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स्पेशल: अपनी कला से गुलाबी नगरी को संजोए रखने वाले मिनाकारों पर तंगहाली का साया - राजस्थान की खबर

रंग-बिरंगे प्रदेश राजस्थान का एक अहम हिस्सा है, यहां की मीनाकारी. यह एक ऐसी कला है, जो जन्नत के रंगों को महीन कारीगरी में सजाकर बनाती है. एक नायाब अजूबा, जो आभूषण की कला को एक नया आयाम देता है. लेकिन कोरोना काल में ये कला भी अब दम तोड़ रही है. कारीगरों के पलायन करने और विदेशी पर्यटकों के मुंह मोड़ लेने से मिनाकारी अब लुप्त होने की कगार पर है.

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तंगहाली में जीवन जीने को मजबूर मीनाकार
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Published : Dec 2, 2020, 2:15 PM IST

जयपुर. सुनहरी सी जमी पर रंगों का तानाबाना है, हाथों ने मिलके रंगों से सृष्टि के भव्य नजारों को सजाना है. फूलों में खिलते रंग हों या हिचकोले खाती बेले, ये सब मीनाकारी आर्ट के जरिए कलाकार गुलाबी नगरी में संजोकर रखे हैं. हालांकि हर जगह की मिनाकारी की अपनी खासियत, तकनीक और शैली है. लेकिन जयपुर शहर के अजमेरी गेट के अंदर तंग गलियों में अपनी अलग मिनाकारी की नायाब कला को संजोए कई परिवार हैं, जो पीढ़ियों से इस काम को कर रहे हैं. लेकिन अफसोस कोरोना ने उनकी कला की कद्र को कम कर दिया है, जिसकी वजह से मीनाकारी आर्ट अब बंद कमरों में धूल फांक रही है.

तंगहाली में जीवन जीने को मजबूर मीनाकार

मीनाकारी की कला में अहम योगदान देने वाले भट्टी के मजदूर महमूद कहते हैं कि, ये उनका खानदानी काम है. इसको करते हुए उन्हें कई साल बीत गए. लेकिन कोरोना के बाद स्थिति बेहाल हो गई. जबकि उससे पहले बहुत अच्छा काम था. लेकिन अब न माल बिक पा रहा है और न ही देश-विदेश जा पा रहा हैं, जिसके चलते काम-धंधा बिल्कुल चौपट हो गया है. इसका असर उनके परिवार की आर्थिक स्थिति पर पड़ रहा है. महमूद का कहना है कि, पहले 7-8 कामदार उनके साथ काम पर लगते थे. आज मजबूरन एक मशीन पर सिर्फ एक आदमी ही काम को अंजाम दे रहा है, जिसके तहत मजदूरी तो दूर की बात लागत भी निकालना मुश्किल है.

यह भी पढ़ें: स्पेशल: गुलाबी नगरी में यातायात को सुगम बनाने वाले नौ प्रोजेक्ट सपने या बनेंगे हकीकत?

इनमें से कुछ परिवार ऐसा मानते हैं कि उनके पूर्वजों की बारीकी को उन्होंने अपनाया और आज तक ये काम कर रहे हैं. आर्टिस्ट मोहम्मद शाहरुख बताते हैं कि, वो अपने पूर्वजों की चौथी पीढ़ी है और ये काम कर रहे हैं. ये मिनाकारी बनारस की प्रसिद्ध पेन्टिंग है, जो अब सोने, चांदी और तांबे जैसी धातुओं पर होती है. लेकिन उनके पूर्वजों ने अपनी अलग शैली से वाइट मेटल एल्यूमिनियम मीनाकारी शुरू की, जिसको करते हुए उनके परिवार को करीब 20 साल हो चुके हैं. इस कला को विदेशी पर्यटक खासा पसंद करते है यही वजह है कि, इसकी सप्लाई देश-विदेश तक होती है. इस मिनाकारी में फूल-पत्तियां, बेल, परिंदे, बेलबूटे और खुशनवीसी जैसे रूपांकन लोकप्रिय है. ये कुछ ऐसे डिजाइन्स हैं. जो सदियों से इस कला से जुड़े हुए हैं. शिल्पकार छोटे से छोटे कलाकृति को हाथ से ही बनाते हैं और उसके बाद डिजाइन को उकेरा जाता है.

