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यूक्रेन और अफगानिस्तान, असफल हमलों की एक जैसी कहानी

रूस ने महज तीन दिनों में युद्ध खत्म करने की योजना बनाई थी. लेकिन अब उसे यह अहसास हो गया है कि वह आसानी से यह युद्ध नहीं जीत सकता है. बल्कि उसने अपने पड़ोस में एक और 'दुश्मन' खड़ा कर लिया है. यूक्रेन को पूरी दुनिया से सहानुभूति मिल रही है. उसके नागरिकों ने जो जज्बा दिखाया है, उसके आगे ताकतवर रूस भी हांफता हुआ दिख रहा है. दरअसल, अफगान युद्ध ने जिस तरह से सोवियत संघ की प्रतिष्ठा को तबाह कर दिया था उसी तरह से यूक्रेन पर हमला पुतिन के शासन को खतरे में डाल सकता है. पढ़िए 'ईटीवी भारत' के न्यूज एडिटर बिलाल भट्ट का एक विश्लेषण.

Striking parallels
यूक्रेन रूस संकट
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Published : Mar 30, 2022, 9:23 PM IST

हैदराबाद : यूक्रेन पर रूस के हमले का जिस तरह से आज 36वां दिन है. जाहिर तौर पर अब ये कहा जा सकता है कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को ये अंदाजा नहीं था कि उनकी सेना को इस तरह तगड़ा मुकाबला करना पड़ेगा. उन्होंने शायद यह भी अनुमान नहीं लगाया था कि यूक्रेन पर जो युद्ध और संकट की स्थिति है उसके लिए उस देश को दुनिया भर से इतना समर्थन मिलेगा.

यह पहली बार नहीं है जब रूस के साथ ऐसा हुआ है. 1979 में जब सोवियत खुफिया एजेंसी (KGB) ने सोवियत सरकार को अफगानों और पश्चिम, विशेष रूप से अमेरिका के बीच बढ़ती नजदीकियों की सूचना दी थी. तब रूस उसे बड़ा खतरा मानने लगा था. अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से सटे सोवियत संघ ने सुरक्षा के ख़तरे से बाहर निकलकर मास्को पर पड़ने वाले परिणामों पर ज्यादा ध्यान दिए बिना अफ़ग़ान आक्रमण की योजना बनाई. हमले ने सोवियत दुश्मनों को रूसी सेना को हराने का मौका दिया.

संयुक्त राज्य अमेरिका और पाकिस्तान ने विद्रोहियों के हाथों पराजित एक शक्तिशाली राष्ट्र को अपमानित करने के लिए रूस के खिलाफ छद्म युद्ध की योजना बनाई. इसके लिए अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने गुप्त रूप से अफगानों को न सिर्फ हथियार दिए बल्कि उन्हें चलाने के तरीके भी बताए. अफगान विद्रोह का समर्थन करने के लिए पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने अपने संसाधनों का पूरी तरह से इस्तेमाल किया. अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच की सीमाओं को अफ़ग़ान लड़ाकों की मदद का जरिया बनाया गया. उन्हें शरण देने, खुले रूप से आवाजाही की इजाजत देने के साथ ही संसाधन भी उपलब्ध कराए गए.

रूसी सेना को हराना था मकसद : मोहम्मद यूसुफ और मार्क एडकिन (Mohammad Yousaf and Mark Adkin) ने अपनी पुस्तक 'अफगानिस्तान: द बियर ट्रैप' (Afghanistan: The Bear Trap) में खुलासा किया है कि कैसे अमेरिका और पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध का समर्थन किया था. पाकिस्तानी धार्मिक और जातीय आधार पर अफगानों का समर्थन कर रहे थे और अमेरिका सोवियत संघ को कमजोर करके अपना रुतबा बढ़ाने का प्रयास कर रहा था. दोनों का साझा मकसद रूसी सेना को हराना था. नतीजतन, सोवियत संघ लंबे समय तक टिक नहीं सका और उसे 1988-89 में अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाना पड़ा.

बाद में 20 साल तक लड़ाई लड़कर अमेरिका ने 2021 में आधी रात को अफगानिस्तान छोड़ दिया. ऐसा लगता है कि रूस ने अपनी पिछली गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा और न ही अफगानिस्तान में 20 वर्षों के युद्ध के दौरान अमेरिका का जो अनुभव रहा उसे संज्ञान में लिया. यह अफगान युद्ध था जिसके लिए सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ (यूएसएसआर) को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. यूएसएसआर 15 छोटे राष्ट्रों में विघटित हो गया, जिनमें से एक यूक्रेन अब रूसी सैनिकों से लड़ रहा है.

