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सिदो-कान्हू के हुंकार से कांप उठा था अंग्रेजों का कलेजा, जानें- क्यों मनाते हैं हूल दिवस

झारखंड में हमेशा से जल, जंगल और जमीन का मुद्दा काफी अहम रहा है. जंगलों को बचाने की मुहिम इस राज्य में नई नहीं है, इसके मूल कारण को जानने के लिए हमें कई दशक पीछे जाना पड़ेगा. उन्हीं में से एक है हूल क्रांति, जिसे आज के दौर में हूल दिवस के नाम से भी जान जाता है. सिदो-कान्हू, चांद-भैरव इस आंदोलन के महानायक थे और फूलो-झानों ने भी इनका बखूबी साथ दिया था.

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सिदो-कान्हू के हुंकार से कांप उठा था अंग्रेजों का कलेजा
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Published : Jun 30, 2020, 8:06 AM IST

रांची: ज्यादार लोगों का मानना है कि अंग्रजों के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल पहली बार 1857 में मंगल पांडेय के नेतृत्व में फूंका गया था. लेकिन उससे कई साल पहले झारखंड की धरती से सिदो-कान्हू और चांद-भैरव ने ब्रिटिश हुकूमत को ललकारा था. झारखंड ने कई ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया है. जिनका बलिदान देश युगों तक याद रखेगा. भारत के इतिहास में 30 जून का दिन हूल दिवस के रूप में जाना जाता है. इस दिन की कहानी आदिवासी वीर लड़ाके सिदो-कान्हू और चांद-भैरव से जुड़ी हुई है. इसमें उनकी बहन फूलो और झानों ने भी उनका भरपूर साथ दिया था.

हूल क्रांति की शुरूआत स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन से काफी पहले 30 जून 1855 में ही हुई थी. 18वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने पहाड़ी जंगलों की कटाई पर जोर दिया और परती भूमि को धान के खेतों में बदलना शुरू कर दिया. अंग्रेजों ने भूमि हड़पने के लिए क्रूर नीति अपनाई और उन्होंने इस पर मालगुजारी भत्ता लगा दिया. इसके विरोध में आदिवासियों ने सिदो-कान्हू के नेतृत्व में आंदोलन शुरू कर दिया. इसे दबाने के लिए अंग्रेजों ने मार्शल लॉ लगा दिया, नतीजा यह हुआ कि 20 हजार लोग जान से हाथ धो बैठे. हूल का शाब्दिक अर्थ होता है विद्रोह.

स्वतंत्रता आंदोलन की पहली लड़ाई

आधाकारिक रूप से स्वतंत्रता आंदोलन की पहली लड़ाई 1857 में मानी जाती है लेकिन झारखंड के आदिवासियों ने 1855 में ही विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया था. 30 जून 1855 को सिदो-कान्हू के नेतृत्व में मौजूदा साहिबगंज जिले के भोगनाडीह गांव से विद्रोह शुरू हुआ था. इस मौके पर सिदो-कान्हू ने नारा दिया था, 'करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो'.

यह भी पढ़ें- सरकार पाठ्यक्रम में सुधार करें और छात्रों को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाएंः गिरिराज सिंह लोटवाड़ा