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गुलाबी नगरी में मीनाकारी

क्या है मीनाकारी का इतिहास

दरअसल, 17वीं शताब्दी में पर्सिया से मुगलों के दरबारों को रंगते हुए मीनाकारी राजस्थान की धरती तक आ पहुंची. इस कला से मुग्ध होकर मेवाड़ के राजा मान सिंह ने लाहौर के कुछ मीनाकारों को जयपुर बुलवाया. तब से गुलाबी नगरी की संकरी गलियों में ये मीनाकारी का गढ़ बन गया. वैसे तो रंगों के हिसाब से मीनाकारी करने के कई तरीके है, जिनमें से पंचरंगा, गुलाबी, खुला और बंद मीना खासा प्रचलित है. लेकिन असली मीनाकारी की प्रक्रिया में नक्काशी के अलग-अलग भागों में मीनाकारी काम करके उन्हें भट्टी में तपाया जाता है. जहां कारीगर के फोकस और स्किल की असली परीक्षा इसी समय होती है. क्योंकि कारीगर की ही परख है, जो डिजाइन और तापमान जैसी बारीकियों को सिर्फ आंखों से पकड़ लेती है. ऐसे तो मीनाकारी के आभूषण बनाने की प्रक्रिया लंबी होती है और इसके कई चरण होते हैं. यही वजह है कि, मीनाकारी का एक टुकड़ा कई माहिर हाथों से गुजरते हुए मूर्तरूप लेता है.

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मिनाकारों पर तंगहाली का साया...

यह भी पढ़ें: Special : छोटी चौपड़ पर 'गुलाबी तहखाने' में खूबसूरत विरासत...मेट्रो आर्ट गैलरी हुई शुरू

लेकिन ये अद्भुत कला वर्तमान समय में दम तोड़ रही है. वैश्विक कोरोना महामारी के चलते मीनाकारी की कला को संवारने वालों पर संकट आ खड़ा हुआ है. इसको संजोकर रखने वाले मोहम्मद साजिद कहते हैं कि, कोरोना के चलते न शोरूम खुल रहे है और न ही बाहरी पर्यटक आ रहे हैं. साथ ही लॉकडाउन के बाद मीनाकारी का काम करने वाले कई बाहरी शिल्पकारों ने यहां से पलायन कर लिया, जो अब तक वापस नहीं लौटे और उन्होंने अपना काम भी बदल लिया. वहीं अनलॉक के बाद भी विदेशी पयर्टकों का मीनाकारी के प्रति रुझान कम होने से ये कला अब लुप्त होने के आखिरी पड़ाव पर आ खड़ी हुई है.

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क्या है मीनाकारी का इतिहास...

यह भी पढ़ें: वाई-फाई डेबिट कार्ड इस्तेमाल करते हैं तो जान लें ये बातें, नहीं तो उड़ जायेगी आपकी गाढ़ी कमाई

मीनाकारी के हर आभूषण से कई कारीगरों की कल्पना का एक हिस्सा जुड़ा हुआ है, जो अब कोविड के दौर में धुंधला होता जा रहा है. क्योंकि एक समय राज्य सरकार द्वारा खुद इस कला के संरक्षण के लिए फेस्टिवल तक होते थे, जो अब बंद हो गए हैं. ऐसे में अब जरूरत है मीनाकारी की शैली को संवारने की, जिसकी अहम जिम्मेदारी राज्य सरकार की भी बनती है.

जयपुर. सुनहरी सी जमी पर रंगों का तानाबाना है, हाथों ने मिलके रंगों से सृष्टि के भव्य नजारों को सजाना है. फूलों में खिलते रंग हों या हिचकोले खाती बेले, ये सब मीनाकारी आर्ट के जरिए कलाकार गुलाबी नगरी में संजोकर रखे हैं. हालांकि हर जगह की मिनाकारी की अपनी खासियत, तकनीक और शैली है. लेकिन जयपुर शहर के अजमेरी गेट के अंदर तंग गलियों में अपनी अलग मिनाकारी की नायाब कला को संजोए कई परिवार हैं, जो पीढ़ियों से इस काम को कर रहे हैं. लेकिन अफसोस कोरोना ने उनकी कला की कद्र को कम कर दिया है, जिसकी वजह से मीनाकारी आर्ट अब बंद कमरों में धूल फांक रही है.

तंगहाली में जीवन जीने को मजबूर मीनाकार

मीनाकारी की कला में अहम योगदान देने वाले भट्टी के मजदूर महमूद कहते हैं कि, ये उनका खानदानी काम है. इसको करते हुए उन्हें कई साल बीत गए. लेकिन कोरोना के बाद स्थिति बेहाल हो गई. जबकि उससे पहले बहुत अच्छा काम था. लेकिन अब न माल बिक पा रहा है और न ही देश-विदेश जा पा रहा हैं, जिसके चलते काम-धंधा बिल्कुल चौपट हो गया है. इसका असर उनके परिवार की आर्थिक स्थिति पर पड़ रहा है. महमूद का कहना है कि, पहले 7-8 कामदार उनके साथ काम पर लगते थे. आज मजबूरन एक मशीन पर सिर्फ एक आदमी ही काम को अंजाम दे रहा है, जिसके तहत मजदूरी तो दूर की बात लागत भी निकालना मुश्किल है.