रूस अब फिर उसी मुहाने पर खड़ा है. उसने यूक्रेन को दुश्मन समझ लिया और उस पर आक्रमण कर दिया. चीजों को जिस तरह से रूस ने देखा और यूक्रेन पर हमले का फैसला लिया वह पुतिन के लिए झटके जैसा ही साबित हो रहा है. जिस तरह से युद्ध लंबा खिंचता जा रहा है वह पुतिन के लिए कुछ ऐसा ही जैसे किसी ने क्षमता से ज्यादा निवाला मुंह में भर लिया हो (bite more than he could chew).

दरअसल यूरोपीय संघ के साथ यूक्रेन की बढ़ती नजदीकी और यूरोपीय संघ का सदस्य बनने की उसकी इच्छा ने पुतिन को बेचैन कर दिया, यही वजह रही कि रूस ने बड़े हमले की योजना बना ली. पुतिन को उम्मीद थी कि वह आसानी से पार पा लेंगे, जैसा कि कुछ रिपोर्टों में भी कहा गया था कि उन्होंने युद्ध को 3 दिनों में खत्म करने की योजना बनाई थी. जिस तरह से उनके सैनिक हताहत हुए हैं, भारी तबाही हुई है उससे उनका अनुमान पूरी तरह से गलत साबित हुआ है. जबकि यूक्रेन में जिस कदर आम लोगों की मौते हुई हैं, बर्बादी हुई है युद्ध के हर बीतते दिन के साथ वहां के लोगों में मुकाबला करने की प्रेरणा मिली है.

1979 और 2022 में रूस के दो कारनामों के बीच जो समानताएं हैं उससे यूक्रेन संघर्ष में उसके भाग्य का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होगा. अफगान युद्ध ने जिस तरह से सोवियत संघ की प्रतिष्ठा को तबाह कर दिया उसी तरह से यूक्रेन में आक्रमण पुतिन के शासन को खतरे में डाल सकता है. 30 मार्च को रूस और यूक्रेन के बीच तुर्की में वार्ता हुई. रूस का यूक्रेन में ऑपरेशन को कम करने के लिए राजी होना स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि पुतिन ने यह सोचना शुरू कर दिया है कि उनके लिए पार पाना आसान नहीं है. यही वजह है कि उन्होंने उस इलाके में गतिविधियां धीमी कर दी हैं. लेकिन इस सब के साथ पुतिन ने पश्चिम को उसे पीछे धकेलने का एक कारण दे दिया है. अब यूक्रेन को छोड़ देना ही उसके लिए विकल्प है. जबकि यूक्रेन एक मजबूत राष्ट्र के रूप में उभरा है और भविष्य में रूस के लिए एक बड़ी चुनौती बनने जा रहा है.

यूक्रेन की सबसे बड़ी ताकत पूरे यूरोप में फैली उसकी विस्थापित आबादी साबित होगी. इन सीमावर्ती नाटो देशों में प्रवेश करने वाले यूक्रेनी शरणार्थियों को उसी तरह सहानुभूति और समर्थन मिल रहा है जिस तरह से अफगानों को पाकिस्तान, भारत और अन्य जगहों से मिला. शरणार्थियों की बढ़ती संख्या के साथ ही रूस के खिलाफ आवाजें बुलंद होती जाएंगी कि वह यूक्रेन के लोगों के साथ किस कदर अत्याचार कर रहा है.

पढ़ें- रूस-यूक्रेन वार्ता सफल होने की उम्मीद के बीच झूमा शेयर बाजार, सेंसेक्स 740 अंक चढ़ा

यूक्रेन के लड़ाके अपने ठिकानों को मजबूत करेंगे और भविष्य में किसी भी शक्तिशाली सेना से लड़ने में सक्षम सैन्य सहायता की मांग करेंगे. रूस ने यूक्रेन के कुछ हिस्सों में पहले जो विद्रोह शुरू किया था, वह मॉस्को के लिए सिरदर्द बनने जा रहा है. दरअसल इस युद्ध ने उनके देश की जनता की सोच को भी बदला है. देश में अधिकतर रूसी भाषी आबादी पुतिन के खिलाफ हो गई है. रूस का अत्याचार और जिस तरह से आम लोग मारे गए हैं, वह अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों के लिए रूस के खिलाफ प्रमुख मुद्दा बनने जा रहा है. पुतिन को अपने ही देश में दुश्मन के तौर पर देखा जा रहा है और उनसे नफरत की जा रही है. इस युद्ध का एक सबक ये भी है कि अब कोई भी शक्तिशाली राष्ट्र इस सोच के साथ छोटे देश पर हमला नहीं करेगा कि वह आसानी से उससे पार पा लेगा.