साहिबगंज में बस गये थे पूर्वज

हूल क्रांति पर लिखे गए कई किताबों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सिदो-कान्हू के पूर्वज हजारीबाग और गिरिडीह के बीच बसने किसी गांव से आए थे. उस समय संथाल आदिवासी भोजन, शिकार और चारागाह की तलाश में नए इलाकों में जाते रहते थे. भोगनाडीह गांव में सिदो-कान्हू के पूर्वज आकर बस गये. ये वो दौर था जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी स्थानीय जमींदारों के सहयोग से संथाल आदिवासियों को कृषि के उद्देश्य से राजमहल की पहाड़ियों की तलहटी में बसा रही थी. भोगनाडीह एक ऐसा ही बसा हुआ गांव था. सिदो-कान्हू और चांद-भैरव का जन्म भोगनाडीह में ही चुन्नी मुर्मू और सुबी हांसदा के घर हुआ था. इस घर में दो बेटियों ने भी जन्म लिया. जिनका नाम रखा गया फूलो और झानों. इन सबका जन्म 1820 ईस्वी से लेकर 1835 ईस्वी के बीच हुआ. वशंजों के पास जो वंशावली है उसके मुताबिक केवल सिदो की शादी हुई थी. उनके ही बच्चों से इस परिवार का वंश आगे बढ़ा. इस समय भोगनाडीह में सिदो-कान्हू के परिवार की छठी पीढ़ी निवास करती है. सिदो-कान्हू और चांद-भैरव का बचपन आम तरीके से ही बीता. उन्होंने धनुष-बाण चलाना सीखते हुए उसमें निपुणता हासिल की थी.

क्या था आंदोलन का मुख्य कारण

मौजूदा संथाल परगना का इलाका बंगाल प्रेसिडेंसी के अधीन पहाड़ियों और जंगलों से घिरा क्षेत्र था. इस इलाके में रहनेवाले पहाड़िया, संथाल और अन्य निवासी खेती-बारी करके जीवन यापन करते थे और जमीन का किसी को राजस्व नहीं देते थे. ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व बढ़ाने के मकसद से जमींदार की फौज तैयार की जो पहाड़िया, संथाल और अन्य निवासियों से जबरन लगान वसूलने लगे. लगान देने के लिए उन लोगों को साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता और उनका अत्याचार भी सहना पड़ता था. इससे लोगों में असंतोष की भावना बढ़ती गई. सिदो-कान्हू और चांद-भैरव ने लोगों के असंतोष को आंदोलन में बदल दिया.

कब हुई आंदोलन की शुरुआत

30 जून 1855 को 400 गांवों के लगभग 50 हजार आदिवासी भोगनाडीह गांव पहुंचे और आंदोलन की शुरुआत हुई. इस सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुजारी नहीं देंगे. इसके बाद अंग्रेजों ने, सिदो-कान्हू और चांद-भैरव इन चारों भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया. जिस दरोगा को चारों भाइयों को गिरफ्तार करने के लिए वहां भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काटकर हत्या कर दी. इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर डर पैदा हो गया था.

यब भी पढ़ें- जयपुर बम धमाका मामला: जिंदा मिले बम के मामले में CMM कोर्ट में आरोप पत्र पेश

आंदोलन में फूलो-झानों की रही अहम भूमिका

इन चारों भाई-बहनों के अलावा उनकी बहन फूलो-झानों ने भी अहम भूमिका निभाई. उन्होंने बढ़ई और लोहार जैसी जातियों से संपर्क किया. उन्हें क्रांति का महत्व समझाया और संगठन में शामिल किया. बढ़ई और लोहार क्रांतिकारियों के लिये तीर-कमान, भाला, फरसा, टांगी जैसे हथियार तैयार करते थे. फूलो-और झानों ने भोगनाडीह सहित आसपास की महिलाओं को इकट्ठा किया. छोटी-छोटी गुप्तचर टीमें बनाईं. विरोधियों से जुड़ी अहम जानकारियां क्रांतिकारियों तक पहुंचाई. क्रांतिकारियों को सही वक्त पर खाना और हथियार मिल सके ये सुनिश्चित किया.

क्या हुआ आंदोलन का परिणाम

आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने इस इलाके में सेना भेज दी और जमकर आदिवासियों की गिरफ्तारियां की गईं और विद्रोहियों पर गोलियां बरसाई.आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया. आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी के लिए अंग्रेज सरकार ने पुरस्कारों की भी घोषणा की थी. अंग्रेजों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए. इस युद्ध में करीब 20 हजार आदिवासियों ने अपनी जान दी थी. सिदो-कान्हू के करीबी साथियों को पैसे का लालच देकर दोनों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भोगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई. इस तरह सिदो-कान्हू और चांद-भैरव भारतीय इतिहास में सदा के लिए अमर हो गए. इनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किए जा चुके हैं और इनके नाम से दुमका में एक विश्वविद्यालय भी संचालित है.

