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जयपुर में ऐसा मेला, जिसका उद्धाटन करने से बचता है हर नेता, क्योंकि जिसने भी काटा यहां फीता, छीन गई उसकी सत्ता - एक अनोखा गधों का मेला

देश-विदेश में कई तरीके के मेले लगते है और भारत में तो हाट-बाजारों की परम्परा बहुत पुरानी है. आज के समय में आम आदमी की नजरों में भले ही गधों का कोई मोल नहीं हो, लेकिन प्रदेश की राजधानी में एक ऐसी जगह है जहां सिर्फ गधों का मेला लगता है.

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Published : Oct 22, 2019, 1:40 PM IST

बस्सी (जयपुर). राजधानी के पास लुनियावास में भावगढ़ बंध्या में प्राचीन प्रतिष्ठित खलखाणी माता मंदिर पर एक अनोखा गधों का मेला लगता है. यह मेला हर वर्ष आश्विन महीने के नवरात्रों में शुक्लपक्ष की सप्तमी से लेकर दशमी तिथि तक चार दिन लगता है.

जयपुर का गदर्भ मेला

ऐसी मान्यता है कि कभी देवगणों ने यहां ब्रह्माणी माता की स्थापना कर भीमा नामक एक राक्षस को केवल रात के समय सरोवर बनाने का निर्देश दिया. राक्षस ने यहां की खोरी और रोपड़ा की पहाड़ियों के पत्थरों से डेढ़ किमी की परिधि में सरोवर का ढांचा बना दिया. लेकिन यह काम करते हुए भीमा को सुबह हो चुकी है. इसलिए देवता वहां से चले गए और जाते-जाते इस जगह पर चार दिन गर्दभ का वास होने का श्राप दिया तब से यहां पर गर्दभ मेला लगता है. कहते हैं कि भीमा राक्षस ने भी सरोवर में पानी नहीं ठहरने का श्राप दिया था, जिसकी वजह से यहां के सरोवर में पानी कभी नहीं रुकता है.

पढ़ें- जयपुर के आमेर में हनुमान चालीसा पाठ करने के बाद जोरदार आतिशबाजी के साथ किया गया रावण दहन

दूसरी मान्यता के अनुसार मेले की शुरुआत 500 साल पहले कछवाहों ने की थी. उस वक्त कछवाहों ने चान्द्रा मीणा को एक युद्ध मे हराया था और उस खुशी में कछवाहों ने इसकी शुरुआत की. ये मेला गांव की सालों से खालकानी माता की पचास एकड़ जमीन पर लगाया जाता है. पहले इस मेले में करीब 25 हजार से भी ज्यादा गधे बिकने आते थे, लेकिन वक्त के साथ ये संख्या कम हो गई है. अब महज 5 हजार गधे ही मेले में आते हैं.

दांत और उम्र देखकर तय होती है गधे की कीमत...

इस मेले में गधों, खच्चरों और घोड़ों की खरीद-फरोख्त की जाती है. इस मेले में गधों को उनकी खासियत के आधार पर खरीदा और बेचा जाता है. व्यापारियों के मुताबिक हर साल गधे की कीमत उसके दांत और उम्र देखकर तय की जाती है. 2 और 4 दांत वाले गधों की भाव ज्यादा होता है. इस मेले में गधों की खरीद फरोख्त के साथ ही खाने-पीने का सामान के साथ ही पशुओं को सजाने का भी सामान मिलता है.

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दांतो के संख्या के आधार पर तय होती गधे की कीमत

पढ़ें- जयपुरः झोटवाड़ा में नशामुक्त शाकाहारी समागम का आयोजन

मेले से जुड़ी कुछ खास बातें...

  • मेले के उद्घाटन करने के लिए कोई नेता, मंत्री या सरकारी अधिकारी नहीं आते हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जिसने भी इस मेले का उद्घाटन किया है. उसने अपना पद खो दिया.
  • मेले में न सिर्फ राजस्थान से बल्कि यूपी, मप्र, आदि से भी गधे बिकने आते हैं. साथ ही साथ इनके खरीददार भी कई राज्यों से यहां आते है.
  • गधों को खरीदने के लिए कश्मीर, कन्याकुमारी से भी खरीददार आते है.

पढ़ें- जयपुरः धूं-धूं कर जला रावण का अहंकार, दशहरा मेले में चायनीज सामान के बहिष्कार का भी दिया संदेश

गधों को साबुन से नहलाकर करते हैं तैयार...

मेले में मनोरंजन के लिए गधों और घोड़ों की दौड़ होती है. मेले में आए गधों को साबुन को नहलाया जाता है. इतना ही नहीं उनके शरीर पर कई प्रकार की डिजाइन भी बनाई जाती है, जो लोगों को काफी लुभाती है.

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गधों पर बनाई जाती है रंग-बिरंगी डिजाइन

अब गधे कम घोड़े ज्यादा आने लगे हैं...