पढ़ें- जंग के बीच रूस ने दिए नरमी के संकेत, पश्चिमी देशों को अब भी संदेह

हैदराबाद : यूक्रेन पर रूस के हमले का जिस तरह से आज 36वां दिन है. जाहिर तौर पर अब ये कहा जा सकता है कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को ये अंदाजा नहीं था कि उनकी सेना को इस तरह तगड़ा मुकाबला करना पड़ेगा. उन्होंने शायद यह भी अनुमान नहीं लगाया था कि यूक्रेन पर जो युद्ध और संकट की स्थिति है उसके लिए उस देश को दुनिया भर से इतना समर्थन मिलेगा.

यह पहली बार नहीं है जब रूस के साथ ऐसा हुआ है. 1979 में जब सोवियत खुफिया एजेंसी (KGB) ने सोवियत सरकार को अफगानों और पश्चिम, विशेष रूप से अमेरिका के बीच बढ़ती नजदीकियों की सूचना दी थी. तब रूस उसे बड़ा खतरा मानने लगा था. अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से सटे सोवियत संघ ने सुरक्षा के ख़तरे से बाहर निकलकर मास्को पर पड़ने वाले परिणामों पर ज्यादा ध्यान दिए बिना अफ़ग़ान आक्रमण की योजना बनाई. हमले ने सोवियत दुश्मनों को रूसी सेना को हराने का मौका दिया.

संयुक्त राज्य अमेरिका और पाकिस्तान ने विद्रोहियों के हाथों पराजित एक शक्तिशाली राष्ट्र को अपमानित करने के लिए रूस के खिलाफ छद्म युद्ध की योजना बनाई. इसके लिए अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने गुप्त रूप से अफगानों को न सिर्फ हथियार दिए बल्कि उन्हें चलाने के तरीके भी बताए. अफगान विद्रोह का समर्थन करने के लिए पाकिस्तानी सेना और आईएसआई ने अपने संसाधनों का पूरी तरह से इस्तेमाल किया. अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच की सीमाओं को अफ़ग़ान लड़ाकों की मदद का जरिया बनाया गया. उन्हें शरण देने, खुले रूप से आवाजाही की इजाजत देने के साथ ही संसाधन भी उपलब्ध कराए गए.

रूसी सेना को हराना था मकसद : मोहम्मद यूसुफ और मार्क एडकिन (Mohammad Yousaf and Mark Adkin) ने अपनी पुस्तक 'अफगानिस्तान: द बियर ट्रैप' (Afghanistan: The Bear Trap) में खुलासा किया है कि कैसे अमेरिका और पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध का समर्थन किया था. पाकिस्तानी धार्मिक और जातीय आधार पर अफगानों का समर्थन कर रहे थे और अमेरिका सोवियत संघ को कमजोर करके अपना रुतबा बढ़ाने का प्रयास कर रहा था. दोनों का साझा मकसद रूसी सेना को हराना था. नतीजतन, सोवियत संघ लंबे समय तक टिक नहीं सका और उसे 1988-89 में अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाना पड़ा.

बाद में 20 साल तक लड़ाई लड़कर अमेरिका ने 2021 में आधी रात को अफगानिस्तान छोड़ दिया. ऐसा लगता है कि रूस ने अपनी पिछली गलतियों से कोई सबक नहीं सीखा और न ही अफगानिस्तान में 20 वर्षों के युद्ध के दौरान अमेरिका का जो अनुभव रहा उसे संज्ञान में लिया. यह अफगान युद्ध था जिसके लिए सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ (यूएसएसआर) को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी. यूएसएसआर 15 छोटे राष्ट्रों में विघटित हो गया, जिनमें से एक यूक्रेन अब रूसी सैनिकों से लड़ रहा है.