रांची: ज्यादार लोगों का मानना है कि अंग्रजों के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल पहली बार 1857 में मंगल पांडेय के नेतृत्व में फूंका गया था. लेकिन उससे कई साल पहले झारखंड की धरती से सिदो-कान्हू और चांद-भैरव ने ब्रिटिश हुकूमत को ललकारा था. झारखंड ने कई ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया है. जिनका बलिदान देश युगों तक याद रखेगा. भारत के इतिहास में 30 जून का दिन हूल दिवस के रूप में जाना जाता है. इस दिन की कहानी आदिवासी वीर लड़ाके सिदो-कान्हू और चांद-भैरव से जुड़ी हुई है. इसमें उनकी बहन फूलो और झानों ने भी उनका भरपूर साथ दिया था.

हूल क्रांति की शुरूआत स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन से काफी पहले 30 जून 1855 में ही हुई थी. 18वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने पहाड़ी जंगलों की कटाई पर जोर दिया और परती भूमि को धान के खेतों में बदलना शुरू कर दिया. अंग्रेजों ने भूमि हड़पने के लिए क्रूर नीति अपनाई और उन्होंने इस पर मालगुजारी भत्ता लगा दिया. इसके विरोध में आदिवासियों ने सिदो-कान्हू के नेतृत्व में आंदोलन शुरू कर दिया. इसे दबाने के लिए अंग्रेजों ने मार्शल लॉ लगा दिया, नतीजा यह हुआ कि 20 हजार लोग जान से हाथ धो बैठे. हूल का शाब्दिक अर्थ होता है विद्रोह.

स्वतंत्रता आंदोलन की पहली लड़ाई

आधाकारिक रूप से स्वतंत्रता आंदोलन की पहली लड़ाई 1857 में मानी जाती है लेकिन झारखंड के आदिवासियों ने 1855 में ही विद्रोह का झंडा बुलंद कर दिया था. 30 जून 1855 को सिदो-कान्हू के नेतृत्व में मौजूदा साहिबगंज जिले के भोगनाडीह गांव से विद्रोह शुरू हुआ था. इस मौके पर सिदो-कान्हू ने नारा दिया था, 'करो या मरो, अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो'.

यह भी पढ़ें- सरकार पाठ्यक्रम में सुधार करें और छात्रों को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाएंः गिरिराज सिंह लोटवाड़ा

साहिबगंज में बस गये थे पूर्वज

हूल क्रांति पर लिखे गए कई किताबों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सिदो-कान्हू के पूर्वज हजारीबाग और गिरिडीह के बीच बसने किसी गांव से आए थे. उस समय संथाल आदिवासी भोजन, शिकार और चारागाह की तलाश में नए इलाकों में जाते रहते थे. भोगनाडीह गांव में सिदो-कान्हू के पूर्वज आकर बस गये. ये वो दौर था जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी स्थानीय जमींदारों के सहयोग से संथाल आदिवासियों को कृषि के उद्देश्य से राजमहल की पहाड़ियों की तलहटी में बसा रही थी. भोगनाडीह एक ऐसा ही बसा हुआ गांव था. सिदो-कान्हू और चांद-भैरव का जन्म भोगनाडीह में ही चुन्नी मुर्मू और सुबी हांसदा के घर हुआ था. इस घर में दो बेटियों ने भी जन्म लिया. जिनका नाम रखा गया फूलो और झानों. इन सबका जन्म 1820 ईस्वी से लेकर 1835 ईस्वी के बीच हुआ. वशंजों के पास जो वंशावली है उसके मुताबिक केवल सिदो की शादी हुई थी. उनके ही बच्चों से इस परिवार का वंश आगे बढ़ा. इस समय भोगनाडीह में सिदो-कान्हू के परिवार की छठी पीढ़ी निवास करती है. सिदो-कान्हू और चांद-भैरव का बचपन आम तरीके से ही बीता. उन्होंने धनुष-बाण चलाना सीखते हुए उसमें निपुणता हासिल की थी.

