अलवर. देश-विदेश में लाखों लोगों की पसंद अलवर के मिल्क केक की शुरुआत 1947 से हुई थी. पाकिस्तान से विस्थापित होकर अलवर पहुंचे बाबा ठाकुर दास एक दिन दूध गर्म कर रहे थे, इस दौरान दूध फट गया तो उन्होंने उसमें चीनी डाली और पकाकर एक बर्तन में जमा दिया. उसके बाद जब वह ठंडा हुआ तो अंदर से कुछ लाल निकला. इसका स्वाद भी बेजोड़ था जिसपर उन्होंने इसका नाम कलाकंद रख दिया.
इसके बाद से ही कलाकंद लगातार देश-विदेश में अलवर को विशेष पहचान दिलाता रहा है. अलवर में आने वाले राजनेता, कलाकार, फिल्मी हस्ती या उद्योगपति सभी कलाकंद को खासा पसंद करते हैं. देश-विदेश तक अलवर का कलाकंद लोगों के जीवन में मिठास घोल रहा है.
जिस तरह से मथुरा का पेड़ा, आगरा का पेठा और जयपुर की फीणी व घेवर देश-विदेश में पहचान रखता है, उसी तरह से अलवर का कलाकंद भी अपनी विशेष पहचान रखता है. कलाकंद को मिल्ककेक भी कहा जाता है. नेता, अभिनेता और उद्योगपति सभी कलाकंद को खासा पसंद करते हैं.
1947 में हुई थी मिल्क केक की शुरुआत
आज अलवर के अलावा कई और शहरों में मिल्क केक बनाया जाता है, लेकिन अलवर का मिल्क केक विदेशों में भी खास पहचान रखता है. अलवर में मिल्क केक की शुरुआत आजादी के समय सन 1947 में हुई थी. बंटवारे के समय पाकिस्तान के स्माइल का क्षेत्र से 1947 में बाबा ठाकुर दास विस्थापित होकर अलवर आए. अलवर में उनको सरकार की तरफ से जमीन दी गई और रोजगार शुरू करने के लिए एक जगह दी गई.
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इस दौरान बाबा ठाकुर दास एक दिन दूध गर्म कर रहे थे, तो अचानक दूध फट गया. दूध के फटने पर बाबा ठाकुर दास ने इस दूध में चीनी मिला दी और उसको पकाकर एक बर्तन में जमा दिया. कुछ घंटों बाद उन्होंने देखा तो वो एक स्वादिष्ट मिठाई के रूप में नजर आया. अंदर से दिखने में लाल और बाहर से सफेद रंग की. इसके बाद बाबा ठाकुर दास ने इस मिठाई को कलाकंद नाम दिया गया. उसके बाद से लगातार अलवर में कलाकंद बनाने की प्रक्रिया चल रही है.
बाबा ठाकुर दास की तीसरी पीढ़ी अब कर रही यह काम
वर्तमान समय में बाबा ठाकुर दास की तीसरी पीढ़ी अब इस काम को कर रही है. उनके पोते अभिषेक तनेजा ने ईटीवी भारत से खास बातचीत में बताया कि आज कलाकंद देश के अलावा विदेशों में भी सप्लाई किया जाता है. अलवर से कलाकंद लंदन और दुबई सहित कई देशों में सप्लाई होता है. इसके अलावा Amazon सहित कई ऑनलाइन साइट पर भी अलवर का मिल्क केक मिल रहा है. अलवर का कलाकंद विदेशों में 1200 रुपए किलो के हिसाब से लोगों को मिलता है.
अभिषेक तनेजा ने बताया कि गुणवत्ता बेहतर रखने के लिए लगातार उनके प्रयास जारी रहते हैं. प्रतिदिन अलवर के आसपास गांव से हजारों-लाखों लीटर दूध इकट्ठा किया जाता है. उसके लिए अलग से कर्मचारी रखे हुए हैं, जो बेहतर गुणवत्ता जांच कर दूध का कलेक्शन करते हैं.उसके बाद दूध से कलाकंद बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है.
ऐसे बनाया जाता है कलाकंद
कलाकंद बनाने की प्रक्रिया के बारे में भी विस्तार से जानकारी देते हुए अभिषेक तनेजा ने बताया कि दूध में केसर और चीनी मिलाकर उसको पकाया जाता है. उसके बाद कलाकंद तैयार होता है. उन्होंने बताया कि अलवर के कलाकंद को लोग खास आर्डर पर मंगाते हैं. उन्होंने बताया कि आज कई तरह के खाद्य पदार्थों में मिलावट हो रही है, तो वहीं मिलावट के चलते लोग मिठाइयों से बच रहे हैं. उसके बाद भी कलाकंद की मिठास बरकरार है.
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अभिषेक तनेजा ने बताया कि विदेशी कंपनियां कई बार अलवर के कलाकंद को बेहतर क्वालिटी का प्रमाण दे चुकी है. विदेश में कलाकंद सप्लाई होने से पहले वहां की एजेंसियों ने इसकी गुणवत्ता जांच की थी, उसमें भी कलाकंद 100 प्रतिशत गुणवत्ता पर खरा उतरा. उन्होंने बताया कि अलवर में उनके बहरोड़ सहित कई काउंटर चल रहे हैं. हालांकि अलवर में और कुछ अन्य जगह भी मिल्क केक बनने लगा है, लेकिन आज भी लोग बाबा ठाकुर दास का कलाकंद लेना पसंद करते हैं.
गुणवत्ता का रखा जाता है खास ध्यान
कलाकंद बनाने वाले कारीगरों का कहना है कि गुणवत्ता पर खास ध्यान रखा जाता है क्योंकि अगर गुणवत्ता बेहतर नहीं होगी तो कलाकंद की डिमांड कम हो जाएगी. उनका कहना है कि आजादी के बाद से गुणवत्ता बेहतर रखते हुए कई नए बदलाव और कई नए फ्लेवर तैयार करने के प्रयास किए जा रहे हैं.
अलवर के किशनगढ़बास, खैरथल, तिजारा और रामगढ़ सहित जिले के विभिन्न हिस्सों में हजारों की संख्या में ऐसी दुकान में कारखाने हैं, जहां दिन-रात नकली कलाकंद बनाया जा रहा है. दिल्ली और एनसीआर में यह कलाकंद सप्लाई होता है, तो वहीं महज 150 से 200 रुपए किलो की कीमत में यह कलाकंद दुकानदारों को मिल जाता है. कई बार स्वास्थ्य विभाग और पुलिस की कार्रवाई के दौरान इस बात का खुलासा भी हुआ है, लेकिन उसके बाद भी यह खेल लगातार जारी है.