अजमेर. जिसे खुदा की इबादत का नशा हो जाए उसे कुछ और नहीं सूझता है. दिन-रात खुदा की इबादत ही उसका एकमात्र काम रह जाता है और वे पूरी शिद्दत के साथ उसकी अकीदत में ही अपना जीवन गुजार देता है. अल्लाह की इबादत में ही अपना तन, मन लुटा देने वाले इन बंदों को कलंदर या मलंग का नाम दिया जाता है. हर साल की तरह इस बार भी शुक्रवार को देश भर से कलंदर या मलंग अपने टोली के साथ महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में हाजिरी देने पहुंचे हैं. इनके जिंदगी का लक्ष्य गरीब नवाज की छत्रछाया में अपना जीवन बिताना है.
मलंग या कलंदरों का टोला हर साल की तरह इस बार भी दिल्ली से 400 किलोमीटर पैदल चलकर अजमेर पहुंचा है, जहां स्थानीय लोगों ने फूल मालाओं से इनका स्वागत किया. दरगाह समिति के ख़ुशतर चिश्ती ने बताया की कलंदरों का जत्था महरौली स्थित ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह से रवाना हुआ था. इस जत्थे में काफी कलंदर शामिल हैं. बताया कि छड़ियों के जुलूस की शुरुआत करीब 800 साल पहले हुई थी. पहले उर्स की शुरुआत का एलान छड़ियों के माध्यम से ही किया जाता था.
पहले आते थे 10-15 कलंदर
शुरुआत में 10 से 15 मलंग ही आते थे लेकिन अब इनकी संख्या सैकड़ों में हो गई है. इन मलंगों और कलंदरों की अपनी एक अलग ही दुनिया है. लंबी दाढ़ी और काले चोगे वाले यह कलंदर खुद को ख्वाजा गरीब नवाज का दोस्त मानते हैं और सही भी है कि जब इबादत अपने चरम पर पहुंच जाती है तो अकीदतमंद और अल्लाह के बीच मित्रता का परम स्नेही रिश्ता खुद ब खुद बन जाता है. कलंदरों के करतब देखने लायक होते हैं. जब अजमेर की गलियों से इनका जुलूस निकलता है, तो पूरा रास्ता थम जाता है और ऐसा ही कुछ नजारा रविवार को देखने को मिलेगा, जब उर्स के दौरान यह कलंदर और मलंग आकर्षण का केंद्र बने रहेंगे.
पढ़ें: राहुल जी को भी गंगा स्नान कर लेना चाहिए, पाप कटेंगे : गजेंद्र सिंह शेखावत
ख्वाजा गरीब नवाज के उर्स में अपने हैरतअंगेज कारनामों को अंजाम देकर सभी को दंग कर देने वाले यह मलंग 'दमा दम मस्त कलंदर' की धुन पर नाचते-गाते जुलूस के रूप में गरीब नवाज की दरगाह पर हाजिरी देने पहुंचेंगे. दिल्ली के पास महरौली से पैदल चलकर सैकड़ों की संख्या में मलंग हर साल दरबार-ए-ख्वाजा में हाजिरी देने पहुंचते हैं.
संत कुतुबुद्दीन बख्तियार ताकी की दरगाह पर होते हैं इकट्ठा
रजब के चांद की तारीख में बाद सभी कलंदर संत कुतुबुद्दीन बख्तियार ताकी की दरगाह पर इकट्ठा होते हैं. क्योंकि कुतुबुद्दीन बख्तियार ताकी ख्वाजा साहब के पहले खलीफा थे और उन्हीं ने परचम पेश करने की रस्म की शुरुआत की थी. यहां से जुलूस के रूप में पैदल रवाना होकर सभी कलंदर अजमेर पहुंचते हैं. असर की नमाज के बाद अपने निशान यानी छड़ी मुबारक पेश कर गरीब नवाज के दरबार में दुआ मांगी जाती है.
कलंदरों के दल में बच्चे भी शामिल
कलंदरों के दल में सिर्फ बड़े ही नहीं बच्चे भी अपना जलवा बिखेरते हैं. इनके करतब देखने के लिए दरगाह बाजार की छतें अकीदतमंदों से अट जाती है. मलंगों के आने से उर्स में शादी जैसा माहौल बन जाता है और सभी मलंग इसमें बाराती होते हैं. इन कलंदरों की खास बात यह है कि उनके बीच कोई धर्म नहीं होता, इनके दिल में अपने खुदा के प्रति प्यार है और यह सभी दुनिया के कोने-कोने से अपने ख्वाजा से मिलने उनके दरबार में पेश होते हैं.
पढ़ें: SPECIAL : चूरू का सेठानी जोहड़ दे चुका छप्पनिया अकाल को मात...अब प्रशासन की अनदेखी का शिकार
कलंदरों का मानना है कि उनके इन सब कारनामों के पीछे खुदा और फकीरो की रजा होती है. उनके कारनामे पीर ओ मुर्शिद को खुश करने का एक तरीका भर है. यह कलंदर ख्वाजा से मिलने की दीवानगी में अपने पैरों के छालों की परवाह किए बगैर सिर्फ गरीब नवाज में समा जाना चाहते हैं.
कुतुब बख्तियार काकी ने शुरू की थी ये परंपरा
इमाम हसन गुदड़ी शाह बाबा ने बताया हजरत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी ने छड़ी की परंपरा शुरू की थी. इसी का निर्वहन कलंदर और मलंग कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि सदियों से यह परंपरा चली आ रही है. पैदल आने वाले कलंदर और मलंग पहले आनासागर के किनारे ही ठहरते थे और आनासागर में नहाकर छड़िया लेकर दरगाह पहुंचते थे. फिर करीब 90 साल पहले गुदड़ी शाह बाबा तृतीय ने इन कलंदर और मलंगों को सम्मान देना शुरू किया. अब यह लोग चिल्ले पर रुकते हैं और यहीं से जुलूस के रूप में दरगाह पहुंचने हैं. अलग-अलग प्रदेशों के जत्थे होते हैं. इस बार कोविड-19 की गाइडलाइन की पालना करते हुए छड़ी ले जाई जाएंगी.