रूस अब फिर उसी मुहाने पर खड़ा है. उसने यूक्रेन को दुश्मन समझ लिया और उस पर आक्रमण कर दिया. चीजों को जिस तरह से रूस ने देखा और यूक्रेन पर हमले का फैसला लिया वह पुतिन के लिए झटके जैसा ही साबित हो रहा है. जिस तरह से युद्ध लंबा खिंचता जा रहा है वह पुतिन के लिए कुछ ऐसा ही जैसे किसी ने क्षमता से ज्यादा निवाला मुंह में भर लिया हो (bite more than he could chew).

दरअसल यूरोपीय संघ के साथ यूक्रेन की बढ़ती नजदीकी और यूरोपीय संघ का सदस्य बनने की उसकी इच्छा ने पुतिन को बेचैन कर दिया, यही वजह रही कि रूस ने बड़े हमले की योजना बना ली. पुतिन को उम्मीद थी कि वह आसानी से पार पा लेंगे, जैसा कि कुछ रिपोर्टों में भी कहा गया था कि उन्होंने युद्ध को 3 दिनों में खत्म करने की योजना बनाई थी. जिस तरह से उनके सैनिक हताहत हुए हैं, भारी तबाही हुई है उससे उनका अनुमान पूरी तरह से गलत साबित हुआ है. जबकि यूक्रेन में जिस कदर आम लोगों की मौते हुई हैं, बर्बादी हुई है युद्ध के हर बीतते दिन के साथ वहां के लोगों में मुकाबला करने की प्रेरणा मिली है.

1979 और 2022 में रूस के दो कारनामों के बीच जो समानताएं हैं उससे यूक्रेन संघर्ष में उसके भाग्य का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होगा. अफगान युद्ध ने जिस तरह से सोवियत संघ की प्रतिष्ठा को तबाह कर दिया उसी तरह से यूक्रेन में आक्रमण पुतिन के शासन को खतरे में डाल सकता है. 30 मार्च को रूस और यूक्रेन के बीच तुर्की में वार्ता हुई. रूस का यूक्रेन में ऑपरेशन को कम करने के लिए राजी होना स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि पुतिन ने यह सोचना शुरू कर दिया है कि उनके लिए पार पाना आसान नहीं है. यही वजह है कि उन्होंने उस इलाके में गतिविधियां धीमी कर दी हैं. लेकिन इस सब के साथ पुतिन ने पश्चिम को उसे पीछे धकेलने का एक कारण दे दिया है. अब यूक्रेन को छोड़ देना ही उसके लिए विकल्प है. जबकि यूक्रेन एक मजबूत राष्ट्र के रूप में उभरा है और भविष्य में रूस के लिए एक बड़ी चुनौती बनने जा रहा है.

यूक्रेन की सबसे बड़ी ताकत पूरे यूरोप में फैली उसकी विस्थापित आबादी साबित होगी. इन सीमावर्ती नाटो देशों में प्रवेश करने वाले यूक्रेनी शरणार्थियों को उसी तरह सहानुभूति और समर्थन मिल रहा है जिस तरह से अफगानों को पाकिस्तान, भारत और अन्य जगहों से मिला. शरणार्थियों की बढ़ती संख्या के साथ ही रूस के खिलाफ आवाजें बुलंद होती जाएंगी कि वह यूक्रेन के लोगों के साथ किस कदर अत्याचार कर रहा है.

पढ़ें- रूस-यूक्रेन वार्ता सफल होने की उम्मीद के बीच झूमा शेयर बाजार, सेंसेक्स 740 अंक चढ़ा

यूक्रेन के लड़ाके अपने ठिकानों को मजबूत करेंगे और भविष्य में किसी भी शक्तिशाली सेना से लड़ने में सक्षम सैन्य सहायता की मांग करेंगे. रूस ने यूक्रेन के कुछ हिस्सों में पहले जो विद्रोह शुरू किया था, वह मॉस्को के लिए सिरदर्द बनने जा रहा है. दरअसल इस युद्ध ने उनके देश की जनता की सोच को भी बदला है. देश में अधिकतर रूसी भाषी आबादी पुतिन के खिलाफ हो गई है. रूस का अत्याचार और जिस तरह से आम लोग मारे गए हैं, वह अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों के लिए रूस के खिलाफ प्रमुख मुद्दा बनने जा रहा है. पुतिन को अपने ही देश में दुश्मन के तौर पर देखा जा रहा है और उनसे नफरत की जा रही है. इस युद्ध का एक सबक ये भी है कि अब कोई भी शक्तिशाली राष्ट्र इस सोच के साथ छोटे देश पर हमला नहीं करेगा कि वह आसानी से उससे पार पा लेगा.

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