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लॉक डाउन में 'बेबस हुए बेघर', परकोटे के बरामदों में रहने की मजबूरी

मशहूर शायर मिर्जा गालिब का एक शेर है 'हमको मालूम है जन्नत की हकीकत, लेकिन दिल को खुश रखने को गालिब ख्याल अच्छा है.' ये पंक्तियां इस वक्त जयपुर के एक हिस्से की हकीकत को बयां करती नजर आ रही हैं. शहर में लॉक डाउन के दूसरे दिन ईटीवी भारत की टीम ने शहर की सड़कों पर पड़ताल की तो सरकारी दावों से उलट तस्वीर नजर आई.

jaipur news  कोरोना के खिलाफ जंग  workers from another state  workers trapped in lock down  covid 19 news
मजदूरों ने कहा- हमें बुखार नहीं, बस पसीना आता है
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Published : Mar 24, 2020, 8:54 PM IST

जयपुर. शहर के लोग एक तरफ घरों में रहने और सोशल डिस्टेंसिंग के नफे-नुकसान से वाकिफ होकर काफी हद तक बाहर नहीं निकले. लेकिन दूसरी तरफ उन लोगों के लिये परेशानी बढ़ गई, जिनका जयपुर में न तो घर है और न ही कोई आसरा. ऐसे लोगों से जब उनकी परेशानियां जानी तो सरकारी मशीनरी की पहुंच से दूर की हकीकत का आभास हुआ. इस सच्चाई के कारण इन लोगों को संक्रमण के खतरे के बीच अपनी जिंदगी बसर करनी पड़ रही है.

मजदूरों ने कहा- हमें बुखार नहीं, बस पसीना आता है

ईटीवी भारत ने हकीकत को परखने के लिये जयपुर शहर के परकोटे यानि चारदीवारी का रुख किया. जहां चांदपोल बाजार में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले इक्का-दुक्का नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में बरामदों में अपना वक्त काटते हुए नजर आये. इन लोगों को दर्द ये था कि जयपुर में इनके पास कोई आसरा नहीं है. पहले दिन में मजदूरी के बाद रात में बरामदों का आसरा था, पर अब वक्त-वक्त पर पुलिस आती है और इन्हें डंडे मारकर भगा देती है. उन्हें ये समझ नहीं आ रहा है कि जाएं तो जाएं कहां.

यह भी पढ़ेंः लॉक डाउन में सख्त 'खाकी', गाड़ियों का किया Sanitize

इन मजदूरों में से कोई मध्यप्रदेश से आया था, कोई बिहार से और कोई उत्तर प्रदेश से. सबके सामने ये चिंता थी कि अब सरकार ने घर लौटने का विकल्प भी खत्म कर दिया है. हालात ऐसे हो रहे हैं कि संभलते हुए नजर नहीं आते हैं. ऐसे में दो दिन तो बीत गये, लेकिन कहीं एक हफ्ते से ज्यादा लॉक डाउन चला तो फिर उनका क्या होगा.?

बरामदों में बैठे लोगों ने जब दर्द बयां किया...

चांदपोल बाजार में बने बरामदों में बैठे लोगों की परेशानी यह भी है कि बीते दिन तीन-चार बार खाना देने वाले आये थे. लेकिन आज एक बार मिला, पर क्या शाम को खाना मिल पाएगा, चाय की बात छोड़िए. वो फिलहाल दूर-दूर तक मय्यसर नहीं है. ये तस्वीर का एक रुख है, पर दूसरा पहलु भी जानना बेहद जरूरी है.

परकोटे के बरामदों में रहने की मजबूरी

सरकारी दावें क्या कहते हैं...

सवाल है सरकारी दावों का, जो कहता है कि सबकों खाना मिलेगा और सबको छत मिलेगी. जयपुर में स्थायी रैन बसेरे हैं. ये लोग वहां भी जा सकते हैं, पर सरकार से हम पूछते हैं कि अगर रैन बसेरों में ही आसरा है तो खाकी वाले साहब डंडा मारने की जगह इन्हें रैन बसेरों की राह क्यों नहीं दिखाते हैं. अगर सबके लिये खाना है तो इनके माथे पर लकीरें किस चिंता को बयान करती है.