इस प्राचीन गदर्भ मेले में अब गधों की संख्या कम हो चुकी है. गधों की जगह व्यापारियों में घोड़ों की मांग बढ़ने के कारण इस मेले में घोड़े ही नजर आते हैं. यहां आने वाले व्यापारियों का कहना है कि गधों की कम कीमत मिलने के कारण वे यहां घोड़े बेच रहे हैं. गदर्भ मेला आयोजन समिति सदस्य बद्री बागड़ा ने बताया कि यह भारत ही नहीं पूरे एशिया से भी व्यापारी आते थे, लेकिन आधुनिक संसाधनों का अधिक उपयोग में आने से गधों का उपयोग कम हो गया है. जिसके चलते अब पहले जैसा मेला नहीं भरता है.

बस्सी (जयपुर). राजधानी के पास लुनियावास में भावगढ़ बंध्या में प्राचीन प्रतिष्ठित खलखाणी माता मंदिर पर एक अनोखा गधों का मेला लगता है. यह मेला हर वर्ष आश्विन महीने के नवरात्रों में शुक्लपक्ष की सप्तमी से लेकर दशमी तिथि तक चार दिन लगता है.

जयपुर का गदर्भ मेला

ऐसी मान्यता है कि कभी देवगणों ने यहां ब्रह्माणी माता की स्थापना कर भीमा नामक एक राक्षस को केवल रात के समय सरोवर बनाने का निर्देश दिया. राक्षस ने यहां की खोरी और रोपड़ा की पहाड़ियों के पत्थरों से डेढ़ किमी की परिधि में सरोवर का ढांचा बना दिया. लेकिन यह काम करते हुए भीमा को सुबह हो चुकी है. इसलिए देवता वहां से चले गए और जाते-जाते इस जगह पर चार दिन गर्दभ का वास होने का श्राप दिया तब से यहां पर गर्दभ मेला लगता है. कहते हैं कि भीमा राक्षस ने भी सरोवर में पानी नहीं ठहरने का श्राप दिया था, जिसकी वजह से यहां के सरोवर में पानी कभी नहीं रुकता है.

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दूसरी मान्यता के अनुसार मेले की शुरुआत 500 साल पहले कछवाहों ने की थी. उस वक्त कछवाहों ने चान्द्रा मीणा को एक युद्ध मे हराया था और उस खुशी में कछवाहों ने इसकी शुरुआत की. ये मेला गांव की सालों से खालकानी माता की पचास एकड़ जमीन पर लगाया जाता है. पहले इस मेले में करीब 25 हजार से भी ज्यादा गधे बिकने आते थे, लेकिन वक्त के साथ ये संख्या कम हो गई है. अब महज 5 हजार गधे ही मेले में आते हैं.

दांत और उम्र देखकर तय होती है गधे की कीमत...

इस मेले में गधों, खच्चरों और घोड़ों की खरीद-फरोख्त की जाती है. इस मेले में गधों को उनकी खासियत के आधार पर खरीदा और बेचा जाता है. व्यापारियों के मुताबिक हर साल गधे की कीमत उसके दांत और उम्र देखकर तय की जाती है. 2 और 4 दांत वाले गधों की भाव ज्यादा होता है. इस मेले में गधों की खरीद फरोख्त के साथ ही खाने-पीने का सामान के साथ ही पशुओं को सजाने का भी सामान मिलता है.

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दांतो के संख्या के आधार पर तय होती गधे की कीमत

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मेले से जुड़ी कुछ खास बातें...

  • मेले के उद्घाटन करने के लिए कोई नेता, मंत्री या सरकारी अधिकारी नहीं आते हैं, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जिसने भी इस मेले का उद्घाटन किया है. उसने अपना पद खो दिया.
  • मेले में न सिर्फ राजस्थान से बल्कि यूपी, मप्र, आदि से भी गधे बिकने आते हैं. साथ ही साथ इनके खरीददार भी कई राज्यों से यहां आते है.
  • गधों को खरीदने के लिए कश्मीर, कन्याकुमारी से भी खरीददार आते है.

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गधों को साबुन से नहलाकर करते हैं तैयार...

मेले में मनोरंजन के लिए गधों और घोड़ों की दौड़ होती है. मेले में आए गधों को साबुन को नहलाया जाता है. इतना ही नहीं उनके शरीर पर कई प्रकार की डिजाइन भी बनाई जाती है, जो लोगों को काफी लुभाती है.

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गधों पर बनाई जाती है रंग-बिरंगी डिजाइन

अब गधे कम घोड़े ज्यादा आने लगे हैं...

इस प्राचीन गदर्भ मेले में अब गधों की संख्या कम हो चुकी है. गधों की जगह व्यापारियों में घोड़ों की मांग बढ़ने के कारण इस मेले में घोड़े ही नजर आते हैं. यहां आने वाले व्यापारियों का कहना है कि गधों की कम कीमत मिलने के कारण वे यहां घोड़े बेच रहे हैं. गदर्भ मेला आयोजन समिति सदस्य बद्री बागड़ा ने बताया कि यह भारत ही नहीं पूरे एशिया से भी व्यापारी आते थे, लेकिन आधुनिक संसाधनों का अधिक उपयोग में आने से गधों का उपयोग कम हो गया है. जिसके चलते अब पहले जैसा मेला नहीं भरता है.

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Arvind


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