क्या था आंदोलन का मुख्य कारण

मौजूदा संथाल परगना का इलाका बंगाल प्रेसिडेंसी के अधीन पहाड़ियों और जंगलों से घिरा क्षेत्र था. इस इलाके में रहनेवाले पहाड़िया, संथाल और अन्य निवासी खेती-बारी करके जीवन यापन करते थे और जमीन का किसी को राजस्व नहीं देते थे. ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व बढ़ाने के मकसद से जमींदार की फौज तैयार की जो पहाड़िया, संथाल और अन्य निवासियों से जबरन लगान वसूलने लगे. लगान देने के लिए उन लोगों को साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता और उनका अत्याचार भी सहना पड़ता था. इससे लोगों में असंतोष की भावना बढ़ती गई. सिदो-कान्हू और चांद-भैरव ने लोगों के असंतोष को आंदोलन में बदल दिया.

कब हुई आंदोलन की शुरुआत

30 जून 1855 को 400 गांवों के लगभग 50 हजार आदिवासी भोगनाडीह गांव पहुंचे और आंदोलन की शुरुआत हुई. इस सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुजारी नहीं देंगे. इसके बाद अंग्रेजों ने, सिदो-कान्हू और चांद-भैरव इन चारों भाइयों को गिरफ्तार करने का आदेश दिया. जिस दरोगा को चारों भाइयों को गिरफ्तार करने के लिए वहां भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काटकर हत्या कर दी. इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर डर पैदा हो गया था.

यब भी पढ़ें- जयपुर बम धमाका मामला: जिंदा मिले बम के मामले में CMM कोर्ट में आरोप पत्र पेश

आंदोलन में फूलो-झानों की रही अहम भूमिका

इन चारों भाई-बहनों के अलावा उनकी बहन फूलो-झानों ने भी अहम भूमिका निभाई. उन्होंने बढ़ई और लोहार जैसी जातियों से संपर्क किया. उन्हें क्रांति का महत्व समझाया और संगठन में शामिल किया. बढ़ई और लोहार क्रांतिकारियों के लिये तीर-कमान, भाला, फरसा, टांगी जैसे हथियार तैयार करते थे. फूलो-और झानों ने भोगनाडीह सहित आसपास की महिलाओं को इकट्ठा किया. छोटी-छोटी गुप्तचर टीमें बनाईं. विरोधियों से जुड़ी अहम जानकारियां क्रांतिकारियों तक पहुंचाई. क्रांतिकारियों को सही वक्त पर खाना और हथियार मिल सके ये सुनिश्चित किया.

क्या हुआ आंदोलन का परिणाम

आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेजों ने इस इलाके में सेना भेज दी और जमकर आदिवासियों की गिरफ्तारियां की गईं और विद्रोहियों पर गोलियां बरसाई.आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया. आंदोलनकारियों की गिरफ्तारी के लिए अंग्रेज सरकार ने पुरस्कारों की भी घोषणा की थी. अंग्रेजों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए. इस युद्ध में करीब 20 हजार आदिवासियों ने अपनी जान दी थी. सिदो-कान्हू के करीबी साथियों को पैसे का लालच देकर दोनों को भी गिरफ्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भोगनाडीह गांव में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फांसी की सजा दे दी गई. इस तरह सिदो-कान्हू और चांद-भैरव भारतीय इतिहास में सदा के लिए अमर हो गए. इनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किए जा चुके हैं और इनके नाम से दुमका में एक विश्वविद्यालय भी संचालित है.

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