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इनमें से कुछ परिवार ऐसा मानते हैं कि उनके पूर्वजों की बारीकी को उन्होंने अपनाया और आज तक ये काम कर रहे हैं. आर्टिस्ट मोहम्मद शाहरुख बताते हैं कि, वो अपने पूर्वजों की चौथी पीढ़ी है और ये काम कर रहे हैं. ये मिनाकारी बनारस की प्रसिद्ध पेन्टिंग है, जो अब सोने, चांदी और तांबे जैसी धातुओं पर होती है. लेकिन उनके पूर्वजों ने अपनी अलग शैली से वाइट मेटल एल्यूमिनियम मीनाकारी शुरू की, जिसको करते हुए उनके परिवार को करीब 20 साल हो चुके हैं. इस कला को विदेशी पर्यटक खासा पसंद करते है यही वजह है कि, इसकी सप्लाई देश-विदेश तक होती है. इस मिनाकारी में फूल-पत्तियां, बेल, परिंदे, बेलबूटे और खुशनवीसी जैसे रूपांकन लोकप्रिय है. ये कुछ ऐसे डिजाइन्स हैं. जो सदियों से इस कला से जुड़े हुए हैं. शिल्पकार छोटे से छोटे कलाकृति को हाथ से ही बनाते हैं और उसके बाद डिजाइन को उकेरा जाता है.

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गुलाबी नगरी में मीनाकारी

क्या है मीनाकारी का इतिहास

दरअसल, 17वीं शताब्दी में पर्सिया से मुगलों के दरबारों को रंगते हुए मीनाकारी राजस्थान की धरती तक आ पहुंची. इस कला से मुग्ध होकर मेवाड़ के राजा मान सिंह ने लाहौर के कुछ मीनाकारों को जयपुर बुलवाया. तब से गुलाबी नगरी की संकरी गलियों में ये मीनाकारी का गढ़ बन गया. वैसे तो रंगों के हिसाब से मीनाकारी करने के कई तरीके है, जिनमें से पंचरंगा, गुलाबी, खुला और बंद मीना खासा प्रचलित है. लेकिन असली मीनाकारी की प्रक्रिया में नक्काशी के अलग-अलग भागों में मीनाकारी काम करके उन्हें भट्टी में तपाया जाता है. जहां कारीगर के फोकस और स्किल की असली परीक्षा इसी समय होती है. क्योंकि कारीगर की ही परख है, जो डिजाइन और तापमान जैसी बारीकियों को सिर्फ आंखों से पकड़ लेती है. ऐसे तो मीनाकारी के आभूषण बनाने की प्रक्रिया लंबी होती है और इसके कई चरण होते हैं. यही वजह है कि, मीनाकारी का एक टुकड़ा कई माहिर हाथों से गुजरते हुए मूर्तरूप लेता है.

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मिनाकारों पर तंगहाली का साया...

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लेकिन ये अद्भुत कला वर्तमान समय में दम तोड़ रही है. वैश्विक कोरोना महामारी के चलते मीनाकारी की कला को संवारने वालों पर संकट आ खड़ा हुआ है. इसको संजोकर रखने वाले मोहम्मद साजिद कहते हैं कि, कोरोना के चलते न शोरूम खुल रहे है और न ही बाहरी पर्यटक आ रहे हैं. साथ ही लॉकडाउन के बाद मीनाकारी का काम करने वाले कई बाहरी शिल्पकारों ने यहां से पलायन कर लिया, जो अब तक वापस नहीं लौटे और उन्होंने अपना काम भी बदल लिया. वहीं अनलॉक के बाद भी विदेशी पयर्टकों का मीनाकारी के प्रति रुझान कम होने से ये कला अब लुप्त होने के आखिरी पड़ाव पर आ खड़ी हुई है.

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मीनाकारी के हर आभूषण से कई कारीगरों की कल्पना का एक हिस्सा जुड़ा हुआ है, जो अब कोविड के दौर में धुंधला होता जा रहा है. क्योंकि एक समय राज्य सरकार द्वारा खुद इस कला के संरक्षण के लिए फेस्टिवल तक होते थे, जो अब बंद हो गए हैं. ऐसे में अब जरूरत है मीनाकारी की शैली को संवारने की, जिसकी अहम जिम्मेदारी राज्य सरकार की भी बनती है.

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