जयपुर. देश के उपराष्ट्रपति और राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे बाबोसा के नाम से लोकप्रिय जननेता भैरोंसिंह शेखावत की आज 98वीं जयंती है. उनसे जुड़े कुछ ऐसे रोचक किस्से और घटनाओं से हम आपको रूबरू करवा रहे हैं.
पहले हम जान लें कि भैरों सिंह शेखावत हैं कौन. राजस्थान के लोग उन्हें 'बाबोसा' कहते थे और राजनीति में आने से पहले वे पुलिस की नौकरी गंवा चुके थे. गांव में खेती भी की, लेकिन किस्मत में कुछ और ही लिखा था. यही कारण है कि राजनीति में मौका भी एकाएक मिला और जब जनसंघ से टिकट मिला तो चुनाव लड़ने के लिए शेखावत के पास पैसे भी नहीं थे. लिहाजा अपनी धर्मपत्नी से 10 रुपये का नोट लेकर वे घर से निकल गए और चुनावी मैदान भी जीत गए. ऐसे थे भैरों सिंह शेखावत जिन्हें 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर मुख्यमंत्री का ताज पहनने का अवसर मिला.
ऐसे मिला बाबोसा को पहला टिकट
भैरों सिंह शेखावात ने पहले सरकारी नौकरी की, फिर खेती और फिर राजनीति. भैरों सिंह शेखावत को पहला टिकट दिलवाने में उनके भाई बिशन सिंह शेखावत का अहम योगदान माना जाता है. बताया जाता है कि 1952 में जब लालकृष्ण आडवाणी ने जनसंघ से सीकर के दांतारामगढ़ सीट के लिए प्रत्याशी तलाश रहे थे, तब भैरों सिंहजी के छोटे भाई बिशन सिंह शेखावत के जरिए भैरों सिंह शेखावत का नाम आगे किया गया. फिर यहीं से शुरू हुआ शेखावत के राजनीतिक करियर का सफर.
इस सीट पर भैरों सिंह शेखावत ने जीत भी हासिल की. बिशन सिंह शेखावत तब जनसंघ से जुड़े थे. यही कारण है कि आडवाणी ने उनके सुझाव को वरीयता दी. खुद जयपुर जिले के चौमूं में हुए सार्वजनिक सभा के दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने इस बात का जिक्र भी किया था.
हर चुनाव में बदलते थे शेखावत अपनी सीट
भैरों सिंह शेखावत हर चुनाव में सीट बदलते थे. मतलब हर बार शेखावत ने सीट बदल कर ही चुनाव लड़ा. 1952 में पहली बार विधानसभा में चुने गए और इसके बाद अगले 3 चुनाव में भी भैरों सिंह शेखावत की जीत का सिलसिला जारी रहा. हर बार उन्होंने सीट बदली. 1957 में वे सीकर की श्रीमाधोपुर सीट से जीते तो 1962 और 1967 में जयपुर की किशनपोल सीट से विधायक चुने गए.
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जनार्दन गहलोत ने हराया था बाबोसा को..
1972 में भैरों सिंह शेखावत जयपुर की गांधीनगर सीट से चुनाव मैदान में थे. इस बार उन्हें कांग्रेस के जनार्दन सिंह गहलोत ने 5167 वोट से चुनाव हराया. इसके बाद जनसंघ ने भैरों सिंह शेखावत को 1974 में मध्य प्रदेश से राज्यसभा में मनोनीत किया. हालांकि साल 1975 में देश मे इमरजेंसी लगी अन्य विपक्षी नेताओं की तरह भैरों सिंह शेखावत को भी जेल जाना पड़ा.
भैरों सिंह शेखावत ने राजनीतिक कौशल से बचाई थी अपनी सरकार
प्रदेश की राजनीति में सियासी संकट केवल हाल ही में नहीं आया, बल्कि भैरोसिंह सरकार के दौरान इस प्रकार का संकट आ चुका है. हालांकि बाबोसा ने तब अपने राजनीतिक कौशल से तख्तापलट की तैयारियों को नेस्तनाबूद कर विरोधियों को शिकस्त दी थी. साल 1996 में जनता दल के टिकट पर जीत कर आए भंवर लाल शर्मा ने शेखावत सरकार के तख्तापलट की कोशिश की थी. शेखावत अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे, यही कारण है कि पार्टी में उनका कद भी बढ़ा.
ऑपरेशन कराए बिना ही जयपुर लौट, बचा ली सरकार
शर्मा ने जब शेखावत सरकार गिराने का प्रयास किया तब भैरों सिंह शेखावत अमेरिका में हार्ट का ऑपरेशन करवाने गए थे. इस बीच शर्मा ने निर्दलीय विधायक और तात्कालिक राज्यमंत्र शशि दत्ता के साथ सरकार को गिराने की तैयारी की थी. भंवर लाल शर्मा ने उस समय कांग्रेस के भी कई नेताओं की मदद ली थी. हालांकि इसकी जानकारी जब अमेरिका में बीमार पड़े भैरों सिंह शेखावत को अपने दामाद नरपत सिंह राजवी के जरिए पता चली तो शेखावत बिना ऑपरेशन कराए वहां से लौट आए और विधायकों को जयपुर के चोखी ढाणी में ले जाकर ठहरा दिया. मतलब तब भी 15 दिन तक विधायकों की बाड़ेबंदी की गई थी.
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बताया जाता है कि भंवर लाल शर्मा ने 1990 में तत्कालीन वीपी सिंह सरकार के समय राजस्थान में शेखावत सरकार को बचाने में अहम योगदान दिया था. लेकिन तब शेखावत ने उनसे जो वादा किया था वह पूरा नहीं किया. शेखावत ने शर्मा को राजाखेड़ा से चुनाव लड़ने का आश्वासन दिया था. लेकिन उनके बजाए दूसरा उम्मीदवार तय कर लिया गया. जिसके चलते शर्मा नाराज हो गए और उन्होंने 1996 में शेखावत सरकार गिराने का मन बना लिया. लेकिन शेखावत ने सरकार गिरने से बचा ली.
अजातशत्रु के नाम से प्रसिद्ध थे शेखावत, अंत्योदय की कल्पना को किया साकार
स्वर्गीय भैरों सिंह शेखावत को राजनीति का अजातशत्रु भी कहा जाता है. मतलब अपने राजनीतिक करियर में वैचारिक रूप से भले ही उनके मतभेद रहे हों, लेकिन शत्रुता नहीं थी. यही कारण है कि विपक्षी दल के नेता भी उन्हें पूरा सम्मान देते थे. वह भी उनके सम्मान में कोई कमी नहीं छोड़ते थे.
स्वर्गीय बाबोसा के भतीजे राजेंद्र सिंह शेखावत बताते हैं कि 50 के दशक में शेखावत संघ के संपर्क में आए और तब पंडित दीनदयाल उपाध्याय की अंत्योदय से जुड़ी विचारधारा से प्रभावित होकर अपनी सरकार में काम के बदले अनाज की योजना को साकार किया. मकसद था अंत्योदय योजना के जरिए अंतिम छोर तक बैठे व्यक्ति तक राहत पहुंचाना.