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अब J K लोन अस्पताल में प्रीमेच्योर बच्चों के हो सकेंगे फेफड़े विकसित

नवजात बच्चों से जुड़ी जेके लोन अस्पताल जयपुर से एक अच्छी खबर है. दरअसल, अस्पताल में अब नवजात शिशु गहन चिकित्सा इकाई में नवजात शिशुओं के फेफड़ों को विकसित करने के लिए लिसा (लेस इनवेसिव सफेक्टेन्ट एडमिनिस्ट्रेशन) तकनीक का इस्तेमाल शुरू किया गया है.

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Published : May 17, 2020, 2:45 PM IST

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प्री-मेच्योर बच्चों के हो सकेंगे फेफड़े विकसित

जयपुर. जेके लोन अस्पताल के अधीक्षक डॉ. अशोक गुप्ता ने जानकारी देते हुए बताया कि नवजात शिशु इकाई में भर्ती ज्यादातर प्रीमेच्योर बच्चे श्वास सम्बंधित बीमारी रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिंड्रोम से ग्रस्त होते हैं. इसकी वजह से इन शिशुओं को जन्म के समय श्वास लेने में तकलीफ होती है, जिससे इन्हे वेंटिलेटर पर लेकर श्वास नली में इंडोट्राकेअल ट्यूब से सर्फेक्टेंट डाला जाता है तथा स्थिति में सुधार के बाद वेंटिलेटर से निकालने की कोशिश की जाती है. ऐसे में मरीज को सी-पैप मशीन का सपोर्ट दिया जाता है.

नवजात को इस प्रक्रिया से जहां एक तरफ श्वास लेने में फायदा मिलता है. वहीं दूसरी तरफ ट्यूब एवं वेंटिलेटर के साइड इफेक्ट आने की सम्भावना बनी रहती है. क्योंकि प्री-मेच्योर नवजात के फेफड़े अत्यंत नाजुक होते हैं. इन साइड इफेक्ट को कम से कम करने के लिए अब अस्पताल में लिसा तकनीक का उपयोग किया जाएगा. इस तकनीकी की जानकारी देते हुए नवजात गहन चिकित्सा इकाई के सह प्रभारी डॉ. विष्णु पंसारी (सहायक आचार्य) ने कहा कि डॉ. गुप्ता के निर्देशन में नवजात को सी-पैप मशीन पर रखते हुए वेंटिलेटर सपोर्ट और ट्यूब के बजाय सर्फेक्टेंट दवा को बारीक कैथिटर से डालकर फेफड़ों को विकसित किया जाता है. बाद में कैथिटर को वापस निकाल लिया जाता है, जिससे उसे वेंटिलेटर पर लेने की सम्भावना कम हो जाती है.

यह भी पढ़ेंः जयपुर Central Jail और डिस्ट्रिक्ट जेल में कोरोना का कहर, RAC के एक जवान की मौत

इस तकनीकी को अस्पताल में कार्यरत रेजिडेंट डॉक्टर विजय झाझड़िया ने कुशलतापूर्वक अंजाम दिया. इस तकनीक का मुख्य उद्देश्य नवजात के नाजुक फेफड़ों को ज्यादा से ज्यादा क्षति होने से बचाना है. नवजात शिशु इकाई टीम अभी 1500 ग्राम से कम वजनी वाले बच्चों पर इसे उपयोग में ले रहा है. प्रारंभिक परिणाम काफी उत्साहजनाजक रहे हैं.

जयपुर. जेके लोन अस्पताल के अधीक्षक डॉ. अशोक गुप्ता ने जानकारी देते हुए बताया कि नवजात शिशु इकाई में भर्ती ज्यादातर प्रीमेच्योर बच्चे श्वास सम्बंधित बीमारी रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिंड्रोम से ग्रस्त होते हैं. इसकी वजह से इन शिशुओं को जन्म के समय श्वास लेने में तकलीफ होती है, जिससे इन्हे वेंटिलेटर पर लेकर श्वास नली में इंडोट्राकेअल ट्यूब से सर्फेक्टेंट डाला जाता है तथा स्थिति में सुधार के बाद वेंटिलेटर से निकालने की कोशिश की जाती है. ऐसे में मरीज को सी-पैप मशीन का सपोर्ट दिया जाता है.

नवजात को इस प्रक्रिया से जहां एक तरफ श्वास लेने में फायदा मिलता है. वहीं दूसरी तरफ ट्यूब एवं वेंटिलेटर के साइड इफेक्ट आने की सम्भावना बनी रहती है. क्योंकि प्री-मेच्योर नवजात के फेफड़े अत्यंत नाजुक होते हैं. इन साइड इफेक्ट को कम से कम करने के लिए अब अस्पताल में लिसा तकनीक का उपयोग किया जाएगा. इस तकनीकी की जानकारी देते हुए नवजात गहन चिकित्सा इकाई के सह प्रभारी डॉ. विष्णु पंसारी (सहायक आचार्य) ने कहा कि डॉ. गुप्ता के निर्देशन में नवजात को सी-पैप मशीन पर रखते हुए वेंटिलेटर सपोर्ट और ट्यूब के बजाय सर्फेक्टेंट दवा को बारीक कैथिटर से डालकर फेफड़ों को विकसित किया जाता है. बाद में कैथिटर को वापस निकाल लिया जाता है, जिससे उसे वेंटिलेटर पर लेने की सम्भावना कम हो जाती है.

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इस तकनीकी को अस्पताल में कार्यरत रेजिडेंट डॉक्टर विजय झाझड़िया ने कुशलतापूर्वक अंजाम दिया. इस तकनीक का मुख्य उद्देश्य नवजात के नाजुक फेफड़ों को ज्यादा से ज्यादा क्षति होने से बचाना है. नवजात शिशु इकाई टीम अभी 1500 ग्राम से कम वजनी वाले बच्चों पर इसे उपयोग में ले रहा है. प्रारंभिक परिणाम काफी उत्साहजनाजक रहे हैं.

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