जयपुर. राजस्थान की राजनीति में इन दिनों सियासत का पारा गरम है. प्रदेश कांग्रेस के मुखिया और गहलोत सरकार में डिप्टी सीएम रहे सचिन पायलट ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ सीधा मोर्चा खोल दिया है. पायलट 30 विधायकों के समर्थन के साथ सरकार गिराने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ये आंकड़ा कितना सही है ये अभी साफ नहीं हो पा रहा है क्योंकि सीएम गहलोत भी 109 विधायकों अपने साथ होने का दावा कर रहे हैं.
हालांकि, किसके दावे में कितना दम है यह तो आने वाले दिनों में साफ होगा, लेकिन पहले ये समझने की जरूरत है कि क्या राजस्थान की राजनीति में ये पहला मौका है जब सरकार गिराने की कोशिश या गुटबाजी खुल कर मुखर हुई है. ऐसा नहीं है इससे पहले भी प्रदेश की सियासत में ऐसा होता रहा है. राजस्थान में सरकार गिराने और गुटबाजी का इतिहास बेहद पुराना है.
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भारत में क्षेत्रफल के हिसाब से सबसे बड़ा राज्य यानी राजस्थान में फिलहाल कांग्रेस की सरकार है. साल 2018 में देश में मोदी लहर था और इस लहर में भी प्रदेश में 101 के बहुमत के साथ अशोक गहलोत तीसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, लेकिन मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की सरकार को गिराने की पिछले कुछ महीनों से साजिश की जा रही है.
सचिन पायलट की सारी कोशिशें बेशक नाकाम हो गई है और अब कांग्रेस के घर की लड़ाई खुल कर जंगे मैदान में पहुंच गई है. सचिन पायलट की सरकार गिराने की कोशिश ने राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत समेत उन सभी मुख्यमंत्रियों की याद ताजा कर दी है, जो ऐसे ही दौर से गुजर चुके हैं. लेकिन खास बात तह है कि सरकार गिराने की कोशिश कांग्रेस विधायकों की ओर से ही की जाती रही है, फिर चाहे सरकार कांग्रेस की हो या बीजेपी की. चलिए सिलसिलेवार समझते हैं प्रदेश की सियासत की गुटबाजी को...
साल 1952 से 2020 तक कांग्रेस की राजनीतिक उठापटक
साल 1952 में राजस्थान में पहली बार जनता की ओर से चुनी हुई सरकार बनी, लेकिन उस वक्त तत्कालीन मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास दोनों सीटों से हार गए. उन्हीं के नेतृत्व में कांग्रेस प्रदेश में पहले चुनाव में उतरी थी. ऐसे में जय नारायण व्यास कैबिनेट में राजस्व मंत्री और प्रदेश के पहले डिप्टी सीएम टीकाराम पालीवाल को मुख्यमंत्री बनाया गया.
इसके ठीक 8 महीने बाद जय नारायण व्यास उपचुनाव जीत विधायक बने और फिर सीएम भी बन गए. व्यास ने एक बार फिर पालीवाल को अपना डिप्टी सीएम बनाया, लेकिन इन 8 महीनों में बहुत कुछ बदल चुका था. पालीवाल सीएम से डिप्टी डिमोशन के माहौल में ज्यादा सहज नहीं हो सके और उन्होंने इस्तीफा दे दिया. इसके बाद विरोध खत्म नहीं हुआ, लेकिन इस बार गुटबाजी जय नारायण व्यास और टीकाराम पालीवाल में नहीं थी, बल्कि जय नारायण व्यास और उन्ही के शिष्य मोहन लाल सुखाड़िया के बीच हुआ.
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1954 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के खास माने जाने वाले मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास को पद गंवाना पड़ा था और वोटिंग के बाद मोहनलाल सुखाड़िया को सीएम बनाया गया था. मोहन लाल सुखाड़िया ने अपने ही गुरु को कुर्सी से हटाते हुए 13 नवंबर 1952 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.
राजनीति विशेषज्ञ प्रतुल सिंहा बताते हैं कि प्रदेश की सियासत में अगर अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे के पहले के 2 कार्यकाल को हटा दिया जाए तो हर 5 साल में प्रदेश में इस तरह के राजनीतिक गुटबाजी खुलकर सामने आती है और सरकार गिराने की कोशिश भी सामने आती है.
