जयपुर. वैश्विक कोरोना महामारी के संक्रमण को लेकर देशभर में हुए लॉकडाउन से रोजाना कड़ी मेहनत कर घर परिवार का भरण पोषण करने वाले कारीगरों पर आर्थिक संकट गहराने लगा है. बांस से निर्माण कर विभिन्न प्रकार की सामग्री तैयार कर बाजार में बेच कर घर चलाने वाले कारीगरों का भी हाल बदहाल है. इन्ही सब कारणों से जोगी समाज की नई पीढ़ी अब दूसरे व्यवसाय की ओर पलायन करने को मजबूर है.
वैसे तो पारंपरिक कलाओं में कुशल कामगारों की कमी राजस्थान में नहीं है, लेकिन बिना व्यापार और सरकारी मदद के अभाव में ये कलाएं दम तोड़ रही हैं. बांस की संस्कृति से जुड़े जोगी समाज के सामने कोरोना संकटकाल में रोजी-रोटी का संकट खड़ा है. बांस को छीलकर कलाकृति बनाने वाले कारीगर अब मदद को तरस रहे हैं. ये कारीगर कैसे भी करके अपने पुश्तैनी काम को आगे बढाने में लगे हैं, लेकिन कोरोना से गुजर-बसर मुश्किल हो गया है. जिससे समाज की परंपरा विलुप्त होने की कगार पर पहुंच रही है.
![Economic crisis in front of bamboo artisan, Bamboo artisans in jaipur](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/8834293_th2.jpg)
200 से ज्यादा सदस्यों की बस्ती
जयपुर के मानसरोवर मेट्रो एक्सटेंशन के पास एक ऐसी ही कच्ची बस्ती है. जहां दो भाइयों का परिवार करीब 30 साल पहले जालोर से पलायन कर राजधानी में पहुंचा. उन्होंने बांस के जरिए अपनी कला बेची और घर-परिवार का भरण-पोषण किया. यहां उनका कुनबा अब 200 से ज्यादा सदस्यों के रूप में बस चुका है और एक कच्ची बस्ती का रूप ले चुका है. यहां सभी महिला और पुरुष बांस कारीगरी से अपनी पुश्तैनी कला को संवारने में जुटे हैं. इन बांस की पतली काठी से वो विभिन्न प्रकार के रंगबिरंगी टोकरी, सुप, दौरा बांस का हाथ पंखा, कुर्सियां और यहां तक की बांस की झोपड़िया बनाकर बेचते हैं, लेकिन अब कोरोना में हालात बिल्कुल उलट हो चुके हैं.
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वहीं, उन्हीं में से एक हरजीराम जोगी का पूरा परिवार है, जिनके 6 बेटे हैं और सबको मिलाकर कुल 20 लोग हैं. उनका परिवार भी बांस से कुछ सामान बनाकर और उसको बेचकर दो वक्त के लिए चूल्हे पर रोटी पकाते हैं. हरजीराम बताते हैं कि ले जालोर जिले के रहने वाले हैं और करीब 30-35 सालों से यहीं बसें है. सरकार उनके समाज की ओर नहीं देखती है और बिना मेहनत पेट भराई नहीं होती है.
आटे का भी करना पड़ता है जुगाड़
हरजीराम का कहना है कि कोरोना आने से उनका व्यापार इस कदर बेरंग हो गया कि अब पेट भराई के लिए भी आटे का जुगाड़ करना पड़ता है. हालांकि, लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में आटा जरूर मिला, लेकिन उसके भरोसे अभी तक गुजारा मुमकिन नहीं है. ऐसे में काम धंधे से रोटी का जुगाड़ किया, लेकिन ग्राहक नहीं आने से सब कुछ चौपट हो गया.
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वहीं, जगदीश नाथ जोगी बताते हैं कि उनका परिवार बांस खरीदकर लेकर आता है और फिर उससे टाटिया, टोकरियां, लेप, झोपड़ियां ओर देशी पर्दे सब कुछ बनाकर बेचते हैं. लेकिन फिलहाल धंधा एकदम मंदा है. अब हालात इस कदर हो चुके हैं कि लोग अपने हुनर को छोड़ दूसरे कामों की तरफ पलायन कर रहे हैं.
मजबूरी में कर रहे कोई और काम
जगदीश नाथ का कहना है कि अब बांस के कारीगर मजबूरी में कचरा बीनने और दिहाड़ी मजदूरी की ओर बढ़ रहे हैं क्योंकि अनलॉक के बाद जो माल बनाया वो बिका नहीं और पूरा माल बरसात में भींग कर खराब हो गया. जिसकी वजह से एक रुपए की चीज 25 पैसे में देनी पड़ रही है, लेकिन फिर नहीं बिक रही. उनका कहना है कि पहले एक दिन में 5000 से अधिक कमा लेते थे, लेकिन अब 500 रुपए का भी सामान नहीं बिकता है.
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इन हुनरमंदों के हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि अब वो परिवार चलाने के लिए या तो धनाढ्य लोगों से ब्याज पर धनराशि लेते हैं और या फिर बच्चों और महिलाओं से भीख मांगवाकर पेट पालते हैं. यहां तक कि इस समाज की नई पीढ़ी अब दूसरे व्यवसाय की ओर पलायन करने को मजबूर हैं. यदि ऐसा ही चलता रहा तो बाकी कलाओं की तरह ये कला भी दम तोड़ देगी. इसके लिए जरूरत है कि राज्य सरकार इन हुनरमंद जोगी समाज के संरक्षण और संवर्धन के लिए कुछ कदम उठाएं.