यह भी पढ़ेंः Lock down के बीच Etv का रिएलिटी चेक, कोरोना से बेखबर मासूमों की सड़क पर जिंदगी की जद्दोजहद

रोटी और छत का भी छोड़िये. फिलहाल चिंता इस बात की है कि जिस शहर की हुकुमत पांच लोगों के एक साथ होने पर मुकदमा दर्ज करवाने की बात कह रही है. उस शहर में एक झुंड के रूप में बैठे इन लोगों पर कब किस हुकमरान की नजर पड़़ेगी. क्या कोरोना का खतरा मजदूर से डरता है. एक शख्स ने कहा भी था कि हम मेहनत-मजदूरी करते हैं, हमें बुखार नहीं, बस पसीना आता है.

जयपुर. शहर के लोग एक तरफ घरों में रहने और सोशल डिस्टेंसिंग के नफे-नुकसान से वाकिफ होकर काफी हद तक बाहर नहीं निकले. लेकिन दूसरी तरफ उन लोगों के लिये परेशानी बढ़ गई, जिनका जयपुर में न तो घर है और न ही कोई आसरा. ऐसे लोगों से जब उनकी परेशानियां जानी तो सरकारी मशीनरी की पहुंच से दूर की हकीकत का आभास हुआ. इस सच्चाई के कारण इन लोगों को संक्रमण के खतरे के बीच अपनी जिंदगी बसर करनी पड़ रही है.

मजदूरों ने कहा- हमें बुखार नहीं, बस पसीना आता है

ईटीवी भारत ने हकीकत को परखने के लिये जयपुर शहर के परकोटे यानि चारदीवारी का रुख किया. जहां चांदपोल बाजार में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले इक्का-दुक्का नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में बरामदों में अपना वक्त काटते हुए नजर आये. इन लोगों को दर्द ये था कि जयपुर में इनके पास कोई आसरा नहीं है. पहले दिन में मजदूरी के बाद रात में बरामदों का आसरा था, पर अब वक्त-वक्त पर पुलिस आती है और इन्हें डंडे मारकर भगा देती है. उन्हें ये समझ नहीं आ रहा है कि जाएं तो जाएं कहां.

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इन मजदूरों में से कोई मध्यप्रदेश से आया था, कोई बिहार से और कोई उत्तर प्रदेश से. सबके सामने ये चिंता थी कि अब सरकार ने घर लौटने का विकल्प भी खत्म कर दिया है. हालात ऐसे हो रहे हैं कि संभलते हुए नजर नहीं आते हैं. ऐसे में दो दिन तो बीत गये, लेकिन कहीं एक हफ्ते से ज्यादा लॉक डाउन चला तो फिर उनका क्या होगा.?

बरामदों में बैठे लोगों ने जब दर्द बयां किया...

चांदपोल बाजार में बने बरामदों में बैठे लोगों की परेशानी यह भी है कि बीते दिन तीन-चार बार खाना देने वाले आये थे. लेकिन आज एक बार मिला, पर क्या शाम को खाना मिल पाएगा, चाय की बात छोड़िए. वो फिलहाल दूर-दूर तक मय्यसर नहीं है. ये तस्वीर का एक रुख है, पर दूसरा पहलु भी जानना बेहद जरूरी है.

परकोटे के बरामदों में रहने की मजबूरी

सरकारी दावें क्या कहते हैं...

सवाल है सरकारी दावों का, जो कहता है कि सबकों खाना मिलेगा और सबको छत मिलेगी. जयपुर में स्थायी रैन बसेरे हैं. ये लोग वहां भी जा सकते हैं, पर सरकार से हम पूछते हैं कि अगर रैन बसेरों में ही आसरा है तो खाकी वाले साहब डंडा मारने की जगह इन्हें रैन बसेरों की राह क्यों नहीं दिखाते हैं. अगर सबके लिये खाना है तो इनके माथे पर लकीरें किस चिंता को बयान करती है.

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रोटी और छत का भी छोड़िये. फिलहाल चिंता इस बात की है कि जिस शहर की हुकुमत पांच लोगों के एक साथ होने पर मुकदमा दर्ज करवाने की बात कह रही है. उस शहर में एक झुंड के रूप में बैठे इन लोगों पर कब किस हुकमरान की नजर पड़़ेगी. क्या कोरोना का खतरा मजदूर से डरता है. एक शख्स ने कहा भी था कि हम मेहनत-मजदूरी करते हैं, हमें बुखार नहीं, बस पसीना आता है.

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