जयपुर. जिस लहरिये को पहनकर गुलाबी शहर में महिलाएं झूमती हैं, राजस्थानी लोकगीतों पर नृत्य करती हैं, वह लहरिया राजस्थानी ओढ़नी और दुपट्टा है. मरुस्थल में मानसून, सावन और लहरिया का बहुत महत्व है.
राजस्थान या राजस्थानी संस्कृति से जुड़े लोगों के लिए लहरिया सिर्फ कपड़े पर उकेरा गया डिजाइन या स्टाइल भर नहीं है. लहरिये की रंग बिरंगी धारियां शगुन और संस्कृति के वो सारे रंग समेटे हुए हैं जिससे एक विवाहिता के जीवन में खुशहाली आती है. राजस्थान में सावन में लहरिया पहनना शुभ माना जाता है. पति की लम्बी उम्र की कामना के साथ मनाये जाने वाले लहरिया उत्सव की धूम गुलाबी नगरी जयपुर में इन दिनों खूब देखने को मिल रही हैं.
सदियों से चली आ रही इस इस परम्परा को राजस्थान में उत्सव के रूप में मनाया जाता है. पारम्परिक ढंग से तीज उत्सव मना रहीं मनीषा सिंह कहती हैं कि यह सिर्फ एक फेस्टिवल नहीं है, यह हमारी आस्था और बरसों से चली आ रही संस्कृति है. राजस्थान में तीज पर्व ऋतु उत्सव के रूप में मनाया जाता है. सावन में हरियाली और मेघ घटाओं को देखकर लोग यह पर्व मिल जुलकर मनाते हैं.
आसमान में काली घटाओं के कारण इस पर्व को कजली तीज और चारों ओर हरियाली के कारण हरियाली तीज के नाम से पुकारते हैं. इस तीज-त्योहार पर राजस्थान में झूले लगते हैं. नदियों के तटों पर मेलों का आयोजन होता है. इस त्योहार के आस-पास खेतों में खरीफ फसलों की बुआई भी शुरू हो जाती है. मोठ, बाजरा, फली आदि की बुआई के लिए कृषक तीज पर्व पर बारिश की कामना करते हैं.
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बस्सी राजघराने की पूर्वरानी महेंद्र कंवर बताती हैं कि हमारी मान्यता है कि भगवान शंकर को पति के रूप में पाने के लिए माता पार्वती ने 107 जन्म लिए थे. मां पार्वती के कठोर तप और उनके 108वें जन्म में भगवान शिव ने देवी पार्वती को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया. तभी से तीज व्रत की शुरुआत हुई. इस दिन सुहागन महिलाएं सोलह श्रृंगार करके भगवान शिव और देवी पार्वती की पूजा करती हैं ताकि उनका सुहाग लंबे समय तक बना रहे.
राजस्थान के उल्लासमय लोक सांस्कृतिक पर्व तीज के अवसर पर धारण किया जाने वाला सतरंगी परिधान लहरिया खुशनुमा जीवन का प्रतीक है. सावन में पहने जाने वाले लहरिये में हरा रंग होना शुभ होता है. यह रंग प्रकृति के उल्लास और सावन में हरियाली की चादर ओढे धरती के हरित श्रृंगार से प्रेरित है. लहरिया राजस्थान का पारंपरिक पहनावा है. कहते हैं कि प्रकृति ने मरुप्रदेश को कुछ रंग कम दिये हैं. तो यहां के लोगों ने अपने पहनावे में ही सात रंग भर लिए. लहरिया उसी भावना का प्रतीक है. तभी तो राजस्थान के अनूठे लोक जीवन की रंग बिरंगी संस्कृति के द्योतक लहरिया पर कई लोकगीत भी बने हैं.
इस तीज को हरियाली तीज कहने के पीछे एक कारण और है. दरअसल यह तीज श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को आती है. इस दौरान बारिश के कारण चारों ओर हरियाली नजर आती है. इसलिए इसे हरियाली तीज कहते हैं. इस दिन महिलाएं श्रृंगार करके उत्सव मनाती हैं.
लहरिया सांप्रदायिक सौहार्द की भी निशानी है. ये ऐसा परिधान है जो हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों को गहरा करता है. लहरिया मुस्लिम रंगरेज तैयार करते हैं और इसे धारण करती हैं हिन्दू महिलाएं. ऐसा माना जाता है कि लहरिये के बिना सावन के कोई मायने नहीं हैं. सावन के शुरू होते ही महिलाएं लहरिया खरीदना शुरू कर देती हैं. जयपुर का वस्त्र बाजार लहरिये से अट जाता है. शादी के बाद पहले सावन में तो बहू-बेटियों को बहुत मान-मनुहार के साथ लहरिया लाकर दिया जाता है.
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उत्तर भारत में जहां इसे हरियाली तीज कहा जाता है, वहीं पूर्वी भारत में इसे कजली तीज बोलते हैं. ये दिन महिलाओं के सजने—संवरने का दिन है. लहरिया पहनने का दिन है. इस दिन महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र के लिए उपवास रखती हैं. कुंवारी युवतियां अच्छे वर की कामना करती हैं. जिस तरह देश के हर त्योहार के पीछे कुछ कहानी होती है, ठीक वैसे ही हरियाली तीज से भी शिव-पार्वती की कहानी जुड़ी है.
राजस्थान की लोक संस्कृति में कई रीति रिवाज ऐसे हैं जो यह बताते हैं कि हमारे परिवारों में बहू-बेटियों की मान मनुहार के अर्थ कितने गहरे हैं. सावन के महीने में तीज के मौके पर मायके या ससुराल में बहू-बेटियों को लहरिया लाकर देने की परंपरा भी इसी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है. यह परंपरा आज भी कायम है. यह त्यौहार इस बात को जाहिर करने का अवसर है कि बहू-बेटियों के जीवन का सतरंगी उल्लास ही हमारे घर आंगन का इंद्रधनुष है.