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इसके बाद सीएम बरकतुल्लाह खान की हार्टअटैक से मौत के बाद अगस्त 1973 में हरिदेव जोशी को सीएम बनाया गया था. लेकिन जाट नेता रामनिवास मिर्धा के विरोध के बाद विधायक दल के नेता के लिए वोटिंग हुई और मिर्धा को हरिदेव जोशी से कम वोट मिले और जोशी मुख्यमंत्री बने रहे. प्रदेश में उस वक्त मिर्धा जाट समाज के बड़े नेताओं में शुमार थे, ऐसे में जाट समाज में इसको लेकर लंबे समय तक कांग्रेस के प्रति नाराजगी रही.
1980 से 1990 के बीच सबसे ज्यादा CM बदले गए...
- मार्च 1980 से मार्च 1990 तक के शासन काल में सबसे ज्यादा सीएम बदले गए. राष्ट्रपति शासन के बाद चुनावों में मार्च 1980 में कांग्रेस ने जगन्नाथ पहाड़िया को सीएम बनाया. उनके काम करने के तरीके और ब्यूरोक्रेसी के फीडबैक के बाद आलाकमान ने जुलाई 1981 में उन्हें हटाकर शिवचरण माथुर को सीएम बना दिया.
- फरवरी 1985 में भरतपुर में मानसिंह एनकाउंटर की घटना हुई. कांग्रेस से जुड़ते जाट समाज के आक्रोश को शांत करने के लिए आलाकमान ने शिवचरण माथुर को हटा दिया और हीरालाल देवपुरा को कार्यवाहक सीएम बना दिया.
- मार्च 1985 में हरिदेव जोशी को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन पार्टी का विरोधी गुट लगातार जोशी के खिलाफ एक्टिव रहा. इसके बाद राजीव गांधी ने हरिदेव जोशी को बुलाकर इस्तीफा ले लिया और असम का राज्यपाल बना कर भेज दिया.
- जनवरी 1988 में शिवचरण माथुर को फिर से मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन लोकसभा चुनावों में हुई हार के बाद सीएम शिवचरण माथुर का इस्तीफा हो गया. हरिदेव जोशी को फिर से दिसंबर 1989 में मुख्यमंत्री बनाया गया.
90 के दशक में इन नेताओं का था वर्चस्व
राजस्थान में 90 के दशक में कांग्रेस में हरिदेव जोशी, परसराम मदेरणा, शिवचरण माथुर जैसे दिग्गजों का वर्चस्व कायम था. मदेरणा उस समय प्रदेश कांग्रेस कमेटी के चीफ हुआ करते थे और उनकी अध्यक्षता में कांग्रेस 1990 और 1993 के विधानसभा चुनाव हार चुकी थी. इस दौरान अशोक गहलोत की नजर मदेरणा के सीएम कुर्सी पर थी. अशोक गहलोत पहले हरिदेव जोशी के साथ पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने.
साल 1998 का विधानसभा चुनाव...
साल 1998 में विधानसभा चुनाव हुए तो राजस्थान में जाट आरक्षण आंदोलन उफान पर था. राजस्थान की कुल 200 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस 153 सीटें जीतने में सफल रही और अब बारी थी कांग्रेस विधायक दल नेता के चुनाव की. विधायक दल के नेता के लिए पहला दावा जाट नेताओं का था. आरक्षण आंदोलन ने जाटों को नई राजनीतक चेतना से लैस किया था.
बता दें कि परसराम मदेरणा जाट समुदाय से आते थे और कांग्रेस के दिग्गज नेता माने जाते थे. मदरेणा पुराने कांग्रेसी थे और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार भी थे. इसके अलावा दूसरे नंबर पर नटवर सिंह की दावेदारी थी. नटवर सिंह जाट होने के अलावा गांधी परिवार के भी करीबी थे. ये फैक्टर अब मायने रखता था क्योंकि राव-केसरी दौर बीत चुका था और अब सोनिया कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष थीं.
