भरतपुर. आज भारत समेत पूरा विश्व कोरोना महामारी के संकट से जूझ रहा है, लेकिन आज से ठीक 100 साल पहले भरतपुर (तत्कालीन रियासत) ऐसी ही भीषण महामारी के संकट से गुजर चुका है. बात 1919 की है, जब भरतपुर की सेना मोमवासा (पूर्वी अफ्रीका) शांति युद्ध में भाग लेकर लौटी. सेना तो आई पर साथ अपने महामारी ले आई. जिसमें इस महामारी ने इतनी जान ले ली कि श्मशानों में जगह कम पड़ने लगी.
बता दें कि साल 1919 में भरतपुर की सेना पूर्वी अफ्रीका के मोमवासा से शांति युद्ध से वापस लौटी थी, लेकिन सेना के साथ ही भरतपुर में 'विनाश' के रूप में भयंकर बीमारी प्लेग भी यहां पहुंच गई. ग्रामीण क्षेत्रों में ना तो चिकित्सक उपलब्ध थे और ना ही उपचार की सुविधाएं. हालात यह हो गए कि श्मशान घाट में अंतिम संस्कार करने के लिए स्थान तक नहीं मिलता था. इतिहास के पन्नों में दफन ऐसी ही महामारी के बारे में भरतपुर के इतिहासकार रामवीर सिंह वर्मा ने ईटीवी भारत के साथ कुछ महत्वपूर्ण तथ्य साझा किए.
शवों को गाड़ियों में भरकर श्मशान घाट पहुंचाया जाता था
इतिहासकार रामवीर सिंह वर्मा ने बताया कि यह पहली बार नहीं है जब लोगों ने स्वेच्छा से खुद को घरों में कैद किया है. भरतपुर वासी ठीक 100 वर्ष पूर्व भी ऐसी घातक महामारी से जूझ चुके हैं. इतिहासकार वर्मा ने बताया कि इतिहास में इस बीमारी का जिक्र है. 18 सितंबर, 1914 को भरतपुर की सेना मोमवासा (पूर्वी अफ्रीका) शांति युद्ध में भाग लेने पहुंची. वर्ष 1919 को सेना शांति युद्ध से वापस भरतपुर लौटी. भरतपुर की इम्पीरियल सर्विस कॉर्प्स ने वहां पर अनेक प्रकार की विषैली गैस और रक्तपात को झेला. युद्ध के बाद जब भरतपुर के सैनिक लौटे तो उन जीवाणुओं ने यहां भी प्लेग फैला दिया.
सन 1920 में भरतपुर रियासत में प्लेग का इतना प्रकोप हुआ कि घरों के दरवाजों पर ताले लग गए थे. बाजार सुनसान हो गए थे. जब किसी व्यक्ति की मौत होती तो उसको कांधा देने के लिए लोग उपलब्ध नहीं हो पाते थे. हालात ये थे की बैल गाड़ियों में उपलों के साथ ही शवों को भी भरकर श्मशान घाट पहुंचाया जाता था. श्मशान घाट में भी कई बार शवों के अंतिम संस्कार के लिए स्थान नहीं मिलता था.
बचाव में इमली का सहारा
इतिहासकार रामवीर सिंह वर्मा ने बताया कि उस समय तक प्लेग की उपचार के लिए कोई औषधि नहीं थी. गांव में तो कोई डॉक्टर भी उस समय उपलब्ध नहीं था. प्लेग से बचाव के लिए इमली को सहारा बताया गया. लेकिन उस समय इमली का रस इतना महंगा हो गया कि 100 रुपए में भी 1 पॉन्ड इमली का रस नहीं मिल पाता था. बाद में भरतपुर से मथुरा और भरतपुर से आगरा के रास्ते पर इमली के बड़ी संख्या में पौधे लगाए गए. जिससे भविष्य में प्लेग फैले तो उपचार के लिए आसानी से इमली का रस उपलब्ध हो सके.
उस समय लॉकडाउन हुआ होता तो इतनी जनहानि नहीं होती
इतिहासकार रामवीर सिंह वर्मा ने बताया कि जिस तरह से कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए वर्तमान में पूरे देश भर में लॉकडाउन चल रहा है, वैसी जागरूकता यदि सन 1920 में होती तो प्लेग से इतनी बड़ी संख्या में जनहानि नहीं होती. तब बीमारी से डर कर घरों में दुबके थे और आज बीमारी को हराने के लिए स्वेच्छा से घरों में रह रहे हैं.