के पहले पन्ने पर अपना नाम लिखा है.
एक मां के तीन सपूत एक साथ लड़ रहे थे कारगिल युद्ध
उस मां को सलाम जिसके तीन बेटे एक साथ एक युद्ध में दुश्मनों से लोहा ले रहे थे. दिगेंद्र सिंह उर्फ कोबरा बताते हैं किदेश सेवा का जुनून उनके रगों में था. वे कुल 6 भाई हैं. जिसमें से चार भाई देश सेवा के लिए सेना में भर्ती हुए. जब कारगिल का युद्ध चल रहा था, तब उनके दो भाई भी अलग कंपनी के साथ करगिल युद्ध में दुश्मनों से मुकाबला कर रहे थे.
नाना ने भी देश सेवा में किया प्राण न्योछावर
उनका कहना है कि देश सेवा का भाव उनके मन में बचपन से ही था. उनकी मां जब तीन दिन की ही थी, तब उनके नाना देश सेवा के लिए शहीद हुए. उसके बाद उनके पिताजी ने भी 1948 के युद्ध में 11 गोलियां खाई, लेकिन दुश्मनों को मुंह तोड़ जवाब दिया. दिगेंद्र का कहना है कि पिता से मिली प्रेरणा का नतीजा था कि वह विषम परिस्थितियों में भी जीत का रुख अपनी ओर मोड़ लेते थे.
श्रीलंका में उग्रवादी को मारा तो उन्हें कोबरा नाम दिया गया
दिगेंद्र सिंह बताते हैं कि 3 सितंबर 1985 को वे भारतीय सेना में भर्ती हुए. इस दौरान उनको कमांडो कोर्स के लिए भी सलेक्ट कर लिया गया. कमांडो ट्रेनिंग लेने के बाद उनको श्रीलंका जाने का मौका मिला, जहां वे एक जनरल की सुरक्षा में तैनात थे. एक दिन मलाईदीपू जाते वक्त एक उग्रवादी ने उनकी गाड़ी के ऊपर ग्रेनेड फेंक दिया. उन्होंने उस ग्रेट को अपने हाथों में कैच कर लिया और वापस उसी के ऊपर फेंक दिया. उग्रवादी के वहीं चीथड़े चिथड़े उड़ गए. तब जनरल ने कहा कि ये कमांडो नहीं यह तो कोबरा है और उसी के बाद से दिगेंद्र का नाम कमांडो 'कोबरा' पड़ गया.