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राजस्थान के कांग्रेस प्रभारी माधव राव सिंधिया के अलावा गुलाब नबी आजाद, मोहसिना किदवई और बलराम जाखड़ एक होटल में रुके हुए थे. बारी-बारी से नए चुने हुए विधायकों से मुख्यमंत्री बनाए जाने की राय ली गई. इस समय तक प्रदेश में अशोक गहलोत अपनी पकड़ बना चुके थे. यह नतीजा गहलोत की बाजी परसराम मदेरणा पर भारी पड़ी. मदेरणा ने विधानसभा अध्यक्ष के पद के बदले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दावा छोड़ दिया. 1 दिसंबर 1998 को अशोक गहलोत की प्रदेश के नए मुख्यमंत्री के तौर पर ताजपोशी हुई. उस वक्त इस बात को देखा गया था कि युवाओं के हाथों में सत्ता की चाबी सौंपी गई और पुरानी पीढ़ी इस फैसले को स्वीकार करना पड़ा.
साल 2008 का चुनाव...
2008 में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी थे. जोशी ने राजस्थान में जमकर मेहनत की और वसुंधरा राजे सरकार को सत्ता से बेदखल करने में कामयाब रहे. उस वक्त कांग्रेस आलाकमान में सीपी जोशी की अच्छी पकड़ मानी जा रही थी. एक बार के लिए तो यह लग रहा था कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बानी तो सीपी जोशी मुख्यमंत्री होंगे. लेकिन चुनाव परिणाम में सीपी जोशी एक वोट से चुनाव हार गए.
सीपी जोशी के चुनाव हारने के बाद महिपाल मदेरणा ने कांग्रेस से मुख्यमंत्री के लिए दावेदारी पेश की, लेकिन इस बार फिर खामोशी के साथ वक्त का इंतजार कर रहे अशोक गहलोत ने आलाकमान के समक्ष कुछ इस तरह से दाव खेला कि बाकी सब चारों खाने चित हो गए. राजनीतिक पंडित तो यहां तक कहते हैं कि सीपी जोशी की हार के पीछे गहलोत की अहम भूमिका रही है.
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अशोक गहलोत 2008 में फिर से राजस्थान के मुख्यमंत्री बने तो सीपी जोशी के प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए संगठन और सरकार के बीच तनातनी बनी रही. लेकिन गहलोत के सियासी जादूगरी के बीच सीपी जोशी लगातार कमजोर होते चले गए. राजस्थान में कांग्रेस के दिग्गज नेता और पार्टी के जाट चेहरा महिपाल मदेरणा जैसे नेताओं ने अशोक गहलोत को परेशान किया तो 'बदले की राजनीति का कड़ा विरोध' करने वाले गहलोत चुप रहे. इसके बाद गहलोत सरकार में ही मदेरणा भंवरी देवी कांड में फंस गए और जेल चले गए, जिसके बाद से उनका सियासी वजूद ही खत्म हो गया है.
2013 में प्रदेश की कमान पायलट को सौंपी गई...
राजस्थान में 2013 के विधानसभा चुनाव में अशोक गहलोत हार गए और राष्ट्रीय राजनीति में चले गए. इसके बाद प्रदेश की कमान युवा चेहरा सचिन पायलट को दी गई. उसके बाद लोकसभा चुनाव में सचिन पायलट को करारी शिकस्त मिली और 25 की 25 सीटें हार गए. इस दौरान सचिन पायलट भी चुनाव हार गए, लेकिन कांग्रेस आलाकमान ने उन पर भरोसा जताते हुए 5 साल तक उनको कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाए रखा.
इस दौरान सचिन पायलट राजस्थान में दिन-रात मेहनत कर कांग्रेस की खोई हुई सियासी जमीन को मजबूत करने का काम करते रहे. इस बीच में प्रदेश में हुए 2 लोकसभा और 4 विधानसभा उप चुनाव हुए, इसमें दोनों लोकसभा और 3 विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने जीत हासिल की.
अब बात 2018 के चुनाव की...
प्रदेश अध्यक्ष के रूप में कमान संभाल रहे सचिन पायलट के साथ अशोक गहलोत 2018 के चुनाव में राजस्थान की राजनीति में एक बार फिर से सक्रिय हो चुके थे. इसके साथ ही सचिन पायलट से उनकी अदावत शुरू हो गई थी. 2018 के विधानसभा चुनाव में टिकट बंटवारे को लेकर सचिन पायलट और अशोक गहलोत में ठन गई, लेकिन इस बार सचिन पायलट अशोक गहलोत पर भारी पड़े.
चुनाव में बढ़ते विवादों के बीच राहुल गांधी ने सचिन पायलट को फ्री हैंड दे दिया, तब राजनीति में शार्फ शूटर माने जाने वाले अशोक गहलोत ने अपने लोगों को निर्दलीय खड़ा कर दिया और 11 निर्दलीय के अलावा अपने एक करीबी स्वास्थ्य राज्य मंत्री सुभाष गर्ग को राष्ट्रीय लोक दल से समझौते के नाम पर टिकट दिलाकर ही नहीं बल्कि जिताकर भी ले आए.
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विधानसभा चुनाव का नतीजा सामने आया तो कांग्रेस बहुमत से 1 सीट पीछे रह गई, तो अशोक गहलोत ने 13 निर्दलीय और राष्ट्रीय लोक दल के विधायक के साथ अपनी ताकत का एहसास कराया. इसके बाद भी सचिन पायलट सीएम से नीचे कुछ स्वीकार नहीं करना चाहते थे, लेकिन अशोक गहलोत सियासी के महारथी थे, लिहाजा आलाकमान को अपने पक्ष में करने के लिए गहलोत खुद सीएम और पायलट को डिप्टी सीएम बनाने में कामयाब रहे.
हालांकि, कांग्रेस आलाकमान ने पायलट को प्रदेश अध्यक्ष की कमान भी दे रखी थी, लेकिन गहलोत ने अब पौने दो साल बाद ऐसा जाल बिछाया जिसमें पायलट ने बागवत का झंडा उठा लिया. इस बगावत के बीच सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष और डिप्टी सीएम का पद गवाना पड़ गया.
बीजेपी में हुई थी 2 बार शेखावत सरकार को गिराने की कोशिश
बता दें कि साल 1990 और 1996 में 2 बार बीजेपी के मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत के साथ ऐसा हो चुका है. दोनों बार शेखावत अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे थे और इसी कारण उनका भाजपा में राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा कद माना जाता है. दूसरी तरफ कांग्रेस में भी यहां एक बार जवाहर लाल नेहरू के करीबी रहे मुख्यमंत्री जयनारायण व्यास को इस्तीफा देना पड़ा था.
जनता दल के विधायक टिकट पर जीत कर आए भंवर लाल शर्मा ने 1996 में शेखावत सरकार के तख्तापलट के प्रयास किए थे. शेखावत अमेरिका में हार्ट का ऑपरेशन करवाने गए थे कि इसी बीच शर्मा ने निर्दलीय राज्यमंत्री शशि दत्ता के साथ सरकार को गिराने की तैयारी कर ली थी. इसमें शर्मा ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता भजन लाल की मदद ली थी.
अमेरिका से बिना ऑपरेशन कराए लौट आए थे शेखावत...
निर्दलीय करौली विधायक रणजी मीणा को लालच दिया गया, साथ ही मंत्री बनाने का भी वादा किया गया, लेकिन मीणा ने यह बात शेखावत के दामाद नरपत सिंह राजवी तक पहुंचा दी. उस समय राजवी शेखावत के साथ अमेरिका में थे. इसके बाद डॉक्टरों के मना करने के बाद भी शेखावत बिना ऑपरेशन कराए लौट आए थे. शेखावत ने लौटने के बाद विधायकों और मंत्रियों को चौखी ढाणी में ले जाकर ठहरा दिया. करीब 15 दिनों तक वे यहीं रुके रहे और इसके बाद विधानसभा में बहुमत सिद्ध किया.
बताया जाता है कि 1990 में केंद्र में तत्कालीन वीपी सिंह सरकार के समय राजस्थान में शेखावत सरकार को बचाने में उनका अहम योगदान था. इसी के चलते उपचुनाव में शेखावत ने राजाखेड़ा से चुनाव लड़ाने का आश्वासन दिया था, जब दूसरा उम्मीदवार तय कर लिया तो उन्हें ठेस पहुंची. इसी के चलते उन्होंने 1996 में शेखावत सरकार को गिराने का फैसला कर लिया.